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झुकाया प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को

।। रेहान फजल ।। भारतीय अफसरशाही-8 पीएस अप्पू ने कभी नहीं की दस्तूर की फिक्र भारतीय नौकरशाही की दुनिया में लोक नायक बहुत मुश्किल से मिलते हैं. बिहार कैडर के 1951 बैच के पीएस अप्पू उनमें से एक थे. उनको कई तरह के विशेषणों से पुकारा जाता है मसलन ‘विकास अर्थशास्त्री’. ऐसा इनसान जिसे नेताओं […]

।। रेहान फजल ।।

भारतीय अफसरशाही-8

पीएस अप्पू ने कभी नहीं की दस्तूर की फिक्र

भारतीय नौकरशाही की दुनिया में लोक नायक बहुत मुश्किल से मिलते हैं. बिहार कैडर के 1951 बैच के पीएस अप्पू उनमें से एक थे. उनको कई तरह के विशेषणों से पुकारा जाता है मसलन ‘विकास अर्थशास्त्री’.

ऐसा इनसान जिसे नेताओं से अपनी बात साफ-साफ कहने में कोई गुरेज नहीं था, ‘ऐसा शख्स जिसे दस्तूर की कोई .फिक्र नहीं थी’-वगैरह वगैरह. आइएएस के रूप में उनके 30 साल के कार्यकाल का सबसे महत्वपूर्ण क्षण उस समय आया जब वो मसूरी में लाल बहादुर शास्त्री नेशनल अकादमी के निदेशक बने. वहां पर अप्पू ने नौकरी को लात मार दिया, लेकिन अपने सिद्धांत से नहीं डिगे.

बात है साल 1981 की. हिमालय में ट्रैकिंग के दौरान एक आइएएस प्रोबेशनर ने जरूरत से ज्यादा शराब पी ली थी. उसने शराब के नशे में एक लोडेड रिवॉल्वर निकाल कर दो महिला प्रोबेशनर्स के सिर पर तान दिया.

इससे पहले, ये शख्स अनुशासनहीनता के आरोप में राष्ट्रीय रक्षा अकादमी से भी निकाला जा चुका था. पूरी जांच के बाद लाल बहादुर शास्त्री नेशनल अकादमी के निदेशक पीएस अप्पू इस नतीजे पर पहुंचे कि इस व्यक्ति का अकादमी में रहना खतरनाक होगा. इसलिए उन्होंने सिफारिश की कि उसको अकादमी से निकाल दिया जाये.

लेकिन उस व्यक्ति की तत्कालीन गृह मंत्री ज्ञानी जैल सिंह के साथ नजदीकी के कारण सिर्फ चेतावनी दे कर छोड़ दिया गया. अप्पू ने विरोध में अपने पद से इस्तीफा दे दिया.

उन्होंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पत्र लिखा, ‘सरकार के इस फैसले से ये प्रोबेशनर सिर्फ यही निष्कर्ष निकालेगा कि सही जगह पर प्रभाव का इस्तेमाल कर बिना रोक-टोक बड़े से बड़ा अपराध को अंजाम दिया जा सकता है.’

इस पर संसद में काफी बवाल हुआ और उनके फैसले को अंतत: सरकार ने माना और उस प्रोबेशनर को अकादमी से निष्कासित कर दिया गया.

लेकिन इसके बावजूद अप्पू ने अपना इस्तीफा वापस नहीं लिया और 30 साल की अपनी आइएएस की नौकरी को लात मार दी. 1981 बैच की रत्ना प्रभा कहती हैं, ‘ मैं नहीं समझती कि आज के युग में सिर्फ सिद्धांत के लिए कोई इनसान ऐसा कुछ कर सकता है.’

उनके इस्तीफे के बाद संयुक्त निदेशक एससी वैश्य ने अकादमी के न्यूज लेटर में लिखा, ‘अप्पू के लिए पेशेवर सूझ-बूझ, राजनीतिक निष्पक्षता, सत्यनिष्ठता और गरीबों की सेवा सर्वोपरि थी. उन्होंने इन मूल्यों के समर्थन में हमेशा साफगोई से बात की. वो बहुत दुखी हो कर गये, जब उनको यह अहसास हुआ कि इन मूल्यों की कद्र नहीं की जा रही है.’

मुख्य सचिव पद का मोह नहीं : कहा जाता है कि जब उन्हें बिहार का मुख्य सचिव बनाने की पेशकश की गयी, तो उन्होंने मुख्यमंत्री को पत्र लिखा कि उन्हें अपने फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए.

इस पर भी वो नहीं माने तो उन्होंने कहा कि मैं इस शर्त पर यह पद स्वीकार कर सकता हूं कि मुझे अपने विचार व्यक्त करने की पूरी आजादी हो और मेरे काम में कोई राजनीतिक हस्तक्षेप न किया जाये. कुछ महीनों बाद जब उन्हें लगा कि मुख्यमंत्री अपना वादा नहीं निभा रहे तो उन्होंने कहा कि वो इस पद से हटना पसंद करेंगे.

जब उन्होंने मुख्य सचिव का पद छोड़ा तो उन्होंने लिखा, ‘वो राजनीतिक व्यवस्था में आयी सड़न को रोकने में सरकार की असफलता, बढ़ते अपराधीकरण और नौकरशाही में कम होती नैतिकता के कारण अपने पद पर बने नहीं रहना चाहते.’ जब उन्हें भूमि सुधार समिति का अध्यक्ष बना कर योजना आयोग भेजा गया, तो उन्होंने ये कह कर खलबली मचा दी कि भारत में भूमि सुधारों के असफल होने का मुख्य कारण राजनीतिक इच्छा शक्ति का न होना है.

साल 2002 में गुजरात के सांप्रदायिक दंगों के बाद उन्होंने राष्ट्रपति कलाम को पत्र लिख कर उनसे इस पूरे मामले में हस्तक्षेप करने को कहा था. दो साल पहले उन्होंने ‘बिहार आइएएस ऑफिसर्स’ पत्रिका में लिखा था कि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना को लागू करने के लिए ऊंचे दर्जे के आइएएस अधिकारियों, आइआइटी और नेशनल लॉ स्कूल के स्नातकों को ब्लॉक डेवेलपमेंट अधिकारी के तौर पर नियुक्त करना चाहिए.

नौकरशाहों का वर्गीकरण : अप्पू के अनुसार आइएएस अधिकारियों को मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है. पहली श्रेणी में काबिल और आत्मविश्वासी अधिकारी आते हैं, जो निर्णय लेने में कोई चूक नहीं करते.

पचास के दशक में 35 फीसदी अधिकारी इस श्रेणी में आते थे जिनकी संख्या अब घट कर अब सिर्फ 10 फीसदी रह गयी है. दूसरी श्रेणी में वो अधिकारी आते हैं जो नियमों के अनुसार चलते हैं, फैसलों को टालते हैं और गलती करने के डर से फैसले ही नहीं लेते. 50 के दशक में आइएएस में 60 फीसदी लोग इसी तरह के होते थे. अब इनकी संख्या 40 फीसदी रह गयी है.

तीसरी श्रेणी में वो लोग हैं जो विवेकहीन हैं, मनमाने ढंग और निजी लाभ के लिए सत्ता का दुरूपयोग करते हैं. 50 के दशक में ऐसे लोग पांच फीसदी होते थे, जिनकी संख्या बढ़ कर अब 50 फीसदी हो गयी है.

अंतरात्मा की आवाज सबसे अहम : अप्पू को बेईमानी से चिढ़ थी. आइएएस छोड़ चुके हर्ष मंदर याद करते हैं, ‘जब वो हमारे निदेशक होते थे तो एक बार मैं उनके दफ्तर में इस बात का विरोध करने घुस गया कि एक लेक्चरर प्रजातांत्रिक विरोध के खिलाफ फायरिंग को सही ठहरा रहे थे.

मैंने उनसे ये भी शिकायत की कि हमें सिखाया जा रहा है कि भुखमरी से होने वाली मौतों को किस तरह से छिपाया जाये. उन्होंने न सिर्फ मेरी बातें ध्यान से सुनी बल्कि मेरी सारी शंकाओं का उन्मूलन भी किया.’ हर्ष कहते हैं कि उन्होंने मुझे सबसे बड़ी चीज ये सिखायी कि सरकार का कोई भी आदमी आपको अपनी अंतरात्मा के खिलाफ काम करने के लिए नहीं मजबूर कर सकता. हां, अपनी अंतरात्मा के अनुसार काम करने की कीमत जरूर चुकानी पड़ती है और आपको इसे चुकाने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए.

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