रांची से तकरीबन 40 किमी दूर कुच्चू पंचायत के डिमरा गांव के सोहराय बेदिया इस बार 10 एकड़ जमीन पर सेम की खेती कर रहे हैं. उनके खेतों में सेम की लताएं फलियों से भरी हैं. यह अपने आप में अजीब नजारा है कि जब उनके आसपास के तमाम खेत परती पड़े हैं, पानी के अभाव में कोई किसान खेती करने के लिए तैयार नहीं है. उनके खेत लहलहा रहे हैं.
वे इसका श्रेय जैविक कृषि पद्धति को अपनाने को देते हैं. हालांकि उन्होंने महज दो साल पहले रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों को अलविदा कहा है, अभी उनके खेत पूरी तरह रासायनिक उर्वरकों के प्रभाव से मुक्त नहीं हुए हैं. मगर इसका लाभ उन्हें यह मिल रहा है कि पानी नहीं होने के बावजूद उनके खेतों की मिट्टी में कठोरता नहीं है. यह भुरभुरी है. लिहाजा कम पानी में भी वे दस एकड़ जमीन पर खेती करने में सफल रहे हैं.
ऐसी ही कहानी पड़ोस के गांव ङिारकी के कौलेश्वर बेदिया की है. वे भी जैविक कृषि के लिए कमर कस कर तैयार बैठे हैं. अभी कुछ ही दिनों पहले उन्होंने जैविक विधि से उगायी गयी धान की फसल को काट कर अनाज को घर पहुंचाया है. वे भी पिछले दो साल से जैविक विधि से धान की खेती कर रहे हैं. अब उनका इरादा सब्जी उगाने का भी है. उनके गांव के कई और किसान अब उनके साथ जुड़ रहे हैं और जैविक विधि से खेती की राह को अपना रहे हैं.
किसानों में इस तरह के बदलाव का जिक्र करते हुए कौलेश्वर बेदिया कहते हैं कि किसान अब समझने लगे हैं कि अगर खेतों की उर्वरता को बचाना है तो रासायनिक खादों से तौबा करना होगा. अब तक हमारे इलाके के लोग खरीफ में धान की फसल उगाकर निश्चित हो जाते रहे हैं. मगर अब किसान साल में दो या तीन फसल लेना चाहते हैं और इसके लिए जैविक खेती की राह सबसे मुफीद है. इन किसानों को परिवेश सोसाइटी की ओर से तकनीकी मदद मिल रही है. सोसाइटी के सदस्य इन्हें जैविक खाद और कीटनाशक बनाना सिखा रहे हैं और बीज उपलब्ध करा रहे हैं. एक तरह से यह संस्था पग-पग पर किसानों की मदद करने के लिए हाजिर रहती है. किसानों को इनकी मदद का भरपूर लाभ मिलता है.
परिवेश सोसाइटी के कृषि विशेषज्ञ संजीव बताते हैं कि हमारा लक्ष्य सिर्फ किसानों को जैविक खेती से जोड़ना भर नहीं है, बल्कि किसानों को जैविक खेती का असल लाभ दिलाना है. दुनिया भर में जैविक उत्पादों को बड़ी मांग है. एक बार तय हो जाये कि वे जो उत्पाद खरीद रहे हैं वह जैविक खाद से उगाया गया है तो वे उसकी दोगुनी से अधिक कीमत देने के लिए तैयार हैं. हम चाहते हैं कि किसानों को उनकी मेहनत की अच्छी कीमत मिले. मगर बाजार में जैविक उत्पाद तभी विश्वसनीय माना जाता है जब उस पर जैविक उत्पाद का प्रमाणपत्र लगा हो. कई कंपनियां यह प्रमाणपत्र जारी करती हैं. अगले साल से हम इस इलाके के किसानों को वह प्रमाणपत्र दिलाने की कोशिश कर रहे हैं ताकि इनके उत्पादों को बेहतर कीमत मिले. वे कहते हैं कि तीन साल तक लगातार जैविक खेती करने के बाद ही यह प्रमाणपत्र मिलता है. इसी वजह से विलंब हो रहा है. अगले साल से सभी किसानों को जैविक उत्पाद का प्रमाणपत्र मिल जायेगा.
किसानों को भी उम्मीद है कि एक बार जैविक फसल का प्रमाणपत्र मिल जाये तो उनकी फसलों को अच्छी कीमत मिल सकती है. तब सोहराय बेदिया को उनकी सेम की फसल के लिए 30 रुपये प्रति किलो की दर से दाम मिल सकता है. अभी वे अपनी फसल 10 रुपये किलो की दर से ही बेच देते हैं.
बदरी गांव के कृष्ण कुम्हार के खेत भी लहलहा रहे हैं. वे पिछले पंद्रह सालों से जैविक विधि से खेती कर रहे हैं और अपने इलाके के जैविक खेती करने वाले सबसे पुराने किसानों में से एक हैं. मगर प्रमाणपत्र के नहीं होने से उनकी फसल को भी समुचित कीमत नहीं मिल पाती. उन्होंने लगभग छह एकड़ जमीन पर इस बार मटर और सरसों लगाया है. मगर अपनी मटर को भी वे 10 रुपये प्रति किलो की दर से ही बेच पाते हैं. उनकी मटर को चखने के बाद जैविक और रासायनिक फसल का फर्क समझ में आता है. उनकी पूरी तरह विकसित मटर की फलियों में भी वह मिठास है जो रासायनिक खेती के जरिये उगाये गये मटर के अविकसित दानों में नहीं मिलता. हालांकि पिछले दो साल से वे परिवेश सोसाइटी से जुड़े हैं और उन्हें उम्मीद है कि अगले साल उन्हें उनकी फसल की बेहतर कीमत मिल सकेगी. वैसे वे धनिया और अदरख जैसे मसालों की भी बड़े पैमाने पर खेती करते हैं और कोलकाता के एक व्यवसायी उनकी पूरी फसल लगभग दोगुनी कीमत देकर ले जाते हैं. ऐसा इस वजह से होता है क्योंकि वे व्यवसायी जानते हैं कि वे रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल नहीं करते. मगर सब्जियां चूंकि स्थानीय बाजार में बेचनी होती है तो उन्हें इसकी अच्छी कीमत नहीं मिलती. वे कहते हैं कि गांव-देहात के हाट में कोई जैविक रासायनिक का फर्क नहीं करता, सारी सब्जियां एक ही कीमत में बिकती हैं.
परिवेश सोसाइटी-एक परिचय
जैविक कृषि को बढ़ावा देने के लिए कृत संकल्पित परिवेश सोसाइटी झारखंड के सौ से अधिक गांवों में काम करती है. इनमें रांची के अनगड़ा प्रखंड, पूर्वी सिंहभूम के मुसाबनी, घाटशिला और चाकुलिया प्रखंड, गुमला के सिसई प्रखंड और रामगढ़ के गोला प्रखंड के गांव हैं. इन गांवों के छह हजार हेक्टेयर से अधिक जमीन पर किसान परिवेश सोसाइटी की मदद से जैविक कृषि को अपना चुके हैं. इनमें से किसान मुख्यत: धान और सब्जियों की खेती करते हैं. कई इलाकों में फलों की खेती भी जैविक विधि से की जा रही है. धान की खेती करने वाले अधिकतर किसान श्रीविधि को अपना चुके हैं.