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वर्षांत 2017 : विषय-वैविध्य एवं विधाओं के बाहुल्य से सजा साहित्य
साल बदल जाने से साहित्य का चेहरा ज्यादा नहीं बदल जाता. कुछ नयी किताबें जुड़ जाती हैं, कुछ रचनाकारों का विस्तार होता है. कुछ बातें, थोड़ा विवाद, कुछ दर्ज-दफन, जन्म-मृत्यु एक साथ. इसी तरह साहित्य का भी परिदृश्य है, जिसे हम सुविधा के लिए साल में बांट लेते हैं. साहित्य के प्रवाह में सालभर का […]
साल बदल जाने से साहित्य का चेहरा ज्यादा नहीं बदल जाता. कुछ नयी किताबें जुड़ जाती हैं, कुछ रचनाकारों का विस्तार होता है. कुछ बातें, थोड़ा विवाद, कुछ दर्ज-दफन, जन्म-मृत्यु एक साथ. इसी तरह साहित्य का भी परिदृश्य है, जिसे हम सुविधा के लिए साल में बांट लेते हैं. साहित्य के प्रवाह में सालभर का लेखा-जोखा साहित्य के प्रवाहित नदी का अंजुरीभर जल लेकर पानी के रंगत को पहचानना है…
युवा रचनाशीलता के नाम रहा साल
प्रेम भारद्वाज, संपादक, पाखी
कभी नामवर सिंह ने कहा था कि उपन्यास कम लिखे जा रहे हैं. लगता है कि उपन्यासकारों ने इसे गौर से सुना. पिछले कुछ सालों से उपन्यास ठीक-ठाक संख्या में लिखे जा रहे हैं. वरिष्ठ लेखक कृष्णा सोबती का उपन्यास ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरता हिंदुस्तान’ ऐसे वक्त में सामने आया है, जब गुजरात का मतलब सिर्फ गुजरात नहीं है, न ही हिंदुस्तान अब पहले वाला हिंदुस्तान रहा. सियासत भूगोल बदलती है और यह बदलाव अक्सर रक्त-रंजित पड़ाव से होकर गुजरता है.
अगर इसे हम इस आत्मकथा नामक उपन्यास न भी कहें, तो भी उपन्यास में कøृष्णा सोबती की उपस्थिति इसको प्रमाणित करने के साथ समाज को एक संदेश भी देती है. विभाजन के बाद विस्थापन की ‘वेदना’ को यहां विस्तार देखने को मिलता है- ‘अब हम हम नहीं हैं, हथियार हंै. घात और मात का खेल खेलनेवाले. राजनीति के सारे तर्क यहां आकर एक हो गये हैं मौत मौत.’
साल के अंत में आया अवधेश प्रीत का उपन्यास ‘अशोक राजपथ’ ग्लोबल के प्रचंड शोर में बिहार की राजधानी पटना की एक लेखक को लेकर आया है. अशोक राजपथ पटना की एक सड़क है. जिसे वहां ‘उपरकी रोड’ के नाम से भी जाना जाता है. नब्बे के दशक में यहां इस रोड पर कोचिंग सेंटर भी थे- उपन्यास में उन कोचिंग माफिया के खिलाफ छात्र आंदोलन पर फोकस है.
साथ ही तब के राजनीतिक-सामाजिक परिवेश को बड़ी खूबसूरती के साथ चित्रित किया गया संवाद है. पटनहिया टोन में संवाद पंच देने का काम करते हैं. मृणाल पांडे का उपन्यास ‘सोहेला रे’ की पृष्ठभूमि संगीत है. इसके केंद्र में पहाड़ जरूर है, लेकिन रोशन आरा बेगम के बहाने तब के संगीत घरानों और संगीत की साधना से जुड़ी जिंदगियां, तब का वक्त हर-दर में हर्फ झांकता लगता है. प्रभात त्रिपाठी का उपन्यास ‘किस्सा बे सिर पैर’ भी इस वर्ष प्रकाशित होकर चर्चित रहा. लेखक का किस्सागोई अंदाज इस उपन्यास को खूबसूरत बनाता है. संजय कुंदन का ‘तीन ताल’ का विषय युवा है जो हिंदी उपन्यासों में बहुत कम ही देखा जाता है.
गीताश्री के ‘हसीनाबाद’ में संगीत और स्त्री दोनों की बातें हैं और उसका लोकेल भी अविभाजित बिहार है. राकेश तिवारी के ‘फसक’ उत्तराखंड को पृष्ठभूमि बनाकर लिखा गया है तो सूर्यनाथ सिंह का ‘नींदभर क्या रातभर नहीं आती’ स्मृतियां वर्तमान की टकराहट है, जिसे मंधाता बाबू के किस्से में बताया गया है. योगिता यादव के उपन्यास ‘ख्वाहिशों के खांडवन’ में स्त्री के मार्फत समय बयां है. द्रुत गति से लिख रहे भगवानदास मोरवाल के उपन्यास ‘सुरबंजान’ का विषय लोक संगीत है. इस उपन्यास में उन्होंने हाथरस की नौटंकी गायिका के जीवन को केंद्र में रखकर नौटंकी की दुनिया के रंजो-गम से वाबस्ता कराया है.
पिछले साल 2016 में अपेक्षाकøत कहानी संग्रह कम आये थे, उसकी कमी इस साल एक हद तक पूरी हो गयी. अल्पना मिश्र के चौथे कहानी संग्रह ‘स्याही में सुर्खाब के पंख’ में हमारा स्याह समय प्रतीकों-चरित्रों के माध्यम से व्यक्त हुआ है. शीर्षक कहानी उपन्यास का सा संवेदना और कथ्य समेटे हुए है.
इस कहानी में तीन पात्र सोनपती बहन, निरूपमा और वैशाली सारस्वत मटाफर है ‘जो मौजूदा संत्रास भर समय को प्रतिबिंबित करते हैं. ज्ञान के सत्ता में बदलने, उसके क्रूर होने और स्त्री-प्रेम विरोध समय में मुक्ति की आकांक्षा से लवरेज पात्र बेहतरी की तलाश में छलांग लगाने को बेताब है. कहानी के अंत में ‘रैल’ एक उम्मीद की तरह आती है कि जो है उससे बेहतर की ओर कूच करना चाहिए. संग्रह की अन्य कहानियां ‘नीड़’, ‘कथई नीली धारी वाली कमीज’ और ‘राग-विराग’ में समय समाज के अक्स साफतौर पर देखे जा सकते हैं. पंकज मित्र का कहानी संग्रह ‘बाशिंदा: तीसरी दुनिया’ उनका चौथा कहानी संग्रह है.
इस संग्रह में कहानियों की जमीन नगर से लेकर गांव तक है, जोबदल रहे देश को रचनात्मक रूप से रेखांकित करती है. इसकी कहानी ‘कफन रिमिक्स’ प्रेमचंद की चर्चित कहानी ‘कफन’ का नया पाठ रचती है. किसी भी खेमे से दूर रहकर निरंतर लिखनेवाले राकेश कुमार सिंह का नया कहानी संग्रह ‘कहानी खत्म नहीं होती’ में उनके जमीन से जुड़ा होना एक बार फिर प्रमाणित होता है. युवोत्तर पीढ़ी की आकांक्षा पारे का नया संग्रह ‘बहत्तर धड़कन तिहत्तर अरमान’ उनका रचनात्मकता को एक कदम और आगे बढ़ाता है. पुरानी पीढ़ी को कम में ज्यादा कहने की कला आकांक्षा से सीखनी चाहिए, जो अपनी कहानी को विश्वसनीय बनाने के क्रम में और भ्रम में अनावश्यक विस्तार देते हैं. नरेंद्र भागदेव एक ऐसे बेहतर कथाकार हैं जो लिखते हैं.
लगातार रचनारत गीताश्री का कहानी संग्रह ‘डाउन लोड होते सपने’ में उन्होंने समाज के कई अनछुए विषयों को उठाया है. इनकी कहानियों में स्त्री की आकांक्षा का एक बड़ा मानचित्र हमें स्त्री के तन-मन के साथ समााज में उसकी स्थिति का भी पता देता है.हर साल की तरह इस बार भी कविता संग्रह की तादाद ज्यादा रही. लेकिन बाकी युवा कवियों में भारी है.
युवा अविनाश मिश्र का पहला काव्य संग्रह ‘अज्ञातवास की कविताएं’ युवा कविता के मयार को दिखाता है. इनके बारे में असद जैदी ने लिखा है- ‘अविनाश अपनी उम्र की सीमाएं लांघे बिना लिखते हैं. वह वर्तमान में कवि हैं, कोई उम्मीद जगाने वाला कवि नहीं हैं.’ वहीं अविनाश लिखते हैं- आपत्तियां केवल निर्लज्जा के पास बची है और प्रतिरोध उपेक्षितों के पास है.’ अविनाश आस-पास बिखरी यथार्थ के ढेर में बहुत बारीक कण लेकर आते हैं और उसे अपनी क्राफ्ट से बड़ा बनाते हैं और चेतन क्रांति की हिंदी कविता में इंद्री एक धमाकेदार हुई थी. बहुत समय बाद उनका नया कविता संग्रह आया है ‘वीरता पर विचलित’.
आस्तिक वाजपेयी का संग्रह ‘थरथराहट’ यह उद्घोषणा है कि ‘कविता वह समय है जिसे इतिहास देख पाते हैं.’इनके लिए मृत्यु ही पिछली शताब्दी की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि है. राकेश रंजन का शिल्प अपने पूर्व कवितयों से जुदा है. उनका नया संग्रह ‘दिव्य खान कैद’ में ऐसी कविताएं हैं, जो राकेश रंजन को अपने साथी कवियों से अलग कर विशेष दर्जा देती है. इसी पीढ़ी के प्रेमरंजन अनिमेष के ‘बिना मुंडेर की छत’ की कविताओं में मन और के चित्र है जो शब्द में दर्ज हैं. गीत चतुर्वेदी कविताओं में खूबसूरत और गहरी पंक्तियां लिखने के लिए मशहूर हैं.
उनके नये संग्रह ‘न्यूनतम मैं’ में ऐसी कई पंक्तियां हैं, जो दिल में उतरती है, और दिल से रूह में. इसी साल की बिल्कुल युवा कवियों के कई पहल से संग्रह आये हैं, जिनमें ‘प्रकृति करगेती की ‘शहर और शिकायतें’, घनश्याम कुमार देवांश का ‘आकाश में देहा’, सुजाता का ‘अंतिम मौन के बीच’ और रश्मि भारद्वाज के ‘एक अतिरिक्त अ’ प्रमुख हैं. दिनेश कुशवाहा का ‘इतिहास में अभागे’ और सविता भार्गव का ‘अपने-अपने आकाश’ और विवेक निराला का ‘धुवतार में जल’ प्रमुख हैं.
राजेंद्र यादव को केंद्र में रखकर मैत्रेयी पुष्पा का ‘वह सफर था कि मुकाम’ को उनकी आत्मकथा का तीसरा भाग माना जा सकता है. गरिमा श्रीवास्तव की एक अहम पुस्तक ‘देह ही देश में’ उनका यूरोप के प्रवास की डायरी है, जिसमें वहां की स्त्रियों की व्यथा-कथा है.
नंदकिशोर नवल की संस्मरणों की पुस्तक ‘मूरत माटी और सोने की’ में साहित्य और गैर साहित्यिक लोगों पर संस्मरण है, जिन्होंने लेखक के मानस पर अमिट प्रभाव छोड़ा है. इसमें हिंदी के श्रेष्ठ आलोचक नागार्जुन, नामवर सिंह हैं, तो परिवार के बड़का बाबू भी हैं.
अंत में हम 365 दिनों को निचोड़कर एक पंक्ति निकालें, तो वह गीत के अमर वाक्य की तर्ज पर यह होगा कि यह साल युवा रचनाशीलता के नाम रहा. सालभर में दो-दो युवा महोत्सव कराकर अशोक वाजपेयी ने इस पर मुहर भी लगा दी. उत्सव साहित्य के केंद्र में आ रहा है या आ गया है. लेकिन, जिस तरह से साहित्य एक फैशन में तब्दील हो रहा है वह साहित्य को विस्तार देने के साथ-साथ थोड़ा चिंतित करनेवाला भी हे, क्योंकि इसमें उत्सव का शोर ज्यादा है.
2017 की चर्चित किताबें
प्रभात रंजन, कथाकार
पिछले कुछ सालों से हिंदी में लोकप्रिय बनाम गंभीर साहित्य की बहस बहुत तेज हुई है. हिंदी किताबों के विषयों में विविधता आयी है, प्रकाशनों की गुणवत्ता में सुधार आया है, प्रचार-प्रसार को महत्व दिया जाने लगा है. हिंदी में साहित्यिक लेखन को दशकों से सामाजिक कार्य के रूप में देखा जाता रहा. आज उसको पाठकीयता से जोड़कर देखा जाने लगा है. हिंदी में ऐसा पाठक-काल कभी नहीं आया था. आमतौर पर पठनीयता को नकारात्मक रूप में ही हिंदी में देखा जाता था. लेकिन, अब परिदृश्य बदल रहा है. तेजी से हो रहे बदलाव का यह ट्रेंड 2017 में और मजबूत हुआ.
पारंपरिक रूप से हिंदी समाज गल्पजीवी समाज रहा है. कविता, कहानी, उपन्यास और इनकी आलोचना. आम तौर पर इन विधाओं को ही साहित्य के दायरे में रखकर देखा जाता रहा है.
अन्य विधाओं को इतर के खाते में डालने का चलन था. लेकिन, 2017 की चर्चित किताबों के ट्रेंड को देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि साहित्य के ये प्रतिमान टूट रहे हैं. उदाहरण के लिए, इस साल की सबसे चर्चित किताब निर्विवादरूप से ‘लता सुरगाथा’ रही. यतींद्र मिश्र की इस किताब के ऊपर देशभर में इस साल जितने कार्यक्रम हुए, वह एक मिसाल है.
इसको सिनेमा लेखन के क्षेत्र में इस साल राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला. सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर के साथ बातचीत के आधार पर लिखी गयी इस पुस्तक में पाठकों की दिलचस्पी यह बताती है कि अगर पुस्तक का विषय लीक से हटकर हो, तो पाठक किताब खरीदने में कीमत की परवाह भी नहीं करता. अन्यथा पेपरबैक में 450 रुपये की इस किताब का बेस्टसेलर सूची में आना किताबों के भविष्य के लिए सुखद है. पठनीय होने के साथ-साथ यह एक संदर्भ पुस्तक की तरह भी है, जिसे पाठक अपने संग्रह में सदा रखना चाहेंगे.
धीरेंद्र अस्थाना की आत्मकथा ‘जिंदगी का क्या किया’ की भी इस साल अच्छी चर्चा रही. अस्थाना करीब चार दशकों से लेखन-पत्रकारिता की दुनिया के सबसे सक्रिय नामों में से एक रहे हैं.
उनकी इस आत्मकथा में पिछले करीब चार दशकों के हिंदी साहित्यिक परिदृश्य की विस्तृत झांकी भी है. यह आत्मकथा भले अस्थाना जी की है, लेकिन इसे हिंदी के ‘आत्म’ की कथा की तरह भी पढ़ा जा सकता है. यह एक ऐसे लेखक की आत्मकथा है, जो अपनी कथा कहते हुए अपने समाज को कभी नहीं भूलता.
ऐसा नहीं है कि इस साल हिंदी में उपन्यास नहीं आये या उनकी चर्चा नहीं हुई. लेकिन, उनका परिदृश्य अलग रहा, विषयवस्तु अलग रहे. लेखक रत्नेश्वर सिंह के उपन्यास ‘रेखना मेरी जान’ की चर्चा इस संदर्भ में की जा सकती है.
छपने से पहले इस उपन्यास की चर्चा इसलिए रही, क्योंकि पटना के नोवेल्टी बुक्स इस उपन्यास के लिए लेखक के साथ डेढ़ करोड़ रुपये का करार किया और एडवांस में लखटकिया चेक भी दिया. छपने के बाद उपन्यास के विषय ने अपनी तरफ ध्यान खींचा. याद नहीं आता कि हिंदी में ग्लोबल वार्मिंग की चिंता ने किसी हिंदी लेखक को इससे पहले कभी उपन्यास लिखने के लिए प्रेरित किया हो. मूल रूप से ‘रेखना मेरी जान’ बांग्लादेश की कहानी है, जो समुद्र के बढ़े स्तर के कारण डूब रहा है. उसमें भारत की ओर भागते सुमोना-फरीद की खूबसूरत प्रेम कहानी चलती है.
इस साल को बेस्टसेलर चर्चा के लिए भी याद किया जायेगा. एक प्रसिद्ध मीडिया हाउस ने इस साल निल्सन बुकस्कैन के साथ मिलकर पहली बात हिंदी में बेस्टसेलर की तिमाही सूची जारी करने की शुरुआत की. कथा, अकथा (कथेतर) और अनुवाद की विधाओं की बिक्री के आधार पर दस-दस पुस्तकों की सूची जारी की गयी. इसके दूरगामी प्रभाव क्या होंगे यह तो समय ही बतायेगा, लेकिन फिलहाल इसके कारण हिंदी किताबों की दुनिया में ताजगी का अहसास हो रहा है, नवलेखन से अधिक नये तरह के लेखन को तरजीह दी जा रही है.
इस सूची में टॉप पर आने के कारण सत्य व्यास के उपन्यास ‘दिल्ली दरबार’ की अच्छी चर्चा रही. एक जमाने में हिंदी लेखन में संघर्ष को बहुत तरजीह दी जाती है, सत्य व्यास संघर्ष के स्थान पर सपनों की बात करते हैं और नयी सदी के युवाओं के दिल की बात करते हैं. कहानी कहने से अधिक बयान यानी शैली के ऊपर उनका जोर होता है. वे कथा के नहीं कथाहीनता के लेखक हैं.
हिंदी से नये तरह के पाठकों को जोड़ने के लिए, हिंदी की अपमार्केट इमेज बनाने के लिए इस तरह की किताबों की बेहद जरूरत है और निस्संदेह सत्य व्यास का उपन्यास ‘दिल्ली दरबार’ इस कड़ी में एक जरूरी उपन्यास है.
सुरेंद्र मोहन पाठक हिंदी में जासूसी उपन्यास लेखन के पर्याय सरीखे हैं. जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती जा रही है, उनके लेखन की चर्चा बढ़ती जा रही है, उनके पाठकों का दायरा बढ़ता जा रहा है. उनके उपन्यास ‘हीरा फेरी’ को इस साल अमेजन ने साल की सबसे अधिक बिकनेवाली किताब घोषित किया है. जीत सिंह सीरीज के उनके इस उपन्यास में एक के बाद एक हो रही रहस्यमय हत्याओं और हीरे से भरे एक बैग की रहस्यपूर्ण कहानी है.
जासूसी लेखन की लुप्त होती विधा के वे आखिरी सबसे लोकप्रिय लेखक हैं. और अच्छा लगता है कि नयेपन के इस दौर में उनका पुराना फाॅर्मूला भी हिट है. उनकी पठनीयता को भी स्वीकार्यता मिल रही है.
इस साल सीता और उनके ऊपर लिखी गयी किताबों की चर्चा खूब रही. अमीश त्रिपाठी का उपन्यास ‘सीता मिथिला की योद्धा’ हिंदी अनुवाद में आया. देवदत्त पट्टनायक की किताब ‘सीता’ का अनुवाद हिंदी में आया. वहीं सीता के ऊपर एक मौलिक उपन्यास भी हिंदी में आया- मैं जनक नंदिनी. उपन्यास में राम की पत्नी से अधिक राजा जनक की बेटी के रूप में सीता की उस कहानी को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है, जो मिथिला में प्रचलित है.
इसमें मिथिला के लोकगीत भी हैं. सीता आज्ञाकारिणी पत्नी नहीं, बल्कि सवाल पूछनेवाली एक स्त्री है, जो आत्मविश्वास से भरपूर है. बहरहाल, सीता की कथा के माध्यम से मिथक कथाओं में आये बदलाव को लक्षित किया जा सकता है. अब सीता को आदर्श नारी के स्टीरियोटाइप से अलग हटकर एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में देखा जाने लगा है. इस तरह से मिथक समकालीन जीवन से जुड़ते हैं.
सिनेमा विषय के पाठकों के लिए इस साल हिंदी में खास किताबें नहीं आयीं. लेकिन इसी साल दिवंगत हुए लेखक-कवि कुंवर नारायण की किताब ‘लेखक का सिनेमा’ अपने विषय के कारण चर्चा में रही. किताब में सिनेमा पर लिखे कुंवर जी के पुराने लेखों को संकलित-संपादित किये गया.
संपादन युवा कवि गीत चतुर्वेदी ने किया है. यह किताब विश्व सिनेमा के प्रमुख आंदोलनों को समझने, दुनिया के कुछ प्रसिद्ध फिल्मकारों के फिल्मों और उनकी कला को समझने के सूत्र देती है. जिस तरह से हिंदी में सिनेमा को लेकर समस्त विमर्श समकालीनता के द्वंद्व में उलझा हुआ है, ऐसे में यह किताब एक जरूरी हस्तक्षेप की तरह है- पढ़ने, समझने और सहेज कर रखने के लिए.
इधर युवा लेखन में कस्बाई जीवन के रंग विरल होते जा रहे हैं. लेकिन, ऐसा नहीं है कि कस्बाई जीवन की कहानियां अपने जीवंत छवियों के साथ लिखे नहीं जा रहे हैं. युवा लेखक प्रवीण कुमार का पहला कथा संग्रह ‘छबीला रंगबाज का शहर’ की कहानियां अपने अलग परिदृश्य, अपनी अलग कहन शैली के कारण चर्चा में आयी. आधुनिकता के उत्तर दौर में रंग बदलते कस्बे के किस्सों को दास्तानगोई की शैली में प्रस्तुत किया गया है. किताब में तीन लंबी कहानियां हैं और इसका ढांचा मूलतः औपन्यासिक है.
इस साल आयी किताबों की चर्चा में अगर ‘पतनशील पत्नियों के नोट्स’ की चर्चा न की जाये, तो यह चर्चा अधूरी ही मानी जायेगी. लेखिका नीलिमा चौहान की यह पहली किताब हिंदी में स्त्री विमर्श के एक नये मुकाम की तरह है. चुटीले अंदाज में लेखिका ने मर्दवादी समाज के रेशे-रेशे उधेड़े हैं. बहुत पठनीय अंदाज में लिखी गयी स्त्री विमर्श कि एक जरूरी किताब की सालभर किसी न किसी बहाने चर्चा होती रही.
हिंदी में बदलाव हो रहे हैं- नये विषयों, नयी शैलियों का आगमन हो रहा है. यह स्वागतयोग्य बात है. इस समय हिंदी में युवा पाठकों की तादाद सबसे अधिक है और उनको साहित्य से जोड़ने की दिशा में जितने प्रयोग किये जा रहे हैं, भविष्य में उनके बेहतर नतीजे देखने में आयेंगे.
ऐसी उम्मीद की जा सकती है. लेकिन, एक सवाल आजकल नहीं पूछा जाता है कि क्या हिंदी के गंभीर परिसर की क्षति अंततः हिंदी की क्षति नहीं है? क्या सिर्फ बाजार के मानकों पर किसी भाषा का साहित्य टिका रह सकता है? हिंदी के पब्लिक स्फेयर में गंभीरता की अंततः विदाई हो गयी है? ये सवाल ऐसे हैं, जिनके जवाब आनेवाले सालों में स्पष्ट होंगे.
सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ज्ञानपीठ हिंदी के खाते में
साहित्य के क्षेत्र में दिये जानेवाले देश के सबसे बड़े सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए इस वर्ष हिंदी की प्रतिष्ठित रचनाकार कृष्णा सोबती को चुना गया है. इससे पहले हिंदी समेत विभिन्न भाषाओं के 52 साहित्यिकों को इस सम्मान से नवाजा जा चुका है. कृष्णा सोबती को उनके उपन्यास ‘जिंदगीनामा’ के लिए 1980 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल चुका है.
उन्हें 1996 में अकादमी के उच्चतम सम्मान साहित्य अकादमी फेलोशिप भी प्रदान किया गया था. हिंदी साहित्य में नारी-स्वर को मुखरता देने तथा स्त्री-पक्षधरता की भावनाओं और मूल्यों को स्थापित करने में सोबती की भूमिका अप्रतिम है. उनकी चर्चित कृतियों में ‘डार से बिछुड़ी’, ‘मित्रो मरजानी’, ‘यारों के यार’, ‘ऐ लड़की’, ‘दिलो दानिश’, ‘हम हशमत’, ‘समय सरगम’ आदि प्रमुख हैं. उनके योगदान की विशिष्टता के कारण ही अनेक लोगों को ऐसा लगता है कि उन्हें ज्ञानपीठ सम्मान देने में देरी हुई है.
रमेश कुंतल मेघ को साहित्य अकादमी पुरस्कार
देश की विभिन्न भाषाओं के रचनाकारों के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कारों की सालाना घोषणा का हर साल इंतजार होता है. पिछले हफ्ते अकादमी ने 24 भाषाओं के 24 साहित्यकारों को पुरस्कृत करने का ऐलान किया है.
सम्मानित कृतियों में सात उपन्यास, पांच काव्य-संग्रह, पांच कथा संग्रह, पांच आलोचना तथा एक-एक नाटक और लेखों का संग्रह हैं. इनमें हिंदी भाषा से वरिष्ठ समालोचक रमेश कुंतल मेघ का नाम शामिल है. पुरस्कार के लिए उनके ग्रंथ ‘विश्वमिथकसरित्सागर’ को चुना गया है.
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