।। सुबीर बनर्जी।।
(वरिष्ठ तांत्रिक, तारापीठ)
-साधक तंत्र या तारा साधना के माध्यम से हासिल करता है सिद्धि
वर्तमान में तंत्र साधना को साधारणत: काम-योग, काला-जादू, जादू-टोना, डायन-शक्ति व वशीकरण की शक्ति के रूप में इस्तेमाल के लिए जाना जाता है और तांत्रिकों के संबंध में जनमानस में गलत धारणा है. भक्ति, राजयोग व साधना की तरह ही तंत्र साधना भी ईश्वरीय, आध्यात्मिक के साथ-साथ चमत्कारिक शक्ति हासिल करने का एक मार्ग है. साधक तंत्र साधना या तारा साधना के माध्यम से सिद्धि हासिल करता है. तांत्रिक तंत्र साधना में देवत्व योग, संकेत, गुप्त, स्मरण, मृत्यु योग व काम योग का अनुसरण करते हैं. साधना के समय गुरु का आशीर्वाद व उपस्थिति बहुत महत्वपूर्ण है.
तंत्र का अभ्यास करनेवाले या तांत्रिक को उनके चमत्कारिक शक्तियों के लिए जाना जाता है, जो उन्हें तंत्र के ज्ञान और लगातार साधना से सिद्धि के रूप में प्राप्त होती है. इन शक्तियों का इस्तेमाल किसी के लाभ या हानि पहुंचाने के लिए किया जा सकता है. तंत्र शास्त्र का एक महत्वपूर्ण पहलू यंत्र है. यंत्र के त्रिकोणमितीय आकृतियां होती हैं, जो साधक को ध्यान, चिंतन व एकाग्रता में मदद करता है. साधक तंत्र साधना के लिए देश के प्रमुख 10 तंत्र मंदिरों में कामाख्या (असम), कालीघाट (पश्चिम बंगाल), बैताल मंदिर (भुवनेश्वर), एकलिंग (राजस्थान), खजुराहो (मध्यप्रदेश), ज्वालामुखी मंदिर (हिमाचल प्रदेश), बैजनाथ (हिमाचल प्रदेश), तारापीठ (पश्चिम बंगाल), बक्रेश्वर (बीरभूम, सूरी के निकट) व कंकाली पीठ (बोलपुर बीरभूम के निकट) आदि को सिद्ध स्थल के रूप में चयन करते हैं. इन्हें शक्ति पीठ के नाम से जाना जाता है.
तंत्र साधना के लिए कई तंत्र व साधना का आश्रय लेना होता है. इनमें छोटी व बड़ी साधनाएं भी होती हैं. लेकिन ये सभी तंत्र साधना के ही भाग हैं व क्रिया योग भी तंत्र से ही संबंधित हैं. तंत्र विद्या को चार भागों में बांटा गया है : क्रिया तंत्र, चार्य तंत्र, योग तंत्र व अंतरयोगा तंत्र. तंत्र मूलत: भारत में ऋषियों व ब्राrाणों की दिनचर्या पर आधारित था. इसमें मुख्यत: क्रियाकलापों की शुद्धता, दैनिक जीवन की शुद्धता व सभी चीजों की पवित्रता पर जोर दिया गया है.
तारा साधना पूरे दिन में किसी भी समय की जा सकती है. इसमें पवित्रता पर विशेष जोर दिया गया है. इसलिए यदि कोई भी तारा तंत्र साधना के आध्यात्मिक मार्ग पर चलता है, तो साधना के नियमों का पालन जरूरी है, इसके लिए प्रेरणा, प्रतिबद्धता व साहस काफी मजबूत होना बहुत ही जरूरी है.
नकारात्मक सोच के साथ साधना से साधक क्रमश: और नकारात्मक सोच के व्यक्ति में परिणत हो जाता है, लेकिन तारा के नियमों के अनुसार अगर हम सकारात्मक गुणों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो वे सकारात्मक गुण हमारे भीतर प्रस्फुटित होने लगते हैं. ‘तारा शक्ति का तात्पर्य त्वरित क्रिया के विचार व निडरता से है, जो एक प्रबुद्ध मस्तिष्क के गुण हैं. वज्रयान परंपरा तंत्र का आधार है. तारा तंत्र से प्राप्त के लाभ के बारे में टिप्पणी करना सरल नहीं है. तारा के गुणों को आत्मसात करने के लिए जरूरी है कि लंबे समय तक मां तारा की साधना की जाये. उनकी स्तुति की जाये. मां तारा के मंत्रों के उच्चरण उनके भव्य रूप का ध्यान में तल्लीन होना. तंत्र साधना में क्रमश: तारा के गुणों को आत्मसात करना, साधना व मंत्रोच्चर से उन्हें अपने जीवन में क्रमश: उतारना व आत्मसात करना शामिल है. दीर्घ तंत्र साधना के बाद सिद्धि प्राप्त होती है. साधक सिद्धि प्राप्ति के लिए पंचमकार साधना: मत्स्य, मद्य, मांस, मुद्रा व मैथुन का आश्रय लेते हैं. साधारणत: अघोरी इन माध्यमों से सिद्धि प्राप्त करते हैं.
तिब्बत की वज्रयान बौद्ध में 15 मुख्य साधनाएं व अन्य कई हैं : 1. सुरंगमा, 2. सितापत्र, 3. नीलकंठ, 4. तारा, 5. महाकाल, 6. हयग्रीव, 7. अमिताभ, 8. अमितयास, 9. भैषज्यगुरु, 10. अकशोभ्या, 11. गुह्यसमाज, 12. वज्रयोगिनी, 13. वज्रवराही, 14. हेरूका, 15. चक्रसंवरा 16. यमनतका, 17. वज्रभैरव, 18. होवज्र, 19. चोड़, 20. वज्रपाणि, 21 कालचक्र जैसी अन्य साधनाएं भी हैं.
तारापीठ को साधक बामाखेपा (1837-1911) के नाम से जाना जाता है. श्री रामकृष्ण परमहंस के समकालीन बामाखेपा को पागल संत के रूप में भी जाना जाता है. वह एक हिंदू संत थे. वह वामांग (भगवान का बायां अंग, यहां मां तारा से मतलब है) तंत्र पथ के साधक थे. मां तारा के अनन्य भक्त बामाखेपा, मंदिर के पास ही रहते थे व श्मशान में साधना किया करते थे. युवावस्था में ही उन्होंने अपना घर-बार छोड़ दिया व तारापीठ में रहने वाले एक संत कैलाशपति बाबा की शरण में चले गये. वहां बामाखेपा ने योग व तंत्र साधना का अभ्यास कर सिद्धि हासिल की और तारापीठ के प्रमुख बन गये. लोग उनके पास आशीर्वाद लेने व बीमारियों को दूर करने के लिए आने लगे, लेकिन वह मंदिर के निर्धारित नियमों को नहीं मानते थे. देवी मूर्ति को चढ़ाने के लिए रखे गये भोजन को खाने के कारण उन्हें मंदिर के पुजारी का कोपभाजन बनना पड़ा था. ऐसा कहा जाता है कि नातोर की महारानी के स्वपन में मां तारा ने आकर संत (बामाखेपा) को पहले भोजन कराने के लिए कहा चूंकि वह माता के पुत्र थे. इस घटना के बाद बामाखेपा को मंदिर में देवी मूर्ति को प्रसाद चढ़ाने से पहले ही भोजन कराया जाने लगा व किसी ने इसका विरोध नहीं किया. ऐसा विश्वास किया जाता है कि श्मशान में मां तारा ने उन्हें अपने उग्र रूप का दर्शन दिया व उन्हें स्तनपान कराया. बामाखेपा का अनुसरण करते हुए तंत्र साधना के लिए कई तांत्रिक व अघोरी तारापीठ आते हैं.
(प्रस्तुति : रवि शंकर पांडेय)