।। इंदर सिंह नामधारी।।
मग़रबी तालीम से और कुछ जाता नहीं।
मुज़ाहब कायम रहते हैं सिर्फ इमान जाता है॥
अर्थात पश्चिम की तालीम से मज़हब तो अपनी जगह कायम रहते हैं, लेकिन उनमें से ईमान गायब हो जाता है. कुछ उसी तरह भारत के वर्तमान गणतंत्र में से ‘तंत्र’ तो कायम है, लेकिन उसमें से ‘गण’ ही गायब हो गया है. संविधान निर्माताओं ने जिस आम आदमी को गणतंत्र में मान्यता दी थी, वह लगातार गायब होता चला जा रहा है. यही कारण है कि कल का गणतंत्र दिवस आज के गणतंत्र दिवस से सर्वथा भिन्न हो गया है. प्रतिवर्ष तिरंगा फहराने के बावजूद सत्ताधारियों की जनता के प्रति हमदर्दी लगातार घटती चली जा रही है.
भारत के संविधान में लोकतंत्र को तीन स्तंभ विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका पर खड़ा किया गया है तथा बड़ी सावधानी से इन तीनों स्तंभ में संतुलन बनाये रखने के लिए समुचित व्यवस्था भी की गयी है. स्वतंत्रता के बाद शुरुआती दौर में यह संतुलन काफी हद तक कायम रहा, लेकिन कालांतर में संतुलन इस कदर बिगड़ा कि जिस कार्यपालिका को विधायिका के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए था, वही विधायिका पर भारी पड़ने लगी. आज के गणतंत्र में कार्यपालिका का पलड़ा विधायिका से कहीं भारी है और विधायिका के इस क्षरण ने न्यायपालिका को अतिसक्रिय होने का अवसर प्रदान कर दिया है. यदि विधायिका अपनी गरिमा को बनाये रखती, तो निश्चित रूप से ‘गण’ का पलड़ा ‘तंत्र’ के पलड़े से भारी रहता. लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं सका और कार्यपालिका के सामने जनता की आवाज कहे जाने वाले जनप्रतिनिधि कमजोर होते चले गये.
आज स्थिति ऐसी बन चुकी है कि सरकारी बैठकों में विधायक ही न.करशाहों को ‘हुजूर’ कह कर संबोधित करने लगे हैं. वास्तव में यह एक तरह की खुशामद है, जो विधायिका को हास्यास्पद बना देती है. दिल्ली में नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का अपने मंत्रियों के साथ दिल्ली पुलिस के खिलाफ धरना पर बैठना इसका ज्वलंत उदाहरण है. जिस पुलिस पर निर्वाचित सरकार का नियंत्रण होना चाहिए था, उसी पुलिस के पदाधिकारी मंत्री को सीमा न लांघने की हिदायत दे रहे हैं. यह घटना सिद्ध कर देती है कि भारत का गणतांत्रिक ढांचा किस तरह जजर्र हो चुका है. कार्यपालिका की स्वेच्छाचारिता के कारण भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला और संसद व विधानसभाओं में जाने वाले प्रतिनिधि इस भ्रष्टाचार के बुरी तरह शिकार बन गये.
चुनावों के दौरान कालेधन के अत्यधिक प्रचलन के कारण चुनावी प्रक्रिया बुरी तरह से प्रदूषित हो गयी. जनप्रतिनिधियों में जनसेवा का भाव लगातार घटता चला गया, जिसके कारण संसद या विधानसभा में पहुंचना स्टेटस सिंबल बन कर रह गया है. लोकतंत्र के तीनों स्तंभ खोखले होते चले गये एवं धन कमाने की अंधी दौड़ ने गणतंत्र को जजर्र बना दिया. एक ओर जहां केंद्र की सरकार बड़े-बड़े घोटालों को अंजाम दे रही है, वहीं झारखंड जैसे कई अन्य राज्य भ्रष्टाचार में आकंठ डूब चुके हैं. गिरावट इस हद तक पहुंच चुकी है कि पदाधिकारियों को मुंह मांगी मलाईदार पोस्टिंग पाने के लिए ऊंची डाक लगानी पड़ती है. इस प्रवृत्ति ने पदाधिकारियों की सेवा भावना को कुंठित कर दिया है, क्योंकि वे मलाईदार जगहों पर जाकर निवेश की गई पूंजी को सूद समेत वसूलने की कोशिश करते हैं.
पिछले कुछ दिनों से देश में पुनर्जागरण की बयार बहने लगी है तथा जन साधारण भ्रष्टाचार के खिलाफ बगावती तेवर अपना कर उठ खड़ा हुआ है. वर्ष 2012 में अन्ना हजारे का जनलोकपाल के लिए आंदोलन उसकी शुरुआत थी. वर्ष 2013 के 16 दिसंबर को दिल्ली में एक लड़की के साथ हुए गैंग रेप के बाद हुई उसकी मृत्यु से पहली बार जनता सड़कों पर उतर आयी तथा सरकार को दुष्कर्म के मामलों में कड़े कानून बनाने पर मजबूर होना पड़ा. भ्रष्टाचार की समाप्ति के लिए जन साधारण इतना सक्रिय हो गया कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी के नाम से बनी एक नयी पार्टी ने दिल्ली की गद्दी पर कब्जा जमा लिया. यह सही है कि स्थापित राष्ट्रीय पार्टियां जनता की इस सक्रियता से चौकन्नी हो गयी है तथा सबने एक स्वर से भ्रष्टाचार को समाप्त करने के बयान देने शुरू कर दिये हैं. जनता की सक्रियता के बावजूद जब तक परिणाम धरती पर नहीं उतरते हैं, तब तक ‘गण’ पर ‘तंत्र’ हावी बना रहेगा तथा गणतंत्र की अवधारणा हास्यास्पद बन कर रह जायेगी.
जनता में आयी इस जागृति को स्थायित्व प्रदान करने के लिए गणतंत्र दिवस एक सुनहरा अवसर होता है. इसलिए इस शुभ अवसर पर देश में ऐसा वातावरण बनाया जाना चाहिए, जिसमें भाईचारा बराबरी व संवेदनशीलता कूट-कूट कर भरी हो. जात-पात, धर्माधता एवं धन बल के विरुद्ध एक युद्ध छेड़ने की आवश्यकता है.