-विश्व वन्य जीव दिवस-
।। संदीप निगम।।
दुनियाभर में वन्य जीवों के रिहायशी इलाकों में मानवीय अतिक्रमण बढ़ रहा है. वन्य जीवों की विभिन्न प्रजातियों की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अवैध तस्करी के चलते इनके अस्तित्व पर संकट का खतरा मंडरा रहा है. इन्हें बचाने के लिए व्यापक जागरूकता के मकसद से संयुक्त राष्ट्र ने पहली बार 3 मार्च को ‘विश्व वन्य जीव दिवस’ के आयोजन का फैसला लिया है. देश में वन्य जीवों की मौजूदा स्थिति समेत इस दिवस के महत्व के बारे में बताने की कोशिश की गयी है, आज के नॉलेज में..
पिछले 10 महीनों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बाघों ने 16 इनसानों को मार डाला है और 22 को जख्मी कर दिया है. उत्तराखंड के जंगलों से निकलकर आदमखोर बनी एक बाघिन का खतरा कम नहीं हुआ था कि मेरठ शहर में एक तेंदुए के घुस आने से हड़कंप मचा हुआ है. पिछले 10 वर्षो में सिर्फ झारखंड, ओड़िशा और छत्तीसगढ़ में जंगली हाथी 1000 से ज्यादा इनसानों को मार चुके हैं. इतना ही नहीं, इन राज्यों में इस अवधि के दौरान 170 से ज्यादा हाथी भी मारे जा चुके हैं.
बाघ के नरभक्षी हो जाने या फिर तेंदुओं के भटककर बस्तियों में घुस आने की यह कोई एकाध घटना नहीं है, बल्कि ऐसा लग रहा है कि वन्यजीवों और इनसानों का टकराव अब निर्णायक दौर में है. बाघ और तेंदुए कंक्रीट के जंगलों में बौखलाये भटक रहे हैं. वन विशेषज्ञों के अनुसार, मानवजनित अथवा प्राकृतिक परिस्थितियां मानव पर हमला करने को विवश करती हैं. जब जंगलों का क्षेत्रफल बहुत ज्यादा था, तब मानव और वन्यजीव दोनों अपनी-अपनी सीमाओं में सुरक्षित रहे. आबादी बढ़ते जाने से वनों का अंधाधुंध विनाश शुरू हुआ. नतीजन जंगलों का दायरा सिमटने लगा, वन्यजीव बाहर भागे और उसके बाद शुरू हुआ न खत्म होनेवाला मानव और वन्यपशुओं के बीच का संघर्ष.
घटते रिहायशी क्षेत्र
बाघों के रहने का इलाका सिकुड़ता जा रहा है और उनमें घास के मैदान कम हो रहे हैं, जिससे वो जीव कम हो रहे हैं, जो बाघों का भोजन बनते हैं. ऐसे में बाघ भोजन की खोज में इनसानी बस्तियों के करीब आ रहे हैं. सर्दियों का मौसम आते ही वन विभाग के लिए मुसीबतें बढ़ जाती हैं, क्योंकि इस मौसम में जानवरों के जंगल से बाहर निकलने का खतरा कई गुना बढ़ जाता है. जंगल से सटे खेतों में गन्ने की फसल तैयार होने पर ये खेत बाघों और तेंदुओं के प्राकृतिक आवास बन जाते हैं. नरकुल के जंगल बाघों के पसंदीदा प्राकृतिक आवास बताये जाते हैं. बाघ और तेंदुए गन्ने की फसल और नरकुल के जंगल में कोई फर्क नहीं कर पाते. खेतों में गन्ना तैयार होने पर नीलगाय, हिरन और जंगली सुअर बड़ी संख्या में गन्ने के खेतों में घुस आते हैं. इन जानवरों के पीछे-पीछे बाघ और तेंदुए भी इनका शिकार करने के लिए जंगल से निकलकर अनायास ही खेतों में आ जाते हैं.
हाल ही में असम से एक खबर आयी है कि हाथियों के उत्पात से भागे हुए ग्रामीणों के लिए प्रशासन को तीन राहत शिविर लगाने पड़े. इसकी भी वजह वही है कि हाथियों का ‘अपना इलाका’ कम हो गया है. दिल्ली और आसपास के इलाकों में भी वन्य जीवों के घुसपैठ की घटनाएं बढ़ रही हैं. गुड़गांव के बाहरी इलाकों में अवैध खनन और प्रॉपर्टी के लालच के चलते रातों-रात अरावली की पहाड़ियां साफ की जा रही हैं. अरावली की पहाड़ियां गुड़गांव के जीवन के लिए क्यों जरूरी हैं, यह बात लोगों को समझ ही नहीं आ रही. अरावली का एरिया कम होने के चलते इनसान और जानवरों के बीच टकराव भी बढ़ता रहा है. यहां गांवों में हर साल तेंदुओं के घुस आने की खबरें आती हैं.
आवाजाही के गलियारे बाधित
2011 की गणना के मुताबिक, देश में तेंदुओं की संख्या 1,150 बतायी गयी है. वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन सोसायटी ऑफ इंडिया के मुताबिक, 2010 से लेकर अब तक तेंदुए के शिकार के 600 से ज्यादा मामले सामने आये हैं. यह शिकार खाल और अन्य अंगों के लिए किया जा रहा है. द गार्जियन अखबार में डब्लूडब्लूएफ के जानकारों के हवाले से बताया गया है कि तेंदुओं के कॉरिडोर ब्लॉक कर दिये गये हैं. उनकी आवाजाही के रास्तों में निर्माण के रूप में अवरोध आ गये हैं, लिहाजा वे बाहर निकलने के लिए छटपटा रहे हैं.
हालांकि, तेंदुए दुर्लभ नहीं हैं, लेकिन उनकी तादाद भी इतनी कम है कि प्रोजेक्ट टाइगर की तरह प्रोजेक्ट लैपर्ड की जरूरत है. प्रोजेक्ट लैपर्ड समय की मांग है, क्योंकि बस्तियों में घुसपैठ की सबसे ज्यादा घटनाएं तेंदुओं से जुड़ी हैं और तेंदुए ही सबसे ज्यादा शहरों का शिकार बन रहे हैं.
अस्तित्व की लड़ाई हारते बाघ
उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जिले में एक नरभक्षी बाघ के आतंक से लोग दहशत में हैं. वन विभाग के अधिकारियों ने बाघ को पकड़ने के लिए अभियान शुरू कर दिया है. जबकि, जिम कॉर्बेट से सटे तराई इलाके में गांवों में कई अनुभवी रात-दिन जंगल की खाक छान रहे हैं. ये शिकारी एक आदमखोर बाघ की तलाश कर रहे हैं, जो अब तक दर्जनभर लोगों को मार चुका है. इस साल सर्दियों में उत्तर प्रदेश के तराई इलाके में बाघों का आतंक अचानक बढ़ गया है. बाघ जंगल और रिजर्व फॉरेस्ट के सुरक्षित इलाके से निकलकर दूर-दराज के गांवों तक मवेशियों और ग्रामीणों का शिकार करते घूम रहे हैं.
वन्य जीव विशेषज्ञ बताते हैं कि बरसात के बाद जंगल में लंबी घासों के उगने में समय लगता है. बाघ इन्हीं लंबी घासों में रहते और शिकार करते हैं. सर्दियों में जंगल से सटे खेतों में तैयार गन्ने की फसल की महक जंगली सुअरों को खींचती है और इनके पीछे-पीछे बाघ भी अनजाने में ही जंगल छोड़ गांवों में घुसे चले आते हैं. ये हालात बाघों के लिए बेहद खतरनाक हैं, क्योंकि गांवों में घुस आये बाघ खुद को बचाने के लिए और कई बार घायल होने पर आदमखोर बन जाते हैं और कई बार अंत में मारे जाते हैं. 2011 की गणना के मुताबिक, देश में करीब 1,700 बाघ हैं, लेकिन इनकी स्थिति सबसे ज्यादा खराब है. वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन सोसायटी ऑफ इंडिया के मुताबिक, 2010 से लेकर इस वर्ष अब तक 118 बाघ तस्करों ने मार डाले हैं. ये शिकार खाल और अन्य अंगों के लिए किया जाता है. इनकी तस्करी का धंधा संरक्षण और कड़े कानूनों के बावजूद फलफूल रहा है.
भारत में साल 2007 से 2009 तक 367 वर्ग किलोमीटर जंगल कम हुए हैं. वन विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक, 80 फीसदी जंगलों के गायब होने की वजह आबादी का पास आना है, जबकि 20 प्रतिशत औद्योगिकीकरण है. यहां तक कि आदिवासी बहुल जिलों में भी 679 वर्ग किलोमीटर के वनोन्मूलन की बात रिपोर्ट में कही गयी है. पूर्वी और मध्य भारत में हाथियों का घर 23,500 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैला है. यानी झारखंड से लेकर पश्चिम बंगाल, ओड़िशा और छत्तीसगढ़ तक हाथियों की आवाजाही का गलियारा फैला हुआ है. यह गलियारा टूट रहा है, जिससे आबादी में उनकी घुसपैठ पहले से ज्यादा हो गयी है. बीते 10 सालों में सिर्फ झारखंड, ओड़िशा और छत्तीसगढ़ में जंगली हाथी 1000 लोगों को मार चुके हैं. इसी अवधि में इन राज्यों में 170 से ज्यादा हाथी भी मारे जा चुके हैं. पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत की कहानी भी बहुत अलग नहीं. छत्तीसगढ़ वन विभाग की रिपोर्ट में पिछले 10 साल में करीब 30 हाथियों के मरने की बात कही गयी है, वहीं झारखंड के प्रमुख वन संरक्षक के अनुसार, यह तादाद 70 से ज्यादा है.
घुसपैठ की गंभीर समस्या
वन्य जीवों के हमले में मारे गये और घायल होनेवालों का आंकड़ा समस्या की गंभीरता को दर्शाता है. झारखंड के वन बाहुल्य इलाकों से लगी बस्तियों में रहनेवाले लोग खासतौर पर हाथियों, भेड़ियों, लकड़बग्घों जैसे वन्य जीवों से ज्यादा परेशान रहते हैं. वर्ष 2001 से 2010 तक उत्तराखंड में जंगली जानवरों के हमलों में 303 लोगों की मौत और 718 लोग घायल हुए. इसे रोकने के लिए अब जरूरी हो गया है कि वन्य जीवों के अवैध शिकार पर सख्ती से रोक लगायी जाये और चारागाहों को पुराना स्वरूप दिया जाये, ताकि वन्यजीव चारे के लिए जंगल के बाहर न आयें. इसके अलावा, वन्य प्राणियों को प्राकृतिक निवासस्थलों में इनसानों की बढ़ती घुसपैठ को रोका जाये और सबसे जरूरी यह कि सभी रिजर्व फॉरेस्ट की सीमाओं को बिजली की तारों से सुरक्षित बनाया जाये, ताकि न तो वन्य जीव आरक्षित क्षेत्र से बाहर आ सकें और न ही बाहर से शिकारी जंगल के भीतर घुसपैठ कर सकें.
भारत में वन्य जीव
हमारे देश में वन और वन्य जीवों को संविधान की समवर्ती सूची में रखा गया है. केंद्रीय मंत्रलय वन्य जीव संरक्षण संबंधी नीतियों और नियोजन के संबंध में दिशा-निर्देश देने का काम करता है तथा राज्य वन विभागों की जिम्मेदारी है कि वे राष्ट्रीय नीतियों को कार्यान्वित करें. वन्य जीव संबंधी अपराधों को रोकने के लिए वन्य जीव संरक्षण निदेशक के अंतर्गत वन्य जीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो का गठन दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई और जबलपुर पांच क्षेत्रीय कार्यालयों तथा अमृतसर, गुवाहाटी और कोचीन उप-क्षेत्रीय कार्यालयों को मिलाकर किया गया है. यह मंत्रलय विभिन्न केंद्र प्रायोजित स्कीमों के अंतर्गत वन्य जीव संरक्षण के लिए राज्य सरकारों को तकनीकी तथा वित्तीय सहायता प्रदान करता है, जिसमें राष्ट्रीय पार्को तथा अभ्यारण्यों के विकास के लिए, हाथियों से संबंधित परियोजनाओं के लिए योजना, वन्य जीव प्रभाग को सशक्त बनाने संबंधी केंद्रीय योजना तथा केंद्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण समेत राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण को सहायता अनुदान देना शामिल है. भारत में रक्षित क्षेत्र (प्रोटेक्टेड एरिया) नेटवर्क में वन राष्ट्रीय पार्क तथा 513 वन्य जीव अभ्यारण्य, 41 संरक्षण रिजव्र्स तथा चार सामुदायिक रिजव्र्स शामिल हैं. हमारे रक्षित क्षेत्रों के प्रबंधन संबंधी जटिल कार्य को देखते हुए वर्ष 2002 में राष्ट्रीय वन्य जीव कार्य योजना (2002-2016) को अपनाया गया, जिसमें वन्य जीवों के संरक्षण के लिए लोगों की भागीदारी तथा उनकी सहायता पर बल दिया गया है.
(स्रोत: आर्काइव इंडिया की वेबसाइट)
वन्य जीवों को बचाने की जरूरत
भोजन, कपड़े, औषधि आदि के लिए इनसान प्रकृति के वन्य जीवों और पौधों की समृद्ध विविधता पर आश्रित रहा है. विज्ञान और तकनीक के विकास में इसका योगदान रहा है. हमारी समृद्ध विरासत में इसका अहम स्थान कायम रहेगा. यही वजह है कि संयुक्त राष्ट्र जनरल असेंबली ने 3 मार्च को ‘कन्वेंशन ऑन इंटरनेशनल ट्रेड इन इनडेंजर्ड स्पेसिज ऑफ वाइल्ड फौना एंड फ्लोरा’ (साइट्स) के वार्षिकोत्सव को बतौर ‘विश्व वन्य जीव दिवस’ आयोजित किया जाना घोषित किया है. सतत विकास और मानव की बेहतरी के लिए प्रतिबद्धता के बावजूद, वन्य जीवों का अस्तित्व आज संकट में है. दुनिया की सबसे बेहतरीन प्रजातियों में शुमार कुछ खास पौधों समेत ऐसे पौधे, जिन्हें जानते तो कम ही लोग हैं, लेकिन पारिस्थितिक तंत्र के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण हैं और ऐसे जीवों के विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है. इसकी सबसे बड़ी वजह इनके लिए निर्धारित रिहाइशी इलाकों का कम होना है. और दूसरी बड़ी वजह इनकी अवैध तस्करी में बढ़ोतरी होना है. नतीजतन वन्य जीव के प्रत हो रहे अपराध से पर्यावरण, आर्थिक और सामाजिक मसले प्रभावित हो रहे हैं. खासकर ऐसे देशों में जहां संगठित अपराध, विद्रोह और आतंकवाद एकदूसरे से जुड़े हों, वहां इनकी अवैध तस्करी शांति और सुरक्षा के लिए खतरा पैदा करती है. हालांकि, वन्य जीवों के संरक्षण की बड़ी चुनौतियां हमारे सामने हैं, लेकिन समेकित प्रयासों के जरिए हम इस चुनौती को कम कर सकते हैं. इस पहले विश्व वन्य जीव दिवस के मौके पर मैं समाज के हर तबके से यह गुजारिश करना चाहता हूं कि वे वन्य जीवों की अवैध तस्करी पर शिकंजा कसें और इनके अवैध कारोबार को रोकने की प्रतिबद्धता जतायें. आइये हम सब मिल कर एक अच्छे भविष्य के लिए काम करें, जहां मानव के साथ वन्य जीव सौहार्दपूर्ण तरीके से फले-फूलें. आइये, हम जंगल को बचाने से लिए सार्थक प्रयास करें.
(संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून का संदेश)
संयुक्त राष्ट्र विश्व वन्य जीव दिवस
दुनियाभर में विविध किस्म के जंगली जीव और वनस्पतियां मौजूद हैं. इन सभी के बारे में जागरुकता फैलाने और इनके माध्यम से इनसानों को होनेवाले फायदों के बारे में अवगत कराने का बेहतरीन मौका है विश्व वन्य जीव दिवस. साथ ही, यह दिवस हमें इस बात की याद दिलाता है कि आज हमें वन्य जीवों के खिलाफ हो रहे अपराध से समय रहते निबटना होगा, क्योंकि आनेवाले समय में इसके व्यापक आर्थिक, पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभाव देखे जा सकते हैं. दरअसल, वन्य जीव इनसानों के लिए बेहद मूल्यवान है, क्योंकि पारिस्थितिकी, जेनेटिक, सामाजिक, आर्थिक, वैज्ञानिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक दृष्टिकोणों से इसका सतत विकास में बेहद योगदान है. इन्हीं वजहों से संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य देशों समेत अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठन, सिविल सोसायटी, गैर-सरकारी संगठन और व्यक्तिगत तौर पर दुनियाभर में इस दिवस का आयोजन करते हैं. इस संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र संगठनों ने ‘कन्वेंशन ऑन इंटरनेशनल ट्रेड इन इनडेंजर्ड स्पेसीज ऑफ वाइल्ड फौना एंड फ्लोरा’ (सीआइटीइएस यानी साइट्स) का गठन किया है, ताकि इस विश्व वन्य जीव दिवस को दुनियाभर में कार्यान्वित कराये जाने के संदर्भ में तमाम तरह की सुविधाएं मुहैया करायी जा सकें.
साइट्स: वन्य जीवों को बचाने की संधि
द कन्वेंशन ऑन इंटरनेशनल ट्रेड इन इनडेंजर्ड स्पेसीज ऑफ वाइल्ड फौना एंड फ्लोरा (साइट्स) विभिन्न देशों की सरकारों के बीच एक अंतरराष्ट्रीय समझौता है. इसका मकसद यह तय करना है कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार में वन्य जीवों और वनस्पतियों के अस्तित्व को लेकर कोई चुनौती सामने न आये. मौजूदा समय में पूरी दुनिया में कई प्रमुख प्रजातियों जैसे- शेर और हाथी का अस्तित्व संकट में है. हालांकि, वर्ष 1960 में जब ‘साइट्स’ की अवधारणा पहली बार सामने आयी, तो भले ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसके कार्यान्वयन को एक नयी चीज के तौर पर देखा गया, लेकिन इसकी जरूरत बिलकुल स्पष्ट थी. साइट्स के आंकड़ों के मुताबिक, दुनियाभर में वन्य जीवों और वनस्पतियों का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सालाना अरबों डॉलर का कारोबार होता है. इसके तहत अनेक किस्म की वनस्पतियों समेत जीवित वन्य जीवों, वन्य जीवों से बनाये जानेवाले विविध प्रकार के उत्पादों, चमड़े के देशी वस्तुओं, लकड़ी से बने संगीत वाद्य-यंत्रों समेत औषधियों का व्यापक कारोबार होता है. कुछ वन्य जीवों का उत्पीड़न बढ़ने और पौधों की प्रजातियों का व्यापक दोहन किये जाने से जहां एक ओर इनकी रिहाइश सिकुड़ रही है, वहीं पौधों की प्रजातियां कम होती जा रही हैं. दरअसल, वन्य जीवों और वनस्पतियों के लिए जैव-विविधता संरक्षण को कार्यान्वित करते हुए मौजूदा दौर में ‘साइट्स’ को सर्वाधिक सशक्त माध्यम माना जाता है. बतौर खाद्य पदार्थ, आवासीय क्षेत्र, हेल्थकेयर, इकोटूरिज्म, कॉस्मेटिक या फैशन के लिए हजारों जैव प्रजातियों का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कारोबार किया जाता है. मालूम हो कि ज्यादातर लोग इन सामग्रियों का इस्तेमाल भी करते हैं. साइट्स दुनियाभर में 35,000 से ज्यादा पौधों और पशुओं की प्रजातियों समेत उनसे बनाये जानेवाले विभिन्न तरह के उत्पादों के कारोबार को रेग्युलेट करता है. इस संदर्भ में साइट्स अपनी ओर से दिशा-निर्देश भी जारी करता है. दुनियाभर में सूचीबद्ध प्रजातियों का अस्तित्व कायम रखते हुए अंतरराष्ट्रीय कारोबार के लिए यह एक व्यवस्था कायम करता है, ताकि इन प्रजातियों का अस्तित्व संकट में न पड़ सके. 3 मार्च, 1973 को वॉशिंगटन डीसी में ‘साइट्स’ का अस्तित्व वजूद में आया था.
कैसे चुना गया इस खास दिवस को!
संयुक्त राष्ट्र की ओर से दुनियाभर में इस मसले के प्रति लोगों में जागरुकता कायम करने के मकसद से इस दिवस के आयोजन की जरूरत जतायी गयी. इसी संदर्भ में 20 दिसंबर, 2013 को यूनाइटेड नेशंस जनरल असेंबली के 68वें सत्र में यह फैसला लिया गया कि प्रत्येक वर्ष 3 मार्च को वन्य जीवों और वनस्पतियों के बारे में लोगों को सजग करते हुए ‘विश्व वन्य जीव दिवस’ का आयोजन किया जाये. इस खास तिथि को चुने जाने की वजह भी यह रही कि वर्ष 1973 में संयुक्त राष्ट्र ने ‘कन्वेंशन ऑन इंटरनेशनल ट्रेड इन इनडेंजर्ड स्पेसिज ऑफ वाइल्ड फौना एंड फ्लोरा’ (साइट्स) को अपनाया था. वन्य प्रजातियों को अंतरराष्ट्रीय व्यापार से जुड़े मामलों में किसी प्रकार की चुनौतियों का सामना नहीं करना पड़े, इस खास मकसद से इस कन्वेंशन की भूमिका को महत्वपूर्ण माना जाता है. इससे पूर्व वर्ष 2013 में 3 से 14 मार्च के दौरान बैंकॉक में इसी संदर्भ में एक मीटिंग (कॉफ्रेंस ऑफ द पार्टीज टू साइट्स) बुलायी गयी थी, जिसमें 3 मार्च को ही ‘वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ डे’ आयोजित किया जाना तय किया गया. इस तरह दुनियाभर में इस वर्ष पहली बार आज यह दिवस आयोजित किया जा रहा है. (स्रोत: यूनाइटेड नेशंस वेबसाइट)

