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यह राजनीति नहीं, मजाक है

।। अनुज कुमार सिन्हा।।राज्यसभा चुनाव को लेकर 24 घंटे के अंदर झारखंड मुक्ति मोरचा ने जिस तरीके से अपना रंग बदला, हथियार डाला, उसमें सत्ता प्रेम, सत्ता की मजबूरी साफ-साफ दिखती है. सोमवार को शिबू सोरेन पर दबाव था कि वह राज्यसभा का चुनाव लड़ें. लेकिन उन्होंने यह कहते हुए इनकार किया कि वे लोकसभा […]

।। अनुज कुमार सिन्हा।।

राज्यसभा चुनाव को लेकर 24 घंटे के अंदर झारखंड मुक्ति मोरचा ने जिस तरीके से अपना रंग बदला, हथियार डाला, उसमें सत्ता प्रेम, सत्ता की मजबूरी साफ-साफ दिखती है. सोमवार को शिबू सोरेन पर दबाव था कि वह राज्यसभा का चुनाव लड़ें. लेकिन उन्होंने यह कहते हुए इनकार किया कि वे लोकसभा चुनाव लड़ेंगे. टिकट देंगे तो सुधीर (महतो) की पत्नी सविता महतो को. सुधीर के परिवार ने झारखंड के लिए काफी त्याग किया है. शिबू सोरेन की इस घोषणा से लगा कि झारखंड मुक्ति मोरचा पुराने तेवर में आ गया है. झारखंड आंदोलन के दौर का तेवर, अपने कार्यकर्ताओं का सम्मान. सिर्फ एक घोषणा से यह धारणा बनी थी कि झामुमो पर पैसा लेकर या किसी दबाव में टिकट बांटने या सहयोगी दलों को समर्थन देने का जो आरोप लगता है, अब ऐसा नहीं है. रात भर में सारा खेल बदल गया.

इस बात को मत भूलिए कि सुधीर महतो की मौत को सिर्फ छह दिन हुए हैं. उनका अभी श्राद्ध भी नहीं हुआ है. सविता पति की मौत के गम में डूबी है. अचानक उन्हें रांची बुलाया गया. वह घर से निकलना नहीं चाहती थी. पार्टी के नेताओं का दबाव था. आदेश था. बेचारी सविता पूरी तैयारी के साथ नामांकन करने रांची आयी. यहां पता चला कि टिकट देने का फैसला बदल दिया गया है. झामुमो ने राजद प्रत्याशी प्रेमचंद गुप्ता का समर्थन किया. सविता बगैर नामांकन किये जमशेदपुर लौट गयी. इस पूरी घटना को भद्दा मजाक कहते हैं.

सत्ता के लोभ में कोई दल, नेता इस हद तक अगर जाने लगे, तो पार्टी का बंटाधार तय है. पार्टी कार्यकर्ताओं से चलती है. सविता महतो ने टिकट नहीं मांगा था. पार्टी के कुछ नेताओं के आग्रह पर टिकट देने का फैसला किया गया था. झामुमो नेता अब लाख आश्वासन दें कि केडी सिंह की खाली सीट पर तीन-चार माह बाद सविता को ही टिकट देंगे, सविता महतो की पीड़ा कम नहीं हो सकती. झामुमो स्थानीय/झारखंड की राजनीति करता रहा है. प्रेमचंद गुप्ता का झारखंड से कोई संबंध नहीं रहा है. इसलिए जब सविता का टिकट काटा गया, तो सवाल उठा. विद्रोह जैसा माहौल बना. आलोचना हुई. हालांकि दूसरे प्रत्याशी नथवाणी भी झारखंड के नहीं हैं, पर उन्होंने छह साल तक झारखंड में काम कर दिखाया. यह बात अलग है कि इस बार के चुनाव में पिछली बार जैसा पैसा के लेन-देन के कारण छीछालेदर नहीं हुआ. दो सीट, दो प्रत्याशी. चुनाव की आवश्यकता ही नहीं. यही एकमात्र उपलब्धि है.

पूरे मामले में फंसा तो झामुमो. सोमवार को टिकट देने की घोषणा न करते, तो उसके लिए ज्यादा बेहतर होता. अब चेहरा छुपाने के लिए झामुमो जो भी तर्क दे, ठीकरा किसी पर भी फोड़े, सच यह है कि यह उसका अपना किया कराया है. ठीक है झारखंड में हेमंत सोरेन की सरकार कांग्रेस और राजद के बल पर चल रही है, और राजद ने समर्थन वापसी की धमकी दी थी. लालू प्रसाद धाकड़ और दबंग नेता हैं. हेमंत उनकी धमकी में आ गये. पर गुरुजी तो राजनीति के पुराने खिलाड़ी हैं. ऐसी धमकी तो कितना देख चुके हैं, सुन चुके हैं.

वे क्यों हार मान गये? उन्हें क्या इसका आभास नहीं था कि टिकट देने और वापस लेने के निर्णय से न सिर्फ सविता महतो को पीड़ा होगी, बल्कि झामुमो कार्यकर्ताओं का मनोबल भी गिरेगा. हो सकता है कि गुरुजी पर दबाव हो और मजबूरी में उन्हें यह निर्णय लेना पड़ा हो, लेकिन इसका खमियाजा तो पार्टी को भुगतना पड़ेगा. तीन विधायकों ने गुरुजी को इस्तीफा भेजा है. अगर यह विरोध बढ़ता गया, तो झामुमो को इसकी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ सकती है. अगर सविता महतो को टिकट देने की घोषणा नहीं की जाती, तो झामुमो को कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह किसे समर्थन दे रहा है. घोषणा कर बैकफुट पर आना झामुमो के लिए आत्महत्या जैसा है.

दो साल पहले की बात है, जब शिबू सोरेन ने संजीव कुमार को राज्यसभा में भेजा था. झारखंड आंदोलन के दौरान 1972-73 में शिबू सोरेन ने मनियाडीह (टुंडी) में संजीव के घर को ही सबसे पहले तबाह किया था. बाद में शिबू सोरेन ने तय किया कि अगर उन्होंने संजीव या उसके परिवार की जिंदगी तबाह की, तो उनकी जिंदगी वही बनायेंगे भी. बनाया भी. पढ़ाया-लिखाया. वकील बनाया. फिर राज्यसभा का टिकट दिया. उस निर्णय के बाद काफी नाम हुआ था शिबू सोरेन का. सोमवार को जब सुधीर महतो की पत्नी को टिकट देने की घोषणा हुई, तो सभी ने इसकी सराहना की थी.

हेमंत सोरेन यह भूल गये हैं कि जितनी जरूरत उन्हें कांग्रेस-राजद की है, उतनी ही जरूरत कांग्रेस-राजद को झामुमो की भी है. झामुमो कमजोर नहीं है. लाख धमकी देते रहें, बगैर झामुमो के समर्थन के कांग्रेस का खाता भी झारखंड में लोकसभा चुनाव में नहीं खुल सकता, इस बात को कांग्रेस भी जानती है. राजद के सिर्फ पांच विधायक हैं और उसने अपनी ताकत के बल पर झामुमो और कांग्रेस को झुका दिया, टिकट ले लिया. असली खेल तो लालू प्रसाद ने खेला है, दबाव का खेल. कांग्रेस और झामुमो को पीछे हटने के लिए मजबूर किया. कांग्रेस को तो राजनीतिक नुकसान नहीं होगा, पर झामुमो बच नहीं सकता.

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