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पर्यावरण बचाने की वैश्विक कवायद कम होगा
कार्बन उत्सर्जन दुनियाभर के मौसम में पिछले कुछ दशकों से बदलाव देखा जा रहा है, जिसे ‘क्लाइमेट चेंज’ के तौर पर समझा जा रहा है और इसे ग्लोबल वार्मिंग का नतीजा माना जा रहा है. यह पर्यावरण संबंधी वैश्विक समस्या बन चुकी है, जिससे निबटने को लेकर दुनियाभर के अनेक नेता फ्रांस की राजधानी पेरिस […]
कार्बन उत्सर्जन
दुनियाभर के मौसम में पिछले कुछ दशकों से बदलाव देखा जा रहा है, जिसे ‘क्लाइमेट चेंज’ के तौर पर समझा जा रहा है और इसे ग्लोबल वार्मिंग का नतीजा माना जा रहा है. यह पर्यावरण संबंधी वैश्विक समस्या बन चुकी है, जिससे निबटने को लेकर दुनियाभर के अनेक नेता फ्रांस की राजधानी पेरिस में जुटे. आज के नॉलेज में जानते हैं इस वैश्विक सम्मेलन समेत ग्लोबल वार्मिंग और उसके कारणों से जुड़े अनेक महत्वपूर्ण पहलुओं के बारे में…
– मुकुल श्रीवास्तव
तकनीकी मामलों के जानकार
सं युक्त राष्ट्र की क्लाइमेट चेंज कॉन्फ्रेंस 2015 पेरिस में हो रही है. दुनियाभर के समुद्र तल का स्तर ऊंचा उठ रहा है और इससे जुड़ी चिंताएं ही इस कॉन्फ्रेंस का मुख्य मकसद है.
दरअसल, समुद्र तल का ऊंचा होना इस बात का परिचायक है कि समुद्र में पानी बढ़ रहा है और ग्लेशियर पिघल रहे हैं, जिसका सीधा असर समुद्र तटीय देशों की जमीन पर होगा, जो धीरे-धीरे समुद्र में चली जायेंगी और इसका बड़ा कारण है ग्लोबल वार्मिंग. इस कॉन्फ्रेंस में जुटे दुनियाभर के नेताओं के बीच यह सहमति बन सकती है कि ग्लोबल वार्मिंग को दो डिग्री सेल्सियस के स्तर से कम रखा जाये. इसके अलावा, ग्लोबल वार्मिंग पर हुए दुनियाभर के शोधों पर चर्चा भी की जायेगी. इससे संबंधित प्राप्त आंकड़े कोई आशाजनक तसवीर पेश नहीं करते, जब तक कि दुनिया के सारे देश इस दिशा में सामूहिक प्रयास न करें, जिससे हम यह उम्मीद कर सकें कि आने वाली दुनिया आज से बेहतर होगी. इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले दस सालों में इस वर्ष कार्बन उत्सर्जन में कमी आयी है, जबकि अर्थव्यवस्था बढ़ रही है.
इस दिशा में दुनियाभर के लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए पहली बार वैश्विक स्तर पर वर्ष 1972 में स्टॉकहोम (स्वीडन) में मानवीय पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र का सम्मेलन आयोजित किया गया. इस सम्मेलन की दसवीं वर्षगांठ मनाने के लिए 1982 में नैरोबी (केन्या) में राष्ट्रों का सम्मेलन हुआ, जिसमें पर्यावरण से जुड़ी विभिन्न कार्य योजनाओं का एक घोषणा-पत्र स्वीकृत किया गया.
स्टॉकहोम सम्मेलन की बीसवीं वर्षगांठ पर 1992 में रियो डी जेनेरियो (ब्राजील) में संयुक्त राष्ट्र पृथ्वी शिखर सम्मेलन हुआ था, जिसमें पर्यावरण और विकास के अन्योन्याश्रित संबंध को स्वीकार करते हुए पृथ्वी के पर्यावरण की सुरक्षा के लिए सभी देशों के सामान्य अधिकारों एवं कर्त्तव्यों को सैद्धांतिक रूप से परिभाषित किया गया.
इसी सम्मेलन के दौरान जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के लिए सार्थक प्रयासों हेतु ‘जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन’ (यूएनएफसीसीसी) नामक संधि हस्ताक्षरित की गयी, जिसके तहत जलवायु परिवर्तन पर पहला संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन वर्ष 1995 में बर्लिन (जर्मनी) में हुआ था. तब से अब तक इसके बीस वार्षिक सम्मेलन हो चुके हैं.
पेरिस के हालिया मसौदे को पर्यावरण संरक्षण में एक ऐतिहासिक समझौते के रूप में देखा जा रहा है, क्योंकि इससे वर्ष 2050 तक कार्बन उत्सर्जन में 20 प्रतिशत तक कमी लाने की उम्मीद बढ़ी है. अब इस मसौदे को दिसंबर, 2015 में पेरिस में ‘भिन्न राष्ट्रीय परिस्थितियों के आलोक में साझी लेकिन विभेदीकृत जिम्मेवारियां एवं संबंधित क्षमता के सिद्धांत’ के रूप में प्रस्तुत होना है. बहरहाल लीमा सम्मेलन में दुनिया के 194 देशों ने उत्सर्जन कटौती के राष्ट्रीय संकल्प के इस मसौदे को स्वीकार कर लिया है, जिससे जलवायु परिवर्तन के मुकाबले के लिए एक बाध्यकारी करार पर हस्ताक्षर का रास्ता साफ हो गया है.
यह पहला मौका है, जब कार्बन उत्सर्जन के मामले में अमेरिका को पीछे छोड़ चुके चीन, भारत व ब्राजील सहित अन्य विकासशील देश अपने कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने पर सहमत हुए हैं. स्वीकृत नये मसौदे के तहत संयुक्त राष्ट्र के सदस्य सभी देश 31 मार्च, 2015 तक अपने उत्सर्जन कटौती के लक्ष्य को प्रस्तुत करेंगे.
ग्लोबल वार्मिंग या वैश्विक तापमान बढ़ने का मतलब है कि पृथ्वी लगातार गर्म होती जा रही है. इसका असर दिखने भी लगा है. ग्लेशियर पिघल रहे हैं और रेगिस्तान पसरते जा रहे हैं. कहीं असामान्य बारिश हो रही है, तो कहीं असमय ओले पड़ रहे हैं. कहीं सूखा है, तो कहीं नमी कम नहीं हो रही है. वैज्ञानिक कहते हैं कि इस परिवर्तन के पीछे ग्रीन हाउस गैसों की मुख्य भूमिका है.
ग्लोबल वार्मिंग ग्रीनहाउस प्रभाव
ग्लोबल वार्मिंग ग्रीनहाउस प्रभाव में वृद्धि के कारण होता है. वैसे ग्रीनहाउस प्रभाव अपने-आप में कोई बुरी चीज नहीं है. यह पृथ्वी को जीवन के लायक बनाये रखने के लिये गर्म रखता है. मान लीजिये पृथ्वी आपके कार की तरह है, जो दोपहर के वक्त धूप में पार्किंग में खड़ी है.
आपने गौर किया होगा कि जब आप कार में बैठते हैं, तो कार का तापमान बाहर के तापमान से ज्यादा गर्म होता है. जब सूर्य की किरणें आपकी कार की खिड़कियों से अंदर प्रवेश करती है, तो सूर्य की कुछ गर्मी कार की सीट्स, कारपेट, डेशबोर्ड और फ्लोर मेटस सोख लेते हैं.
जब ये सब चीजें उस सोखी हुई गर्मी को वापस बाहर फेकती हैं, तो सारी गर्मी बाहर नहीं जाती. नतीजन आपकी कार के तापमान में एक क्रमिक वृद्धि हुई. आपकी गर्म कार के मुकाबले ग्रीनहाउस प्रभाव थोड़ा जटिल है. जब सूर्य की किरणें पृथ्वी के वातावरण और सतह से टकराती हैं, तो करीब 70 प्रतिशत ऊर्जा पृथ्वी पर ही रह जाती है, जिसे धरती, समुद्र, पेड़-पौधे तथा अन्य चीजें सोख लेती हैं. बाकी का 30 फीसदी अंतरिक्ष में बादलों, बर्फ के मैदानों व अन्य रिफ्लेक्टिव चीजों की वजह से रिफ्लेक्ट हो जाता है. लेकिन जो 70 फीसदी ऊर्जा पृथ्वी पर रह जाती है, वह हमेशा नहीं रहती (वर्ना अब तक पृथ्वी आग का गोला बन चुकी होती).
पृथ्वी के महासागर और धरती अकसर उस गर्मी को बाहर फेकते रहते हैं, जिसमें से कुछ गर्मी अंतरिक्ष में चली जाती है और शेष यहीं वातावरण में दूसरी चीजों द्वारा सोखने के बाद समाप्त हो जाती है- जैसे कार्बन डाइआॅक्साइड, मीथेन गैस और पानी की भाप. इन सब चीजों के ऊर्जा को सोखने के बाद बाकी ऊर्जा गर्मी के रूप में हमारी पृथ्वी पर मौजूद रहती है. यह गर्मी जो पृथ्वी के वातावरण में मौजूद रहती है, वो बाहर के वातावरण के मुकाबले पृथ्वी को गर्म रखती है, क्योंकि जितनी ऊर्जा वातावरण में प्रवेश कर रही है, उतनी बाहर नहीं जा रही है और ये सब क्रियाएं ग्रीनहाउस प्रभाव का भाग है, जिसके परिणाम में पृथ्वी गर्म रहती है.
ग्लोबल वार्मिंग के कारण
ग्रीनहाउस प्रभाव वातावरण की कुदरती प्रक्रिया है, लेकिन बदकिस्मती से जब से औद्योगिक क्रांति हुई है, इंसान ने बहुत बड़ी मात्रा में हानिकारक गैसों को बड़े पैमाने पर हवा में छोड़ना शुरू कर दिया है. उसके बाद से ग्लोबल वार्मिंग की प्रक्रिया में अनियमितता आ गयी है.
– कार्बन डाइआॅक्साइड : यह एक रंगहीन गैस है, जो कार्बनिक पदार्थ के दोहन से पैदा होती है और ये हमारी पृथ्वी के वातावरण का 0.04 प्रतिशत ही है. पहले ये धरती पर ज्यादातर ज्वालामुखी गतिविधियों से पैदा होती थी, लेकिन आज इसके उत्सर्जन का बड़ा कारण मानवीय गतिविधियों से जुड़ा हुआ है. नतीजन पृथ्वी के वातावरण में कार्बन डाइआॅक्साइड (सीओ2) की मात्रा बहुत तेजी से बढ़ती जा रही है. ग्लोबल वार्मिंग का मुख्य कारण इसकी मात्रा में अत्यधिक वृद्धि होना है, क्योंकि कार्बन डाइआॅक्साइड अवरक्त विकिरण को अवशोषित करता है. पृथ्वी के वातावरण में आनेवाली ऊर्जा इसी रूप में पृथ्वी के वातावरण से बाहर जाती है, तो ज्यादा सीओ2 का मतलब ज्यादा अवशोषण और पृथ्वी के तापमान में वृद्धि.
– नाइट्रोजन आॅक्साइड : नाइट्रोजन आॅक्साइड (सीओ2) एक और महत्वपूर्ण ग्रीनहाउस गैस है. हालांकि, यह गैस सीओ2 के मुकाबले मानव गतिविधियों से कम उत्सर्जित होती है. नाइट्रोजन आॅक्साइड सीओ2 से 270 गुना ज्यादा ऊर्जा सोखती है. इस कारण से ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकने के प्रयास में इस गैस का दूसरा स्थान है.
-मीथेन : यह एक दहनशील गैस है और यह एक प्राकृतिक गैस का मुख्य घटक है. मीथेन वातावरण में कार्बन डाइआॅक्साइड की तरह काम करती है. यह अवरक्त ऊर्जा को अवशोषित करती है और पृथ्वी को गर्म रखती है.
‘आइपीसीसी’ के अनुसार, वर्ष 2005 में वातावरण में मीथेन का हिस्सा प्रति अरब पर करीब 1,774 था. हालांकि, वातावरण में मीथेन की मात्रा कार्बनडाइआक्साइड की तरह ज्यादा नहीं है, लेकिन मीथेन सीओ2 के मुकाबले 20 गुना ज्यादा गर्मी को सोखती है. वैज्ञानिक कहते हैं कि इसके पीछे तेजी से हुआ औद्योगीकरण है. जंगलों का तेजी से कम होना है, पेट्रोलियम पदार्थों के धुएं से होने वाला प्रदूषण है और फ्रिज, एयरकंडीशनर आदि का बढ़ता इस्तेमाल भी इसके प्रमुख कारणों में से हैं.
– कोयले निकालने से.
– पशुओं से यानी उनसे निकलने वाली पाचन गैसों से.
– चावल के खेत में मौजूद खास किस्म के बैक्टिरिया से.
– धरती में कचरे के अपघटन से.
वैज्ञानिक कहते हैं कि इस समय दुनिया का औसत तापमान 15 डिग्री सेंटीग्रेड है और वर्ष 2100 तक इसमें डेढ़ से छह डिग्री तक की वृद्धि हो सकती है. वैज्ञानिकों ने एक चेतावनी यह भी है कि यदि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन तत्काल बहुत कम कर दिया जाये, तो भी तापमान में बढ़ोतरी तत्काल रुकने की संभावना नहीं है. वैज्ञानिकों का कहना है कि पर्यावरण और पानी की बड़ी इकाइयों को इस परिवर्तन के हिसाब से बदलने में भी सैकड़ों साल लग जायेंगे.
ग्लोबल वार्मिंग रोकने के उपाय
वैज्ञानिकों और पर्यावरणवादियों का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग में कमी के लिए मुख्य रूप से सीएफसी गैसों का उत्सर्जन कम रोकना होगा और इसके लिए फ्रिज, एयर कंडीशनर और दूसरे कूलिंग मशीनों का इस्तेमाल कम करना होगा या ऐसी मशीनों का उपयोग करना होगा, जिनसे सीएफसी गैसें कम निकलती हैं.
औद्योगिक इकाइयों की चिमनियों से निकलने वाला धुआं हानिकारक है और इनसे निकलने वाला कार्बन डाइआॅक्साइड गर्मी बढ़ाता है. इन इकाइयों में प्रदूषण रोकने के उपाय करने होंगे. वाहनों में से निकलने वाले धुएं का प्रभाव कम करने के लिए पर्यावरण मानकों का सख्ती से पालन करना होगा.
उद्योगों और खासकर रासायनिक इकाइयों से निकलने वाले कचरे को फिर से उपयोग में लाने लायक बनाने की कोशिश करनी होगी और प्राथमिकता के आधार पर पेड़ों की कटाई रोकनी होगी और जंगलों के संरक्षण पर बल देना होगा. अक्षय ऊर्जा के उपायों पर ध्यान देना होगा यानी अगर कोयले से बननेवाली बिजली के बदले पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा और पनबिजली पर ध्यान दिया जाये, तो आबोहवा को गर्म करने वाली गैसों पर नियंत्रण पाया जा सकता है. याद रहे कि जो कुछ हो रहा है या हो चुका है वैज्ञानिकों के अनुसार उसके लिए मानवीय गतिविधियां ही दोषी हैं.
ग्रीनहाउस आवश्यक क्यों है
पृथ्वी का स्वरूप बगैर ग्रीनहाउस प्रभाव के कैसा होगा? पृथ्वी बिल्कुल मंगल ग्रह की तरह दिखेगी. मंगल ग्रह का अपना पर्याप्त वातावरण नहीं है, जो गर्मी को वापस ग्रह पर रिफ्लेक्ट कर सकें. इस वजह से वहां बहुत ठंड है.
कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि फैक्ट्रियों को वहां भेज दिया जाये, तो हम मंगल ग्रह के वातावरण में बदलाव ला सकते हैं. इससे वहां पर कार्बन डाइआॅक्साइड और पानी की भाप हवा में मिल जायेगी और जैसे-जैसे इन दोनों चीजों की मात्रा बढ़ेगी, वहां का वातावरण मजबूत और मोटा होने लगेगा. इससे वहां पर गर्मी पैदा होगी और पेड़-पौधों के फलने लायक वातावरण तैयार हो सकता है.
अगर एक बार पौधे मंगल ग्रह की धरती पर फैल गये, तो वहां आॅक्सीजन का निर्माण होने लगेगा. इससे सौ या हजार साल बाद ऐसा वातावरण तैयार हो जायेगा, ताकि मनुष्य वहां पर चहलकदमी कर सकें. बहरहाल ये सब परिकल्पनाएं हैं और हमारी धरती इसी ग्रीन हाउस प्रभाव के कारण फल-फूल रही है.
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