चीन और भारत एक साथ आजाद हुए थे, मगर आज चीन विकास की दौड़ में हमसे काफी आगे निकल गया है. शहर ही नहीं चीन ने अपने गांवों का भी बेहतर तरीके से विकास किया है. आइये जानते हैं क्या है चीन की इस सफलता का सीक्रेट..
ग्रामीण विकास का ड्रेगन मंत्र
कई दशक पहले बीसवीं सदी के दो महान नेताओं ने अपने नये-नये आजाद मुल्कों के लिए अपने विजन का खुलासा किया था. ये मुल्क कभी दुनिया की आर्थिक महाशक्ति हुआ करते थे. जवाहरलाल नेहरू ने यह भारत के लिए किया और माओत्से-तुंग ने चीन के लिए. उन दोनों की नीतियां बाजार विरोधी थीं जिस वजह से दोनों मुल्कों ने आर्थिक उपलब्धियों के शुरुआती मौके गंवा दिया. जहां जापान, दक्षिण कोरिया और मलेशिया जैसे देश काफी आगे बढ़ गये ये दो बड़े मुल्क अपनी जगह पर ठहरे रह गये. मगर 1978 में चीन ने बाजार समर्थक नीतियों को अपना लिया और भारत ने उसका अनुशरण करते हुए 1991 में इसे अपनाया. आज जीडीपी के संदर्भ में चीन दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और दुनिया का सबसे बड़ा बाजार भी. भारत आज भी काफी पीछे है. पारंपरिक तरीके से सोचने पर यही समझ आता है कि चीन की इस सफलता के पीछे अधोसंरचना में विनिवेश और अनवरत शहरीकरण का हाथ नजर आता है. वहीं वैश्विक विनिवेश और निर्माण को आगे बढ़ाने के संदर्भ में भारत के प्रयास आधे-अधूरे नजर आते हैं.
शुतनु गुरु
निर्माण उद्योग चीन की हकीकत है, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता. यह भी सही है कि चीन में शहरीकरण की गति भारत के मुकाबले अत्यधिक तीव्र है. इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि चीन में वाहनों की बिक्री 1 करोड़ इकाई प्रति वर्ष की सीमा को पार कर गयी है जबकि भारत में 30 लाख इकाई प्रति वर्ष की सीमा को पार करने के लिए हम जद्दोजहद कर रहे हैं. संभवत: यह इस बात को भी जाहिर कर रहा है कि निरंकुश सत्तातंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता न होने के बावजूद चीन में 60 करोड़ इंटरनेट उपभोक्ता हैं जबकि साल 2013 के अंत तक भारत में इनकी संख्या महज 12 करोड़ थी. इससे यह भी जाहिर होता है कि क्यों चीन में हर साल 60 करोड़ टन स्टील का उत्पादन होता है जबकि भारत में सिर्फ 10 करोड़ टन. यह भी गौरतलब है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू और माओत्से तुंग के वक्त भारत की प्रति व्यक्ति आय चीन से अधिक थी और आज चीन की प्रति व्यक्ति आय हमसे तीन गुनी हो गयी है और यह बदलाव पिछले 30 सालों में काफी तेज हो गया है.
यह भी कहा जा सकता है कि चीन यह सब करने में इसलिए कामयाब रहा क्योंकि चीन की राजनीतिक व्यवस्था इसके लिए उपयुक्त थी. भारत में लोकतंत्र का मतलब फैसले में विलंब होता है जबकि चीन बेधड़क अपनी नीतियां लागू करा सकता है, बगैर विपक्ष की परवाह किये. प्राइसवाटरहाउसकीपर्स (चीन) के सीनियर कंसल्टेंट केनेथ जे देवोस्किन कहते हैं कि वहां जैसे ही एक बार आर्थिक वृद्धि पर फोकस निर्धारित हो गया, कुछ बेहतर नीतिगत फैसले फटाफट हो जाते हैं और उन्हें तत्परता के साथ लागू कर दिया जाता है. 25 साल पहले डेंग जियाओपिंग के वक्त से ही जो दिशा तय हो गयी उसे बदलने की कोशिश नहीं की गयी. देवोस्किन आगे कहते हैं कि कम्युनिस्ट या सोशलिस्ट देश के टैग के बावजूद वैश्विक निवेशकों के सामने खुद को पेश करने में चीन का कौशल हमेशा जबरदस्त रहा है.
दुनिया के किसी कोने में रहने वाला व्यापारी और निवेशक समझता है कि 130 करोड़ का मतलब होता है- चीन एक बड़ा बाजार है. कितने लोग भारत की आबादी जानते हैं? चीन के लोगों ने बहुत जल्द माओसूट उतार दिया और कोट और टाई पहन लिये, वाणिज्य की बातें करने लगे, हजारों डेलिगेशन का आयोजन करने लगे, अंतहीन कांफ्रेंसों और प्रदर्शनियों की मेजबानी करने लगे और दुनिया को जता दिया कि चीन व्यापार समर्थक और स्थिर देश है और सुधार व खुले व्यापार का समर्थक है. देवोस्किन और दूसरे विशेषज्ञ उस गति और प्रभावोत्पादकता की ओर इशारा करते हैं जिससे चीन महत्वपूर्ण निर्माण परियोजनाएं बनाता है और उसे लागू करता है. जब डैम निर्माण को लेकर भारत विस्थापन के खिलाफ प्रदर्शनों और दूसरे किस्म के विरोधों से जूझता रहा तब चीन ने बड़े बांधों से संबंधित कई परियोजनाओं को लागू करा दिया. जहां आजादी के 66 साल बाद भी भारत कश्मीर को रेल परियोजनाओं से जोड़ने के लिए जूझ रहा है, चीन ने महज कुछ सालों में तिब्बत जैसे विवादित इलाकों तक रेल लाइनें बिछा दीं.
इन तर्को के पीछे बहुत सामान्य और अपील करने वाली बातें हैं. इंफ्रास्ट्रक्चर के मसले पर निरंतर निवेश की वजह से उन्होंने विनिर्माण और शहरीकरण में सफलता की ऊंची दर हासिल की. इससे चीन में ग्रामीण इलाके से करोड़ों गरीब उपभोक्ता निर्माण उद्योग में काम करने के लिए शहरों की ओर आये. इससे चीन में ग्रामीण और शहरी स्तर पर उपभोक्ताओं का बड़ा जाल तैयार हो गया और चीन दुनिया सबसे बड़ा उपभोक्ता बाजार बन गया. इसके बदले भारत ग्रामीण इलाकों से लोगों को शहर तक लाने में असफल रहा. देश की 60 फीसदी से अधिक आबादी आज भी कृषि पर निर्भर है. और यही वजह है कि भारत का शहरी और ग्रामीण उपभोक्ता बाजार चीन के मुकाबले कम आकर्षक है.
निर्माण उद्योग में चीन की सफलता और भारत की अपेक्षाकृत विफलता का जिक्र करते हुए विशेषज्ञ अक्सर एक महत्वपूर्ण बात भूल जाते हैं. ऐसा नहीं है कि चीन के नीति नियंता औद्योगिकीकरण के फेर में गांव और कृषि के मसले को भूल गये हैं. जबकि हकीकत यह है कि चीन के नीति नियंताओं ने ग्रामीण विकास के मसले पर भी भारत के नीति नियंताओं से आगे रहे हैं. यही वजह है कि चीन के ग्रामीण उपभोक्ताओं के पास भारत के ग्रामीण उपभोक्ताओं के मुकाबले खर्च करने के लिए अधिक पैसा है. यह कैसे हुआ यह जानने के लिए सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि मानव विकास संकेतकों के मसले पर भी चीन भारत से आगे है. सामान्य ज्ञान से समझा जा सकता है कि अच्छी पढ़ाई करने वाला समाज जिसके पास बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं हैं वह बाजार के लिए बेहतर उपभोक्ता साबित होता है और निश्चित तौर पर यह चीन में हुआ है.
वर्ल्ड बैंक के वेबसाइट पर एक ब्लॉग में सेबस्टीन जेम्स ने शिक्षा और स्वास्थ के क्षेत्र में किये गये निवेश का महत्व बताया है, और इस मसले में चीन निश्चित तौर पर भारत से आगे है. प्रो. सेन तर्क देते हैं कि चीन की सफलता के पीछे वहां की सरकार की प्रकृति काम नहीं कर रही है बल्कि शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में निवेश ने चीन के विकास में जान फूंक दी है.
उनका कहना है कि भारत ने चुंकि इन क्षेत्रों में निवेश नहीं किया है इसलिए यहां की मानवीय पूंजी की अक्षमता ने यहां के विकास में नकारात्मक योगदान दिया है. प्रो. सेन कहते हैं कि देश पहले आर्थिक रूप से विकसित होते हैं और बाद में वे उन पैसों का निवेश शिक्षा में करते हैं जबकि इसका उल्टा सही होना चाहिये. अपने दावे के पक्ष में बताते हुए वे जापान का उदाहरण देते हैं और इसकी वजह बीसवीं सदी के दूसरे दशक में शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में जापान के निवेश को करार देते हैं. हाल के सालों में कोरिया और दक्षिण-पूर्वी एशियाई देश ने भी शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में निवेश कर आर्थिक विकास की दर हासिल की है. खेती में तकनीक को शामिल करने के मामले में भी चीन भारत से आगे रहा है.
इसकी वजह से चीन में खेती का जबरदस्त विकास हुआ है. भारत में धान की औसत पैदावार 2.3 टन प्रति हेक्टेयर है जबकि वैश्विक उत्पादन की दर 4.374 टन प्रति हेक्टेयर है और चीन में औसतन 6.5 टन धान प्रति हेक्टेयर उगाया जाता है. इस कतार में आस्ट्रेलिया 10.1 टन, अमेरिका 7.5 टन और रूस 5.2 टन की दर से भारत से काफी आगे है. हालांकि गेहूं के मामले में भारत ने अच्छा काम किया है और वे वैश्विक औसत के करीब पहुंच गये हैं. यहां औसत उपज 2.9 टन प्रति हेक्टेयर है और वैश्विक उपज 3 टन प्रति हेक्टेयर है. हालांकि यह फ्रांस(7 टन), अमेरिका (3.11 टन) और चीन (4.8 टन) से काफी पीछे है. इसके नतीजों को अर्थशास्त्र की पहली कक्षा का छात्र भी समझ सकता है. मतलब यह कि अगर एक भारतीय और एक चीनी किसान बराबर जमीन पर धान की या गेहूं की खेती करे तो दोनों की आय में काफी अंतर होगा. ऐसे में चीन के गांवों के विकास की कथा खुद-बखुद जाहिर हो जाती है. जब तक भारत में खेती के लिए बेहतर तकनीक का इस्तेमाल नहीं होगा पैदावार बढ़ने और किसानों के खुशहाल होने की कोई गुंजाइश नजर नहीं आती.
ख्यातिप्राप्त पत्रकार स्वामिनाथन अय्यर टाइम्स ऑफ इंडिया के अपने कॉलम में लिखते हैं कि जब नरेंद्र मोदी ने 2007 में गुजरात विधानसभा का चुनाव जीता तो मीडिया का फोकस हिंदू-मुसलिम मसले पर था.
एक्सपर्ट कमेंट
चीन की सरकार ने शुरुआत से ही ग्रामीण विकास पर अपना ध्यान केंद्रित किया है. जहां चीन ने खेती के अलावा सूकर पालन, मुर्गी पालन आदि पर भी जोर दिया है, भारत में सारा जोर खेती पर ही है. यह ठीक है कि भारत में बड़े पैमाने पर शहरीकरण हुआ है, मगर पर्यावरण को नुकसान और सामाजिक विघटन इसके दुष्परिणाम रहे हैं, इस मामले में भारत की स्थिति ही बेहतर कही जायेगी. हालांकि चीन में सड़क और रेल यातायात की सुविधा काफी बेहतर है, जिसका लाभ शहरी और ग्रामीण दोनों तरह की अर्थव्यवस्था को मिला है. भारत और चीन की ग्रामीण आबादी में ज्यादा फर्क नहीं है, मगर चीन के लोग बड़ी तेजी से अपने गांव छोड़ रहे हैं. गांवों में उनके माता-पिता अकेले रह जाते हैं और बदतर जीवन जीते हैं. इस लिहाज से देखें तो भारत में बुजुर्गो की स्थिति अभी भी बेहतर है. चीन के लोग ज्यादा मेहनती और राष्ट्रभक्त होते हैं, इस मामले में भारत के लोग काफी पीछे हैं. भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को विकसित करने के लिए हमें अपना ध्यान खेती के अलावा दूसरे ग्रामोद्योगों पर भी केंद्रित करना होगा.
डॉ. रूप नारायण दास
(लोकसभा सचिवालय की ओर से चीन में इंस्टीच्यूट ऑफ डिफेंस स्टडीज में सीनियर फेलो.)