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देश मना रहा है आज 65वां गणतंत्र दिवसः क्या कहते हैं विशेषज्ञ

1950 में जब देश ने पहला गणतंत्र दिवस मनाया, उस वक्त का जज्बा, उस जमाने के लोगों के जज्बात और आज के हालात में बहुत फर्क आ गया है. 1950 में जन समूह का पर्व था, पूरे मुल्क के लिए उत्साह का सबब था. अब औपचारिकता की सिकुड़न आ गयी है. अब न वह शौक […]

1950 में जब देश ने पहला गणतंत्र दिवस मनाया, उस वक्त का जज्बा, उस जमाने के लोगों के जज्बात और आज के हालात में बहुत फर्क आ गया है. 1950 में जन समूह का पर्व था, पूरे मुल्क के लिए उत्साह का सबब था. अब औपचारिकता की सिकुड़न आ गयी है. अब न वह शौक रहा, न वह उत्साह. सरकारी इमारतों पर आज भी तिरंगे फहराये जा रहे हैं. पर लोगों के दिलों में अब वह उत्साह हिलोरें नहीं मारता है. कभी-कभी तो ऐसा एहसास होता है कि अपने देश के इस तारीखी दिन की अहमियत की शान खोती जा रही है. बस एक आयोजन कर देना है. दो-चार देश भक्ति गीतों को बजा देना है, मिठाई बांट देनी है. बस हो गया गणतंत्र दिवस. 1950 के दशक और 2010 के दशक में आये अंतर को आंकता-तौलता प्रभात खबर की यह विशेष प्रस्तुतिः-

अब न वैसा जोश रहा, न आदर्श

।। डॉ बीएनपी वर्णवाल।।

(शिक्षाविद सह उप प्राचार्य रामलखन सिंह यादव कॉलेज कोडरमा, निवास विश्रम बाग रोड, कृष्णा बगीचा)

भारत को एशिया का सबसे बड़ा गणतंत्र होने का गौरव प्राप्त है. भारत प्रति वर्ष 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस मनाता है. गणतंत्र दिवस भारत का राष्ट्रीय पर्व है. भारत में सभी धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र, जाति, समुदाय व वर्ग के लोग एकजुट होकर इस पर्व को मनाते हैं. भारत में विभिन्न समुदाय के लोगों का अपना-अपना अलग पर्व-त्योहार है, किंतु गणतंत्र दिवस का महत्व उन सब में सर्वोपरि है, क्योंकि यह पर्व सदियों व वर्षो के संघर्ष और बलिदान के बाद सपना साकार होने का पर्व है. भारत मां के अनेकों वीर सपूतों की कुरबानी के बाद भारत 26 जनवरी 1950 को स्वाधीन हुआ. तब से प्रतिवर्ष 26 जनवरी को स्वाधीनता दिवस मनाया जाता है. 15 अगस्त 1947 को जब हमारा देश आजाद हुआ, तो लगभग तीन वर्ष बाद दुनिया का सबसे बड़ा संविधान बना कर प्रस्तुत किया गया और भारत सबसे बड़ा जनतंत्र बना.

26 जनवरी 1950 को संविधान को लागू किया गया. इस दिन लोग तिरंगा फहरा कर भारत के वीर शहीदों को याद करते हैं. उनके बलिदान और कुरबानी को आदर्श मान कर भारत की गरिमा, प्रभुता और स्वतंत्रता को अक्षुण्ण बनाये रखना अपना धर्म समझते हैं. वहीं भारत की संस्कृति आदर्श वसुधैव कुटुम्बकम, जीओ और जीने दो, सर्वेभवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया आदि आदर्शो का पाठ पूरे भारत में लागू करने के साथ- साथ दुनिया के लोगों को पाठ पढ़ाने का सपना देखते आ रहे हैं. फिर धर्म के पथ पर आगे बढ़ते हुए भारत माता को सुहागिन बना कर हमेशा हरा -भरा व धन-धान्य से पूर्ण होने का सपना देखते हुए आज तक प्रति वर्ष 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाते आ रहे हैं. प्रति वर्ष इन आदर्शो को दोहराते आ रहे हैं. यह तिरंगा भी प्रत्येक पदाधिकारी, नेता व नागरिकों को भारत के इतिहास की गाथा बयां करता है और हर भारतीय के अंदर उत्साह, स्वाभिमान और गौरव भरता है. 26 जनवरी 1950 को डॉ राजेंद्र प्रसाद व डॉ भीम राव आंबेडकर जैसे सपूतों ने भारत को दुनिया का अग्रदूत या जगत गुरु बनाने का सपना देखा था. 26 जनवरी का दिन इन्हीं बातों को याद दिलाता है और प्रत्येक भारतीय को उन आदर्शो को अपने दिल में संजोये रखने की प्रेरणा देता है.

किंतु आज स्थिति उससे उलट है. लोगों के सोच व विचार में काफी बदलाव आया है. आज राजनेता हो या अधिकारी, उद्योगपति हो या किसान, सभी अपने आदर्शो से भटक गये हैं. अपने दिल पर हाथ रख कर खुद से पूछिये कि क्या हम गांधी, सुभाष, नेहरू व आजाद के अरमानों को पूरा कर रहे हैं? क्या भारत के सिद्धांतों को अपने दिलों के किसी कोने में भी संजो कर रखे हैं. क्या हमारे देश में सीता,सावित्री, झांसी, मीरा, लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती व दुर्गा रूपी नारियां आज सुरक्षित और सम्मानित हैं. क्या हम अपने बच्चों को सही मायने में ध्रुव, प्रह्वाद, लव-कुश, आजाद व सुभाष बनाना चाहते हैं? क्या आज हम अभिभावक अपने-आप को पहचान रहे हैं? क्या हमें अपने क र्तव्यों का बोध है? अगर इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढ़ा जाये, तो पता चल जायेगा कि 1950 में जिन आदर्शो और मूल्यों के साथ गणतंत्र दिवस मनाया जाता था, उन मूल्यों के साथ आज के लोग गणतंत्र दिवस नहीं मना रहे हैं. आज सच्ची दृष्टि से देखा जाये, तो हम प्रति वर्ष 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस तो मना रहे हैं, लेकिन उन आदर्शो को ताक पर रख कर.

आज हम बोझ समझ कर झंडोत्तोलन करते हैं और राष्ट्र गान गाते हैं. आज भी राष्ट्र गान गाया जाता है, लेकिन वह भाव दिल में नहीं उमड़ता है. झंडोत्ताेलन करते हैं, लेकिन वह उमंग और उल्लास मन में तरंगे नहीं भरता है. नारे लगाते हैं, भाषण देते हैं,लेकिन वह जोश मन में नहीं जगता है. गांधी-सुभाष की बातों को दोहराते हैं, लेकिन वह गर्व व स्वाभिमान दिल के पास फटकता तक नहीं. बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, लेकिन हमारा जमीर जीवित नहीं हो रहा है. देश को आगे बढ़ाने की बात दोहराते हैं, लेकिन उम्मीदें मरी की मरी रह जाती है, जीवित नहीं हो पा रही हैं. आज पुन: आवश्यकता है उन बातों, आदर्शो, देशभक्ति की भावना व करुणा को जगाने की, जिसे अपना मूल मंत्र मान कर वीर सपूतों ने देश को आजाद कराया था. आज जरूरत है जमीर को जगाने की, आज आवश्यकता है अपने कुविचार व कुसंस्कार के खिलाफ लड़ने की. भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रवाद, गरीबी, बेरोजगारी व अशिक्षा को दूर भगाने के लिए आगे आने की. आज जरूरत है प्रत्येक भारतीय की जुबान पर ऐ मेरे वतन के लोगों.. व विजय विश्व तिरंगा प्यारा..जैसे गीत की जरूरत है. आज हर अफसर की जुबां पर होनी चाहिए रघु कुलरीत सदा चली आई, प्राण जाये पर वचन न जाई. इन्हीं बातों को साथ- जय हिंद, जय भारत!

आदिवासी हितों का हनन हुआ

।। सोनाराम सोरेन।।

आजादी का जुनून ऐसा था कि चार घंटे की पैदल यात्रा तय कर महात्मा गांधी को सुनने रामगढ़ चले गये थे. सभा के बाद महात्मा गांधी व अन्य को चुटूपालू घाटी तक पैदल छोड़ने भी गये. तब लोगों में आजादी का जुनून था. नेताओं के नेतृत्व पर हमें पूरा विश्वास था. 1940 में रामगढ़ में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन के दौरान महात्मा गांधी, सुभाष जैसे नेताओं से रू-ब-रू होने का मौका मिला. गांधी जी बांस का छाता लिये खेत के रास्ते अधिवेशन स्थल तक आये.

उन्हें देखते ही मन रोमांचित हो उठा. अब तो हमारी उम्र सौ साल से अधिक हो गयी है.1908 में सर्वे हुआ था, तब मैं अपनी मां की गोद में था. अधिवेशन में नेताजी को सुन कर रोंगटे खड़े हो गये थे. दिल में आजादी की भावना परवान चढ़ी. अंतत: लंबे संघर्ष के बाद देश आजाद हुआ. आज भी वह दिन या है कि जब हम लोग गांव-गांव घूम कर लोगों को आजादी की लड़ाई में शामिल होने के लिए जगाया करते थे. जरजरा गांव में पच्चू पाहन, खतपतिया, श्याम लाल महतो, अमृत महतो, अघनु महतो के साथ नयी रणनीतियां बनाया करते थे. आज ये लोग दुनिया में नहीं हैं, लेकिन इनकी खूबियां व देश के प्रति सोच हमेशा जिंदा रहेगी. उस जमाने में न तो रेडियो था, न ही साइकिल थी. केवल पतरातू में खेदन साव के पास एक साइकिल हुआ करती थी. मैं तब भी पैदल चलता था, आज भी चलता हूं. आज हमारे पास आजादी है, लेकिन सच पूछिये तो समय बदल गया है. इंटरनेट के जमाने में आज लोगों के पास एक-दूसरे के लिए वक्त नहीं बचा है. संपर्क बढ़ा है, लेकिन संबंध टूट गये हैं.

ऐसे में देश की भलाई के लिए कौन कितना सोचेगा, मन यही सोच कर कचोटता रहता है. हमारे जमाने में केवल झंडा नहीं फहराया जाता था, बल्कि हम आजादी को सही मायने में जीते थे. लेकिन गुजरते वक्त के साथ आजादी की बात भी पुरानी हो चली है. आज न तो पुराने तेवर बचे हैं, न पुराने भाव. हम केवल तिरंगा फहरा कर अपनी जिम्मेवारी पूरी समझ लेते हैं. आज के दौर में जनता का भरोसा नेताओं के ऊपर नहीं रहा. जनता के प्रति नेताओं का भी यही हाल है. आजादी के बाद आदिवासी हितों का हनन हुआ है. जल, जंगल, जमीन से आदिवासी वंचित हुए हैं. हम लोगों का उत्थान व विकास ठहर गया है. सरकार से अब तक निराशा ही मिली है.

कम होती जा रही लोगों की भागीदारी

।। प्रो अरविंद कुमार सिन्हा।।

(जेजे कॉलेज, झुमरीतिलैया)

आज हमारा गणतंत्र 65 साल का हो गया. आधुनिक गणतंत्र व राष्ट्र ध्वज की कहानी 1928 में पंडित नेहरू द्वारा एक रिपोर्ट के आधार पर लिखी गयी, इसे संविधान बनाने का प्रथम प्रयास कहा जाता है. किंतु 31 दिसंबर 1929 को पंडित जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में पूर्ण स्वाधीनता को लक्ष्य मान कर 26 जनवरी के दिन को स्वाधीनता दिवस के रूप में मनाया जाये, ऐसी कल्पना पंडित नेहरू ने की और 1930 को इसको मूल रूप भी प्रदान किया.

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े कुछ क्रांतिकारियों ने पहला राष्ट्रीय ध्वज सात अगस्त 1906 को कोलकाता के ग्रीन पार्क में फहराया था. उस झंडे में भी लाल, पीला और हरे रंग की पट्टी थी, लेकिन ब्रिटिश हुकूमत ने उन क्रांतिकारियों को वहां से खदेड़ दिया और कुछ को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया. उसके बाद 1907 में भारत से निर्वासित कुछ क्रांतिकारियों ने भीकाजीकामा के नेतृत्व पेरिस में ध्वज फहराया, जिसमें सात तारे वाले मंडलों का निशान मिलता है. इस सात तारे वाले ध्वज को सप्त ऋषि के रूप में दर्शाया गया है. क्योंकि भारतीय सभ्यता और संस्कृति इन महान ऋषि मुनियों के दर्शन के रूप में जाना जाता है. इसके बाद 1917 में डॉ एनी वेसेंट और लोकमान्य तिलक ने होम रूल आंदोलन के दौरान इसे फहराया. इन सबके बावजूद 1931 में भारतीय तिरंगा को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया गया, जिसे 22 जुलाई 1947 को संविधान सभा ने अपनाया. ध्वज की सबसे खास बात यह है कि इसमें सम्राट अशोक के धर्म चक्र को दिखाया गया है, जिसका मतलब होता है कि जीवन गतिशील है और रुकने का अर्थ मृत्यु .

26 जनवरी 2002 को भारतीय ध्वज संहिता में संशोधन किया गया, जिसमें प्रत्येक नागरिक को अपने घरों, कार्यालयों, दफ्तरों, फैक्टरी आदि स्थानों पर राष्ट्रीय ध्वज को फहराने का अधिकार होगा. लेकिन आज-कल धीरे-धीरे राष्ट्रीय ध्वज और उससे जुड़े उत्सव के मायने बदलते जा रहे हैं. राष्ट्र की अस्मिता की रक्षा का संकल्प जो हमने अपने संविधान के माध्यम से पाया, उसमें समन्वय और त्याग का अभाव दिखता है. लोगों का उत्साह, उमंग और भागीदारी की कमी को हम इसके बदलते मायने के रूप में देख सकते हैं. आज सिर्फ औपचारिकता का निर्वाह किया जाता है. जिस प्रकार की स्थितियां राष्ट्रीय स्तर से लेकर कस्बों तक की बन गयी है, वे यह नहीं समझ पाते कि इस उत्सव के मायने कितने बड़े हैं. हमारा राष्ट्रीय ध्वज जो तीन रंगों का मिश्रण है, उसमें केसरिया रंग देश की शक्ति व साहस को दर्शाता है. बीच का सफेद रंग शांति और सत्य से जुड़ा है और साथ ही धर्म चक्र जो गतिशील है और अंत में हरा रंग जो हम भारतीय की पवित्रता उर्वरता तथा वृद्धि से संबंध रखता है. आज इन तीनों रंगों के मायने धीरे-धीरे कम होते जा रहे हैं, क्योंकि समारोहों में आम लोगों की भागीदारी कम होती जा रही है और यह सिर्फ सरकारी समारोह बनता जा रहा है. ऐसी स्थितियां पैदा होती जा रही है कि शुरू से ही स्कूल व महाविद्यालयों में बच्चों को सांस्कृतिक कार्यक्रम तक ही सीमित कर दिया जाता है.

देश को जब आजादी मिली, उस समय प्रभातफेरी का जीवन में बहुत महत्व होता था. अलग-अलग दल, संस्था, समूह व समाज की ओर से प्रभातफेरी निकाली जाती थी. प्रभातफेरी के माध्यम से लोगों को जगाया जाता था. उससे शहीदों के इस देश में रहने का मान और अभिमान दिखता था. जैसे मानों आज ही आजादी मिली हो. सुबह-सुबह देश भक्तों की टोली हर मुहल्ले, चौराहे से गुजरता था. यह कहते हुए कि.

उठ जाग मुसाफिर भोर भयो, अब रैन कहां सो सोवत है

जो सोवत है, वह खोवत है,जो जागत है सो पावत है

ऐसे ही गीत और नारों से लोग नहा-धो कर साफ लिबास में झंडोत्तोलन स्थल पर पहुंच जाते थे, लेकिन आजकल ऐसा दिखता नहीं है. इस समय फिर से इसे वापस लाने की जरूरत है. बच्चों, महिलाओं, युवाओं, जवानों एवं वृद्धों को जगाने की जरूरत है, तभी फिर से लोगों में देश प्रेम का जज्बा पैदा होगा और अपने इस पावन राष्ट्रीय पर्व में शामिल होकर पहले की तरह अपनी भागीदारी को सुनिश्चित कर सकेंगे.

भ्रष्टाचार का पर्याय बन कर रह गया लोकतंत्र

।। मुरारी शर्मा।।

-(सीसीएलकर्मी) सौंदा डी-

लगभग दो सौ वर्षो तक ब्रिटिश हुकूमत का दंशझेलने के उपरांत 15 अगस्त 1947 को हमारा देश भारत स्वतंत्र हुआ. स्वतंत्रता की लड़ाई में कई भारतीय शहीद हुए, कइयों ने अंगरेजों के डर से खुदकुशी कर ली. इसका सही आकलन इतिहास के पन्नों में भी दर्ज नहीं है. अलबत्ता कुछ चुनिंदा शहीदों के नाम, जिन्होंने स्वाधीनता की लड़ाई अपने जान पर खेल कर लड़ी, हम सभी जानते हैं. मैं उन तमाम शहीदों को तहे दिल से नमन करता हूं.

आजादी की लड़ाई के सूत्रधार महात्मा गांधी (जिन्होंने सत्य और अहिंसा को अपना अस्त्र बनाया) अंतिम दम तक अंगरेजों से लोहा लेते रहे. अंतत: अंगरेजों ने हार मानी और भारत आजाद हुआ. पंडित जवाहर लाल नेहरू देश के प्रथम प्रधानमंत्री बने तथा डॉ राजेंद्र प्रसाद देश के प्रथम राष्ट्रपति. उस समय हमारे देश की आबादी लगभग 34 करोड़ थी और अधिसंख्य जनता गरीब व अशिक्षित थी.

अंगरेजों ने अपने शासन काल के दौरान सत्ता संचालन हेतु जो नियम व कानून बनाये थे, सर्वसम्मति से उसमें संशोधन कर अपने देश वासियों के हित रक्षा हेतु एक सार्वभौम संविधान का निर्माण हुआ. संविधान के निर्माण में डॉ भीमराव आंबेडकर का विशेष योगदान रहा, जिसका सार लोकतंत्र पर आधारित है.

26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान के आलोक में गणतंत्र की स्थापना हुई और हमारा राष्ट्रीय ध्वज गणतंत्र के प्रतीक के रूप में नील गगन में लहराने लगा. 15 अगस्त और 26 जनवरी समस्त देशवासियों के लिए गौरव का दिन बन गया और हम इसे राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाते चले आ रहे हैं.

मुझे याद है, तब मैं छोटा था. तीसरी कक्षा में पढ़ता था. 26 जनवरी को अहले सुबह हम सभी अपने शिक्षक के नेतृत्व में प्रभातफेरी निकाल कर भारत माता का जयघोष करते हुए गांव की गलियों से जब गुजरते थे, गांव के अधिकांश बच्चे, बूढ़े व नौजवान अपने होंठों पर मधुर मुस्कान लिये बुदबुदाते थे और सभी हमारी टोली में शामिल हो जाते थे. विद्यालय परिसर में सभी एकत्रित होकर झंडोत्ताेलन कार्यक्रम का आनंद उठाते थे और आसमान में लहराते तिरंगे को देख कर आजादी के एहसास से फूले नहीं समाते थे. समय के साथ-साथ परिस्थितियां बदलती गयी. हमारे देश की आबादी तेजी के साथ बढ़ने लगी. गरीबी व भुखमरी के कारण जन मानस में असंतोष का भाव पनपने लगा. राज नेताओं के झूठे वादों व अमर्यादित क्रिया कलापों के फलस्वरूप देश वासियों के मन में लोकतांत्रिक प्रणाली पर संदेह पैदा होने लगा. गणतंत्र दिवस भी इससे अछूता नहीं रहा. वह जोश और उमंग, जो आजादी के शुरुआती सालों में जनता के दिलों में गणतंत्र दिवस के अवसर पर दिखाई पड़ता था, मंद पड़ने लगा और गणतंत्र दिवस मात्र राष्ट्रीय पर्व का प्रतीक बन कर रह गया.

देश की बढ़ती आबादी, अशिक्षा व बेरोजगारी की समस्या का निदान करने में अक्षम सियासत दानों को सिर्फ सत्ता की कुरसी का मोह सताने लगा. लोकतंत्र के विरुद्ध खड़ा होने और अपने ही सरकार के खिलाफ आंदोलनों का दौर चल पड़ा. हड़ताल, सड़क जाम, रेलगाड़ी, सरकारी बसों के परिचालन को ठप कराना व आग लगा देना आम बात हो गयी. लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर गणतंत्र ‘गनतंत्र’ में तब्दील होता चला गया और संगीनों के साये में गणतंत्र दिवस मनाने की नौबत आ गयी. ऐसी परिस्थिति की कल्पना क्या उन शहीदों ने कभी की होगी, जो आज हमारे सामने मुंह बाये खड़ा है. जिस लोकतंत्र की नींव में भारत माता के लालों की लहू समाहित है, आज वही लोकतंत्र भ्रष्टाचार, आतंकवाद व स्वार्थवाद का पर्याय बन कर रह गया है.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि आज भारतीय लोकतंत्र पूरी दुनिया में एक मिसाल के तौर पर स्थापित है. इस बात का श्रेय खास कर लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया को मैं देना चाहता हूं, जिसके माध्यम से देश की जनता को उन सारी बातों की जानकारी मिनटों में प्राप्त हो पाती है, जिससे हमारी लोकतांत्रिक पद्धति पर कुठाराघात होता है. आज कल नये राजनीतिक प्रयोगों की शुरुआत लोकतंत्र के हित में परिलक्षित हो रहा है, जो सचमुच गण के माध्यम से तंत्र को संचालित करने की वकालत करता है. मुङो पूर्ण विश्वास है कि देश की जागरूक जनता नये सिरे से पुन: सच्चे गणतंत्र की स्थापना हेतु एकजुट होकर सामने आयेगी और वीर शहीदों के सपनों को साकार करेगी.

जप रहा किसका मंत्र, यह गणतंत्र

।। जावेद इस्लाम।।

(बरही, हजारीबाग)

भारत का संविधान भारत को लोकतंत्रत्मक गणराज्य बताता है. यहां के लोगों को धार्मिक विश्वास की आजादी के साथ सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक समानता प्रदान करने का दावा करता है. राज्य को समाजवादी के साथ-साथ कल्याणकारी भी बताता है. समाजवाद वैसे तो अपने आप में ही कल्याणकारी होता है. फिर समाजवादी के साथ अलग से कल्याणकारी बताने की दरकार क्यों पड़ी? कहते हैं- वर्ष 1992 से पहले यानी उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण की नीति पर सरपट दौड़ने से पहले अपना भारत समाजवाद के रास्ते चल रहा था. वह किस प्रकार का समाजवाद था और किसका कल्याण कर रहा था?

एक लोकोक्ति खासा प्रचलित है कि ‘मजबूरी का नाम महात्मा गांधी’. लगता है कुछ इसी तरह से देशी (राष्ट्रीय नहीं) पूंजीवाद की मजबूरी का नाम समाजवाद रहा होगा.

आजादी हासिल होने के समय हमारे देश का पूंजीवाद आर्थिक रूप से बहुत सबल नहीं था. उसकी क्षमता ऐसी नहीं थी कि अपने विकास के लिए वह ऊर्जा, स्टील व सीमेंट जैसे भारी उद्योगों में पूंजी निवेश कर सके और अपनी औद्योगिक जरूरतों की पूर्ति कर सके. लिहाजा उसे राज्यकृत पूंजी के सहयोग की आवश्यकता हुई होगी. अत: यह जिम्मेवारी समाजवाद को सौंप दी गयी. समाजवाद ने देशी (राष्ट्रीय नहीं) पूंजीवाद की जम कर सेवा की. कल्याण किया. चूंकि राज्य यह भूमिका राज्य के खजाने के जरिये निभाती थी. इसलिए राज्य को कल्याणकारी बताया गया और जब समाजवाद से पौष्टिक डोज ले-लेकर पूंजीवाद ऋण पुष्ट सबल व सक्षम हो गया, तो उसे समाजवाद की जरूरत ही नहीं रही. समाजवाद पुरानी व गयी-बीती चीज लगने लगा.

पूंजीवाद अब अपने बूते सब कुछ संभाल सकता था. इसलिए वर्ष 1992 के बाद विनिवेशीकरण की नीति के जरिये सार्वजनिक क्षेत्र के सारे महत्वपूर्ण उपक्रम क्रमश: पूंजीवाद को सौगात दिया जाना शुरू हुआ. देशी पूंजीवाद के पीठ पर विदेशी पूंजीवाद खुल्लम खुल्ला आ खड़ा हुआ— ‘वित्त की चिंता मत करो, जितना चाहो फॉरेन इनवेस्टमेंट मिलेगा, बस तुम समाजवाद को खरीदते जाओ और माननीय को सुविधा शुल्क या सेवा शुल्क देते जाओ’. देशी पूंजीवाद व विदेशी पूंजीवाद गंठबंधन ने ‘जनगण’ की रोटी से लेकर आर्थिक-औद्योगिक विकास का जिम्मा अपने माथे पर उठा लिया है. सरकार की भूमिका में बाजार आ गया है और सरकार के जिम्मे देशी-विदेशी पूंजी के लिए रेड कारपेट बिछाने भर का काम रह गया है.

और अपना यह गणराज्य यह सब अग्रगति अपने उसी संविधान के रहते हासिल किया है, जिसके लागू होने की स्मृति में हम 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस मनाते हैं और जिस संविधान में समाजवाद तथा कल्याणकारी राज्य की बात कही गयी है.

हो सकता है कि कोई सिद्धांतकार अब एक नया राजनीतिक सिद्धांत खोज निकाले और देश की मौजूदा सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था बाजारवादी समाजवाद कहा जाने लगे. जो हो, मगर मौजूदा सामाजिक-आर्थिक संस्कृति ने हमारे इस अपने पुराने गणतंत्र के लिए कई नये मानक स्थापित किये हैं-

1.कार्य दिवस आठ घंटे से बढ़ कर 11-12 घंटा हो गया

2.गणराज्य की सेवा में लगे ऐसे लाखों कर्मी हैं, जिन्हें सरकार न्यूनतम मजदूरी भी नहीं देती है.

3.सेवा की सुरक्षा की गारंटी नहीं, नियोक्ता जब चाहे कर्मी को लात मार कर निकाल सकता है. (चाहे उपक्रम निजी से या सार्वजनिक)

4.कार्य व कार्यस्थल की मानवीय दशा की उपेक्षा का अधिकार

5.नागरिकों को चिल्लाने के लोकतांत्रिक अधिकार में वृद्धि, मगर व्यवस्था को सुनने के दायित्व में कटौती.

6.वेतन में जबरदस्त असमानता. आमजन व अभिजन के आय और आर्थिक हैसियत में लगातार चौड़ी होती हुई खाई, बढ़ती हुई विषमता.

और क्या-क्या उल्लेख किया जाये. हरि अनंत हरि कथा अनंता वाला मामला है. ऐसे में यह सवाल उठता है कि-

किस किस का है वरदहस्त

कि लीक

तंत्र से त्रस्त, यह गणतंत्र?

गणतंत्र दिवस : तब और अब

।। सीताराम पाठक।।

(सेवानिवृत्त शिक्षक, सेल , भवनाथपुर, गढ़वा)

सैकड़ों वर्ष तक गुलामी झेलने के बाद 15 अगस्त 1947 को देश स्वतंत्र हुआ. देशवासियों के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक स्थिति में सुधार लाने के लिए तथा इन्हें अधिकार और कर्तव्य का बोध कराने के निमित भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 को देश में लागू किया गया. इस दिन से हमारा देश गणराज्य घोषित हो गया तथा देश को सार्वभौमिकता प्राप्त हो गयी. इसी दिन से हमलोग पूरे देश में गणतंत्र दिवस मनाने लगे. अब्राहम लिंकन द्वारा प्रजातंत्र की दी गयी परिभाषा के अनुसार- देश में जनता की, जनता के लिए तथा जनता के द्वारा चुनी गयी सरकार बनाने का मार्ग प्रशस्त हो गया. आजादी की लड़ाई में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेनेवाले देश भक्तों को जनता ने अपना प्रतिनिधि बनाया. इन लोगों ने जी जान से देश की सेवा की और विकास के कई महत्वपूर्ण कार्य किये. पूर्व में जहां छोटे-छोटे कल कारखाने नहीं थे, वहीं हवाई जहाज तक बनने लगे.भारी अभियंत्रण निगम लिमिटेड (हटिया) तथा बोकारो स्टील प्लांट जैसे उद्योग इसके ज्वलंत उदाहरण हैं. उसी का परिणाम है देश में कई तरह का परीक्षा हुआ और संचार क्रांति के परिणाम स्वरूप आज दुनिया मानव की मुट्ठी में बंद हो गयी है. इसके अतिरिक्त राजनीतिक उपलब्धियों में गोवा व दमन द्वीप को भारत में मिलाने का काम हुआ. भारत-पाकिस्तान युद्ध में पाकिस्तानी सेना के 95 हजार सैनिकों का भारतीय सेना के समक्ष समर्पण तथा बांग्ला देश को बनाना, हमारी भारतीय राजनीति की अहम उपलब्धि है.

वस्तुत: संपूर्ण देशवासियों के लिए वर्ष में दो ही सर्वाधिक और सर्वमान्य महा त्योहार है- स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त) और गणतंत्र दिवस (26 जनवरी). ये दोनों त्योहार एक दूसरे के पूरक हैं. पूर्व में इस दिन देश के प्रत्येक छोटे-बड़े विद्यालयों में प्रभातफेरी निकाली जाती थी. इस दौरान महात्मा गांधी, पंडित जवाहर लाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस आदि नेताओं का जय घोष किया करते थे.

बच्चों के इस बुलंद आवाज को सुन कर घरों में बिस्तर के अंदर दुबके हुए लोग भी प्रभातफेरी देखने के लिए बाहर दरवाजे पर आ जाते थे. कुछ घंटों के बाद विद्यालयों में राष्ट्रीय ध्वज फहराने के बाद राष्ट्र गान गाया जाता और प्रधानाध्यापक द्वारा गणतंत्र दिवस के महत्व पर प्रकाश डालने के बाद बच्चों के बीच मिठाई बांटी जाती थी. 1955 में मैं पांचवीं कक्षा में था. तब मुझे भी प्रभातफेरी में भाग लेने का मौका नगर ऊंटारी उच्च विद्यालय में मिला था. उस समय जो छात्र प्रभातफेरी में भाग नहीं लेते थे, उनसे स्पष्ट कारण पूछा जाता था. परंतु आज स्थिति में बहुत बदलाव आ गया है. अब कुछ गिने-चुने विद्यालयों में ही प्रभातफेरी निकाली जाती है.

गणतंत्र दिवस के प्रारंभिक काल और आज की स्थिति में सबसे बजा अंतर यह आया है कि उस समय हर गांव में विद्यालय नहीं था. जहां विद्यालय था, वहां बच्चों की संख्या भी बहुत कम थी. परंतु आज ऐसा कोई गांव नहीं है, जहां विद्यालय नहीं है तथा उसमें छात्र-छात्रओं की संख्या सैकड़ों में न हो.

आज देश की राजनीतिक परिस्थिति में काफी बदलाव आया है. जिस समय देश में गणतंत्र घोषित हुआ था, उस समय के राजनेताओं और वर्तमान के राजनेताओं के चरित्र में काफी अंतर आ गया है. आज के कई नेता अवैध कमाई के आरोप में जेल की हवा खाने लगे हैं. पूर्व के नेता कहते थे ‘हम देश के लिए हैं, लेकिन आज के नेता कहते हैं कि देश हमारे लिए हैं.’

जहां तक 26 जनवरी को ही गणतंत्र दिवस मनाने की बात है, तो इसके पीछे इस तारीख के कई महत्वपूर्ण पहलू भी है. आजादी की लड़ाई में 26 जनवरी 1929 को पंडित जवाहर लाल नेहरू ने रावी नदी के तट पर देश के लिए पूर्ण स्वराज्य की घोषणा की थी. इसलिए इस दिन गणतंत्र दिवस मनाया जाता है.

हमारा लोकतंत्र और वर्तमान व्यवस्था

।।हरिवंश प्रभात।।

-मेदिनीनगर-

आज हम 65वें गणतंत्र दिवस को शान और शौकत के साथ मना रहे हैं. सरकारी-गैर सरकारी प्रतिष्ठानों व स्कूलों में तिरंगे झंडे फहराये जा रहे हैं. अपने विकास की कहानी और आगे की योजना भी पढ़ कर लोगों को सुनाया जा रहा है. मगर देखा जाये, तो स्थितियां बद से बदतर होती जा रही है. जितनी समस्याओं का निदान करने का प्रयास किया जा रहा है, उससे अधिक नयी समस्याएं सामने आ जा रही हैं.

अब तक के बीते वर्षो में सरकारें जनता की सहानुभूति खो चुकी है. बावजूद इसके कुछ जनता के हिमायती और देशभक्त समाजसेवी जब भ्रष्टाचार मिटाने व देश के विकास को गति प्रदान करने की बात कहते हैं, तो जनता उनमें अपना हिमायती होने का गुण देखती है. देश में कुछ संस्कारवान लोग हैं, जो अपना संबंध सामाजिक आंदोलनों से रखते हैं. उनके अंदर देश के गरीब लोगों के बारे में चिंता है, वे देश की धड़कन महसूस करते हैं. मगर वैसे लोगों का सत्तासीन होना असंभव है. यही कारण है कि वैसे लोगों की योग्यता और क्षमता पर लगाम लग जाता है. लोकतांत्रिक व्यवस्था की महती जिम्मेवारी देकर जिनके हाथों में सत्ता सौंपी गयी तथा जिन्हें विश्वास का दायित्व मिला वे अनाड़ी और अयोग्य प्रमाणित हुए.

उनकी नाकामियों का दंश ङोलता देश उनसे निजात पाने के लिए छटपटा रहा है, मगर जनता ही उनसे निजात पा लेगी अपने मतदान के अधिकार से. आज नव युवकों को भविष्य दर्शन का आभास कराया जा रहा है. गणतांत्रिक प्रणाली में सार्वभौमिक व महत्वपूर्ण सिद्धांत प्रत्येक सफल लोकतांत्रिक व्यवस्था का आधार माना जाता है. पुरानी पीढ़ी के बुजुर्ग आज भी कहते हैं कि इससे अच्छा तो अंगरेजों का शासन था. धन-बल, आपराधिक कौशल व अनेक विकारों से युक्त इस देश के लोकतांत्रिक विधाताओं का वर्तमान और भविष्य चुनौतीपूर्ण है. चुनौती को समङो बिना जो व्यवस्था यथावत का इरादा रखेगी, उसे भविष्य में अप्रत्याशित संकटों का सामना करना पड़ सकता है. वास्तविकता को नकारना एक प्रकार से चुनावी वादा करना और उसे भुला देना है. लोकतंत्र की सबसे बड़ी खामी जातिवाद की राजनीति है. इसी शॉर्ट कट जातिवादी राजनीति की उपज वंशवाद है. किसी खास जाति-संप्रदाय को लुभाने की राजनीति आजकल हो रही है. आरक्षण का लाभ आर्थिक रूप से पिछड़े को मिलाना चाहिए. मगर आरक्षण का लाभ वे उठा रहे हैं, जो आरक्षण की श्रेणी में नहीं आते. गरीब एक वर्ग है, जाति या संप्रदाय नहीं. धार्मिक और जातीय आरक्षण से भेदभाव और विद्वेष फैल रहा है.

जातिवाद की राजनीति को राजनेताओं का बढ़ावा मिल रहा है. हमारा संसद लोकतंत्र का मंदिर है. वहां सभी सांसद देश की अस्मिता बचाने के लिए जाते हैं, न कि मुंह पर ताला लगाने के लिए. राष्ट्रीय समस्याओं के हल के लिए उन्हें वेतन मिलता है, मौन रहने के लिए नहीं. जब संसद में मौन की जरूरत होती है, तो शोर और तोड़-फोड़ की जाती है. उनकी हरकत से आम आदमी निराश होता है. वह यहां तक निर्णय कर लेता है कि अब समस्याओं का निदान हमें स्वयं करना होगा. ऐसे में उसके कदम और दिशा भटक जाते हैं. ऐसा हर आदमी मानता है कि चुनाव में सरकारी मशीनरी, सरकारी सेवक एवं सरकारी कोष का दुरुपयोग नहीं हो. यह सिद्धांत सबके लिए लागू हो. आज राष्ट्रीय चिंतन की आवश्यकता है. देश के रहनुमाओं को व्यापक हित को देख कर निर्णय लेने होंगे. हरेक प्रकार के शोषण, अत्याचार, उत्पीड़न आदि का विरोध होना चाहिए. लोकतंत्र की आधारशिला है शांति पूर्ण प्रदर्शन, अनशन, घटना, भूख हड़ताल आदि. परंतु नेता लोग इन्हें स्वयं के लिए सही साबित करते हैं और जब दूसरे लोग करते हैं, तो उसे बल पूर्वक दबाया जाता है. यह दुर्भावना एवं पक्षपात पूर्ण रवैया राष्ट्रीय भावना के लिए घातक है. आज राजनीति की गरिमा गिरी है. एक पूरी पीढ़ी के जवान होने से हमारा लोकतंत्र भी परिपक्व माना जाने लगा है. मगर क्या वास्तव में हमारी राजनीति अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफल रही है? आज आम जनता गुस्से में है.

उग्रवाद भी विकास की राह रोके हुए राज्य सरकारों के लिए नासूर बन चुका है. जिसका स्थायी समाधान समय की मांग है. हमें विश्वास है कि हमारा लोकतंत्र इतना मजबूत हो जायेगा, जिसमें राजनीति की गरिमा भी बची रहेगी और आम जनता का सम्मान भी बच जायेगा. प्रशासन व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन की जरूरत है. राजनीति समाज सेवा की हो, न कि कुरसी पाने के लिए. पार्टियां भ्रष्टाचार पर भाषण देती है और भ्रष्ट को टिकट देती है. यह जनता के गले के नीचे अब नहीं उतर रहा है. अत: साथियों, लोकतंत्र की रक्षा के लिए हम सभी को व्यापक दृष्टिकोण अपनाना होगा, तभी हमारा लोकतंत्र स्थायी व मजबूत रह सकेगा. जय लोकतंत्र, जय गणतंत्र दिवस.

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