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छठ : भारतीय परंपरा की सशक्त अभिव्यक्ति
विनोद अनुपम, कला समीक्षक फिल्मकार नितिन चंद्रा ने अपने यू-ट्यूब चैनल ‘नियो बिहार’ पर छठ गीत का एक वीडियो पिछले साल भी जारी किया था, एक इस साल भी. दोनों वीडियो की खासियत है कि इसमें लोकपर्व छठ की महिमा नहीं, बल्कि इसके प्रति बिहारियों का लगाव, सम्मान और समर्पण मुखर दिखता है. पिछले साल […]
विनोद अनुपम, कला समीक्षक
फिल्मकार नितिन चंद्रा ने अपने यू-ट्यूब चैनल ‘नियो बिहार’ पर छठ गीत का एक वीडियो पिछले साल भी जारी किया था, एक इस साल भी. दोनों वीडियो की खासियत है कि इसमें लोकपर्व छठ की महिमा नहीं, बल्कि इसके प्रति बिहारियों का लगाव, सम्मान और समर्पण मुखर दिखता है. पिछले साल के वीडियो में एक महानगरीय युवा दंपती की कहानी थी, जिसमें पति आधुनिकता की तमाम शर्तों का निर्वहन करते हुए भी मां के साथ भोजपुरी में बात करता है. वहीं अस्वस्थता के कारण छठ नहीं कर पाने की मां की चिंता पर दूसरे राज्य और संस्कृति से आयी आधुनिका पत्नी स्वयं छठ के लिए तैयार होती है.
बैकग्राउंड में शारदा सिन्हा की आवाज में एक गीत बजता है, ‘पहिले पहिल हम कइनी, छठी मइया वरत तोहर. करिहा क्षमा छठी मइया, भूल-चूक गलती हमार…’ छठ के पारंपरिक धुनों पर गूंजते इस गीत को लिखा है हृदय नारायण झा ने. नितिन चंद्रा के इस साल वीडियो में भी एक कहानी है, जिसमें बिहारी पति अपनी सिख पत्नी के गर्भवती होने के कारण ससुराल के सिख परिवार के साथ मिल कर खुद छठ करता है. इस बार अशोक शिवपुरी के लिखे गीत को स्वर दिया है भरत शर्मा व्यास और अलका याज्ञनिक ने.
यह भूमिका इसलिए कि पारंपरिक छठ गीतों की शुरुआत चाहे जब भी हुई हो, बदले हैं तो सिर्फ उनके शब्द. उनकी धुन और भावना को बदलने की कोशिश शारदा सिन्हा और भरत शर्मा व्यास जैसे लोकप्रिय लोकगायकों ने भी कभी नहीं की. छठ गीतों की यह अद्भुत विशेषता है कि इसके तमाम गीतों की धुन लगभग समान है. यह किसी सुखद आश्चर्य से कम नहीं कि 2017 में भी कोई फिल्मकार छठ पर गीत तैयार कर रहा होता है, तो धुन के लिए उसकी प्राचीन परंपरा को याद रखता है.
वास्तव में यह फिल्मकार के इस विश्वास का प्रतीक है कि पीढ़ियां चाहे कितनी भी बदल जायें, समय चाहे कितना भी बदल जाये, छठ जैसे लोक पर्व नहीं बदलते, इसकी विरासत पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तगत होती रहती है.
छठ शायद एक मात्र ऐसा उत्सव है, जिसमें आम भारतीय जीवन को अपनी संपूर्णता में अभिव्यक्ति मिलती है. रहन-सहन, खान-पान, क्राफ्ट, चित्रकला, संगीत-जीवन के जो भी रंग आप सोच सकते हों, छठ में उसकी अहम भूमिका होती है.
चूंकि बिहार में लोक संस्कृति आमतौर पर श्रुति के कारण ही संरक्षित रही, इसके डॉक्यूमेंटेशन की कभी गंभीर कोशिश नहीं की गयी. जाहिर है, छठ गीत कब से छठ पर्व का अनिवार्य हिस्सा बने, गीत कैसे तैयार हुए, कौन-कौन से गीत इसके पारंपरिक गीत हैं और कौन-कौन से अलग-अलग समय में लिखे गये, इस संबंध में स्पष्ट जानकारी एक व्यापक शोध की मांग करती है.
अभी यदि हम छठ गीतों की परंपरा पर बात करना चाहें तो सहुलियत के लिए उसे शारदा सिन्हा के पहले और शारदा सिन्हा के बाद के कालखंड में बांट सकते हैं.
शारदा सिन्हा इसलिए कि 1985 में जब छठ गीतों पर शारदा सिन्हा का पहला कैसेट आया, उसके बाद से अब तक छठ के पर्याय के रूप में कोई एक आवाज जनमानस में है तो वह है शारदा सिन्हा की आवाज. हालांकि छठ गीतों पर शारदा सिन्हा का पहला एलबम एचएमवी से 1977 में ही आ चुका था, जिसमें ‘सूप लेले घाट पर…. मोरा भइया जाला…’ जैसे गीत थे, लेकिन उस दौर में कैसेट और टेप रिकार्डर आम लोगों के बीच सहजता से उपलब्ध नहीं रहने के कारण इसे वह लोकप्रियता नहीं मिल पायी थी.
वैसे छठ गीतों के एलबम की शुरुआत विंध्यवासिनी देवी के साथ मानी जाती है. छठ के पारंपरिक लोकगीतों के संरक्षण और संवर्धन का श्रेय भी उन्हें दिया जाता है.
विंध्यवासिनी देवी आकाशवाणी से जुड़ी थीं और रेडियो के माध्यम से बिहार के लिए सुपरिचित नाम थी. उन्होंने संगीत प्रोड्यूसर के रूप में आकाशवाणी से लोकगीतों के प्रसारण की नियमित शुरुआत करवायी. यह आसान काम इसलिए नहीं था कि लोकगीतों की स्थानीय धुन और पहचान थी. रेडियो पर उसकी व्यापक स्वीकार्यता के लिए लोकगीतों के लिए एक स्थायी धुन की जरूरत उन्होंने महसूस की और अपने प्रयासों से उसे तैयार भी किया. छठ के गीतों में धुन को लेकर जो एकरूपता दशकों से दिखती आ रही है, उसका श्रेय विंध्यवासिनी जी के अथक परिश्रम को जाता है.
उस समय जब कैसेट इंडस्ट्री का विस्तार नहीं हुआ था, तब उन्होंने छठ के दिनों में आकाशवाणी से कई बार छठ गीतों का प्रसारण करवा कर उन्हें लोगों के व्रत का हिस्सा बनाने की सफल कोशिश की. बाद में जब कैसेट बाजार सुलभ हो गया, तो उसे लोकप्रिय होने के लिए एक तैयार जमीन मिली. छठ गीतों की लोकप्रियता में उनके योगदान को देखते हुए एचएमवी ने 60 के दशक में ही उनसे एलबम के लिए आग्रह किया, और सोने के खरउवां हो दीनानाथ…, रिमिझिमी बुंदवा बरसे ले.., केरवा जे फरलै घवद से, ओय पर सुगा मेडराय…. जैसे गीतों से छठ पर्व को एक नयी पहचान मिली.
इसी दौर में एक और गायिका ने छठ गीतों को अपनी आवाज दी, वह थी कुमुद अखौरी. इस दौर के गीतों में अधिकांश समूह गायन का प्रयोग दिखता था.
यह समूह गायन एक ओर संगीत की कमी को पूरा करता था, दूसरी ओर इसमें छठ की सामूहिकता को भी अभिव्यक्ति मिलती थी. इन गीतों में शब्द पक्ष प्रबल सुनाई देता था. विंध्यवासिनी देवी के छठ गीतों को एक नयी लोकप्रियता मिली 1979 में आयी फिल्म ‘छठ मैया की महिमा’ से. इस फिल्म में गीत लिखे थे भूपेन हजारिका ने, संगीत और स्वर दी थी विंध्यवासिनी देवी ने.
बाद में शारदा सिन्हा ने शब्द और संगीत के बीच एक रोचक संतुलन बनाया और उनके माध्यम से छठ गीत इस पर्व की जरूरत बन गये. उल्लेखनीय है कि शारदा सिन्हा ने छठ गीतों की धुन में कभी प्रयोग करने की कोशिश नहीं की.
आश्चर्य नहीं कि दशकों से सुने जा रहे उनके गीत आज भी उतने ही उत्साह से बजाये जाते हैं. शारदा सिन्हा ने छठ के पारंपरिक गीतों के साथ छठ के मूड को पकड़ कर कई नये गीतों को भी स्वर दिये, जिन्हें भी पारंपरिक गीतों से अलग कर देखना मुश्किल है. बाद में भरत शर्मा व्यास, अनुराधा पौडलाल ने भी शारदा सिन्हा की परंपरा को सशक्त करने की कोशिश की.
लेकिन, बीते कुछ सालों से हर साल ऐसी सीडी की बाढ़ सी आ रही है, न तो जिनके शब्दों में छठ की परंपरा ध्वनित होती है, न ही संगीत में. इससे पहले मनोज तिवारी ने पारंपरिक धुन पर भी गीत गाये तो अपने हिसाब से प्रयोग भी किेये, लेकिन निरहुआ, पवन सिंह और सबसे बढ़ कर खेसारी लाल यादव ने छठ गीतों के नाम पर पैरोडी और द्विअर्थीगाने तक से संकोच नहीं किया. धुन के नाम पर अब रश्के कमर की धुन पर भी छठ गीत सुने जा रहे हैं और डांस नंबरों पर भी.
सबसे दुखद यह है कि छठ गीतों में जिस भाव का प्रवाह होता था, इन नए गायकों ने उनके भी निर्वाह की जरूरत नहीं समझी. छठ गीत किसी भी कालखंड में लिखे गये, प्रेम, सौहार्द्र, समर्पण, परिवार, बेटी, पर्यावरण उसके अनिवार्य तत्व रहे. लेकिन, मानसिक विद्रुपता की यह पराकाष्ठा ही मानी जा सकती है अब छठ गीतों में पाकिस्तान के खिलाफ ललकार सुनाई देती है, और सुनाई देता है लगा के फेयर लवली छठ घाट जइहा. एक तरफ ‘कांचे ही बांस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाये’ सुनें और दूसरी ओर खेसारी का ‘बहंगी करे चोंय चोंय’, तो समझना मुश्किल होता है कि क्या इसे भी छठ गीत के नाम पर स्वीकार किया जाना चाहिए!
संतोष की बात है कि आज भी एक ओर कुछ युवा फिल्मकार, तो दूसरी ओर कई युवा लोकगायक-गायिका छठ गीतों की परंपरा के संवर्धन में अपने अपने स्तर पर सक्रिय हैं.
परदेस में छठ
वाशिंगटन में पोटोमेक नदी के किनारे जुटते हैं छठ व्रती
अमेरिका में छठ मनाने की परंपरा अब पुरानी हो गयी है. वाशिंगटन के पोटोमेक नदी के किनारे 2008 से ही भारतीय जुटते हैं और छठ मनाते हैं. पिछले साल यहां छह सौ से अधिक भारतीय छठ मनाने जुटे थे.
इस साल भी छठ के लिए तैयारियां शुरू हो गयी हैं और लोगों से फेसबुक पर पूछा जा रहा है कि इस आयोजन में किस-किस जगह से कितने लोग आयेंगे. दिलचस्प है कि वहां सूर्य को अर्घ देने के लिए सूप का इस्तेमाल नहीं होता. क्योंकि सूप वहां आसानी से उपलब्ध नहीं है. बदले में लकड़ी की डलिया का इस्तेमाल होता है. डलिया में प्रसाद रखकर सूर्य को अर्घ देते श्रद्धालु बड़े प्यारे लगते हैं. जरा इन तसवीरों को देखिये…
परंपरा का निर्वाह
19 पुश्तों से सुलतानगंज छठ करने आते हैं बंजारा
शुभंकर, सुलतानगंज (भागलपुर). देश के किसी भी कोने में रहें, दीपावली के पूर्व अजगैवी नगरी के कृष्णानंद स्टेडियम में हमलोग जरूर आते हैं. ये कहना है कबिलाई (बंजारा) समाज के सरदार वासुदेव मंडल का. 19 पुश्तों से स्टेडियम में ही छठ करने की अद्भुत परंपरा कबिलाई समाज के लोग निभा रहे हैं. सुचिता, पवित्रता व निष्ठा के साथ महापर्व छठ के सभी विधि-विधान करते हुए कबिलाई काफी आत्मसंतुष्ट होते हैं. अपने पूरे परिवार के साथ हजारों की संख्या में इस समुदाय के लोग वंश वृद्धि, सुख, शांति, समृद्धि व उन्नति की कामना भगवान भास्कर से करते हैं. सालों भर तामसिक भोजन करने वाले ये बंजारा छठ पर्व आते ही सभी कुछ (लहसुन, प्याज, मांस, मदिरा) छोड़ देते हैं. इनका कोई स्थायी घर नहीं होता. ये घूम- घूम कर जीवन-यापन करते हैं.
खुलता है समृद्धि का द्वार: सुलतानगंज पहुंचने के बारे में कबिलाई सरदार ने बताया कि भगवान भास्कर की आराधना अजगैवी नगरी में करने का विशेष महत्व है. यहीं से सुख-समृद्धि, आरोग्य व वंश वृद्धि का द्वार खुलता है. कबिले के सैकड़ों लोगों को पुत्र रत्न की प्राप्ति व आरोग्य का आशीर्वाद मिला. बंजारा सरदार बासुदेव मंडल बताते हैं कि कई सौ वर्षों से हमारे पूर्वज यही आकर छठ करते रहे हैं. आज हम उनकी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं.
जीवन साथी का करते हैं चुनाव: छठ पर्व के दौरान पहुंचे कबिलाई अपने बच्चों के लिए जीवन साथी का चयन करते हैं. इसके बाद धूम-धाम के साथ विवाह संपन्न होता है. कबिलाई समुदाय में महिला से अधिक छठ पर्व का महानुष्ठान का दायित्व पुरुष पर होता है.
महिलाएं कहती हैं कि पुरुष अधिक मदिरापान करते हैं. इस कारण महिला से अधिक पुरुष को ही महानुष्ठान का भार दिया जाता है. भागलपुर, बेगूसराय, बरौनी, सीतामढ़ी, दरभंगा, रोसड़ा, मुंगेर, बांका, जमुई, गोरखपुर, सिलीगुड़ी आदि कई स्थानों से बंजारा छठ करने पहुंचे हैं.
रांची को मिस करती हूं, मुंबई के अक्सा घाट चली जाती हूं
-सुप्रिया कुमारी
पिछले आठ साल से मुंबई में हूं, तो रांची में बिताये छठ पूजा की यादों में ही रहती हूं. हमारे घर पर छठ नहीं होता था, लेकिन कॉलोनी में लोगों के घरों में होता ही था. पूजा के बाद सबसे मांग-मांग कर प्रसाद खाते थे.
मुंबई में भी छठ पूरे धूम-धाम से मनाया जाता है. मैं अक्सा बीच अर्ध्य देने ज़रूर जाती हूं. मुंबई थोड़ा आधुनिक हो गया है. बिहार और झारखंड में कोई सड़क साफ करता है, तो कोई दंड प्रणाम देते हुए जाता है. यहां तो सब गाड़ियों और ट्रकों से जाते हैं.
(कई धारावाहिकों में अहम भूमिका निभाने वाली सुप्रिया रांची से हैं.)
सुबह के अर्घ का बेसब्री से इंतज़ार होता था
-छवि पांडेय
पापा खुद छठ करते हैं, इसलिए इस महापर्व से जुड़ी बहुत खास और प्यारी यादें हैं. पटना में गंगाजी हैं तो गंगा के घाट पर जाने का कई दिनों से इंतजार रहता था. मुझे सुबह का अर्घ खास तौर पर पसंद था.
अंधेरे में ही घाट पर पहुंच जाते थे. दीयों की रौशनी में एक अलग ही खूबसूरती देखने को मिलती थी और सूरज के उगते ही लाखों लोगों अर्घ देना. वह पल शब्दों में बयां नहीं हो सकता है. शूटिंग की वजह से मैं इस बार पटना छठ पर नहीं जा पाऊंगी, मुंबई में ही अपने तरह से सेलिब्रेट करूंगी. सूरज को जल देकर अच्छे से पूजा करके ही घर से बाहर निकलूंगी.
(कई धारावाहिकों में अहम भूमिका निभाने वाली छवि पटना से हैं.)
कर्ण देते थे
सूर्य को अर्घ
अंग प्रदेश की पावन धरती पर चंपा नदी का तट कई ऐतिहासिक कहानियाें को संजो कर रखा है. यहां पर (वर्तमान में नाथनगर क्षेत्र) जिस ऊंचे टिल्हे से महाभारतकाल के महायोद्धा कर्ण भगवान भास्कर को अर्घ दिया करते थे, वह ऊंचा टिल्हा चंपानगर के मसकन बरारी मोहल्ले के उत्तर में आज भी अवस्थित है. यहां आज भी छठ व्रती लोक आस्था के महापर्व पर उदीयमान और अस्ताचलगामी भगवान सूर्य को अर्घ देते हैं.
इस बार भी यहां जोर-शोर से तैयारी की जा रही है, ताकि छठ व्रती व श्रद्धालुओं को छठ पर्व के दौरान कोई दिक्कत नहीं हो. स्थानीय लोगों का मानना है कि अंग प्रदेश की धरती पर कर्ण ने ही सबसे पहले छठ पर्व की शुरुआत की थी. वे ब्रह्म मुहूर्त में गंगा स्नान करने के बाद रोजाना इसी ऊंचे टिल्हे से भगवान सूर्य को अर्घ प्रदान करते थे.
यह आश्चर्य से कम नहीं कि 2017 में भी कोई फिल्मकार छठ पर गीत तैयार कर रहा होता है, तो धुन के लिए उसकी प्राचीन परंपरा को याद रखता है. वास्तव में यह फिल्मकार के इस विश्वास का प्रतीक है कि पीढ़ियां चाहे कितनी भी बदल जायें, समय चाहे कितना भी बदल जाये, छठ जैसे लोक पर्व नहीं बदलते, इसकी विरासत पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तगत होती रहती है.
दो साल से तैयार करवा रही हूं छठ के म्यूजिक वीडियोज
-नीतू चंद्रा
बचपन में हमलोग ट्रक भरकर घाट पर जाते थे. दादा-दादी, चार चाचा-चाचियां, उनके बच्चे, दो बुआ-फूफा, उनके बच्चे, मेरे पापा-मम्मी और हम भाई-बहन कुल मिलाकर 35-40 लोग होते थे. मेरी मां और सभी चाचियां छठ का व्रत रखती थीं. यह त्यौहार हमेशा मेरे बहुत करीब है. यही वजह है कि पिछले दो सालों से इस मौके पर छठ गीत को ला रही हूं. इस बार अलका याज्ञनिक और भरत व्यास की आवाज में छठ की परंपरा को क्लासिक अंदाज में लाने की कोशिश की है. इस छठ में शायद मैं विदेश में रहूं.
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