-हरिवंश-
बस से उतरते ही अखबार पर नजर पड़ी, ‘मधु लिमये नहीं रहे’! इस सर्द ठंड में भी पसीने से भींग गया. ‘मधुजी’ का पार्थिव निधन हुआ. पर मेरे जैसे हजारों लोगों का एक ‘निजी संसार’ गुजर गया. नहीं, बल्कि मर गया. वह संसार, जिसे मधु लिमये जैसे लोगों ने दिखाया. स्वाध्याय, चरित्र, प्रखरता और नैतिक बल की आभा से दीप्त संसार. नेतृत्व की उस परंपरा को समृद्ध करनेवालों का संसार, जिनके लिए उनके सहयोगी-साथी और कॉमरेड ही परिवार थे. वह संसार! जिसमें संसदीय राजनीति के शिखर पर पहुंच कर भी एक ऋषि तुल्य जीवन, एक कमरे के सरकारी आवास में कट गया.
वह संसार जहां एक कमरे के घर में प्रधानमंत्री से लेकर अनेक मुख्यमंत्री और ढेर सारे राजनेता अपनी उलझन दूर करने आते थे, और मधुजी साफ-साफ खरी बातें सुनाते थे. प्रिय-अप्रिय एक समान, वह संसार, जहां कथनी-करनी में साम्य था. सक्रिय राजनीति छोड़ी, तो फिर संसद में नहीं लौटे, राज्यसभा में भेजने के कई गंभीर प्रस्ताव आये. पर मधुजी के लिए कभी ‘पीछे का दरवाजा’ स्वीकार्य नहीं रहा और चुनाव लड़ने की राजनीति 1982 में उन्होंने त्याग दी थी.
फिर भी देश-दुनिया के कोने-कोने से लोग आते रहे. 1982 के बाद का पूरा जीवन उन्होंने लेखन में लगा दिया. सामयिक भारतीय राजनीति, आजादी की लड़ाई और उस दौर के नेताओं की वैचारिक दुनिया का इतना बेबाक और साफ विश्लेषण किसी दूसरे ने नहीं किया है. इन विषयों पर अनेक मशहूर और चर्चित पुस्तकें उन्होंने लिखीं. पर यह सब तो बहुत बाद की बातें हैं.
1974 में छात्र आंदोलन पसर रहा था. मधु लिमये को बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के छात्रों ने न्योता था. बिहार आंदोलन और देश की समसामयिक बातें सुनने के लिए. 1972 के उपचुनाव में वह जीते थे. लोकसभा में दो-तिहाई बहुमत पाकर भी इंदिरा जी की सरकार एक सांसद मधु लिमये का सामना करने के लिए तैयार नहीं थीं. तुलमोहन राम प्रकरण! मारुति उद्योग, ललित नारायण मिश्र प्रकरण (जो आज के मुकाबले मामूली मुद्दे कहे जा सकते हैं) जैसे अनेक मामले उठा कर अकेले मधु लिमये ने कांग्रेस की नैतिक साख खत्म कर दी थी.
इंदिरा जी अपने कांग्रेस सांसदों को निजी बातचीत में सलाह दे दी थी कि मधु लिमये से सीखिये! 1964 से 1982 के बीच जब-जब वह लोकसभा में रहे सरकार या सत्तारूढ़ दल उनके सामने असहाय दीखता रहा. दुनिया के संसदीय नियमों का इतना प्रखर जानकार उस दौर में कोई नहीं था. उनके सामने लोकसभाध्यक्ष भी विवश महसूस करते थे. उस दौर में ब्रेजनेव हिंदुस्तान आये, तो मधु लिमये से अकेलेआधे घंटेतक बातचीत की.
उस मधु लिमये को काशी के छात्रों ने बुलाया था. भारी भीड़ थी. इंजीनियरिंग, मेडिकल, लॉ वगैरह के प्रतिभाशाली छात्र, कक्षाएं छोड़ कर आये थे. विश्वविद्यालय के अनेक प्रखर प्राध्यापक थे. मधुजी दो घंटे बोले, वह भागलपुर जेल से आ रहे थे. कैदियों से मिलकर. वहां की कुछ ‘रोटियां’ लाये थे. लोकसभा में दिखाने के लिए ले जा रहे थे. उन्हें दिखा कर, उन्होंने राजसत्ता के पतन का जो ब्योरा दिया, उससे उत्तरप्रदेश में आंदोलन की नींव पड़ी.
सभा के बाद गेस्ट हाउस में लगभग दस छात्रों के साथ वह जमीन पर बैठे. न कोई सुरक्षा गॉर्ड और न कोई सहायक. एक छोटा साधारण बैग, जिसमें 2-3 कुरते-पायजामे. कुछ किताबें और भागलपुर जेल की रोटियां, यही उनकी थाती थी. उस छोटी बैठक में दर तक चर्चा हुई. पर कभी किसी पर निजी आक्षेप नहीं. कुछ ही वर्षों बाद बंबई में 1977 में मेरी उनसे दूसरी मुलाकात हुई. अनेक दिग्गज-संपादक, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता थे. मधु लिमये जनता पार्टी में बड़े ओहदे पर थे. पर महाराष्ट्र की परंपरा पर पले-बढ़े. वह पहले हिंदी में बोले, फिर मराठी में.
बहुत वर्षों बाद वह 1987-88 में कलकत्ता आये. ‘टेलिग्राफ’ के चर्चित परिसंवाद में भाग लेने के लिए. बड़े-बड़े दिग्गज आये थे. नेताजी सुभाष इंडोर स्टेडियम में भारी भीड़ थी. बड़े वक्ताओं ने अंग्रेजी में व्याख्यान दिये. जब मधुजी खड़े हुए, तो हिंदी में बोले और सबसे अधिक सराहा गया उनका ही भाषण. वह मराठी भाषी थे. पर अपने एकमात्र लड़के अनिरुद्ध लिमये को उन्होंने मराठी और हिंदी माध्यम से पढ़ाया. संसद में उन्होंने हिंदी में बहसें की. अंगरेजी के बड़े पत्रकारों को संसद में उनकी बातें समझने के लिए हिंदी सीखनी पड़ी. उनके पीछे बड़े पत्रकार-संपादक भागते थे, खबरों के लिए.
पर वह आत्मप्रचार से हमेशा दूर रहे. 1991 में दिल्ली में उनके निवास पर हिंदी की चर्चा छिड़ी, तो उन्होंने कहा, ‘तुम लोग! हिंदी की सिर्फ बातें करते हो. क्यों महाराष्ट्र में मराठी, असम में असमिया, केरल में मलयालम, तमिलनाडु में तमिल या आंध्र में तेलुगु की तरह हिंदी राज्यों में हिंदी प्रतिष्ठित नहीं है? क्यों हिंदी में गंभीर किताबें नहीं बिक रहीं? हिंदी इलाके के लोग थोड़ा पैसा आते ही अंग्रेजीयत क्यों पहनते-ओढ़ते हैं? क्या इस सांस्कृतिक दरिद्रता के बारे में हिंदी के लोग नहीं सोचेंगे?’
निजी जीवन में बिल्कुल निस्पृह! ‘टेलिग्राफ’ परिसंवाद में कलकत्ता आते ही बुलाया. वह ‘टेलिग्राफ’ के सम्मानित अतिथि थे. कहा, बंगला के बड़े लेखकों-कवियों को बुलाओ, उनसे बातें करेंगे. एमजे अकबर उनका बड़ा सम्मान करते थे. वह ‘टेलिग्राफ’ ‘संडे’ और ‘रविवार’ में नियमित कॉलम लिखते थे. वही उनकी आजीविका का साधन था. आजादी की लड़ाई में वह रहे थे. गोवा मुक्ति संघर्ष में तो उनकी मौत की खबर आयी थी. पर वह कोई सरकारी पेंशन नहीं लेते थे. शास्त्रीय संगीत के अद्भुत पारखी और प्रेमी थे. सोनल मानसिंह कई जगहों पर उनकी उपस्थिति में ही कार्यक्रम प्रस्तुत करती थीं.
मैंने कलकत्ते की उस मुलाकात और बाद में दिल्ली में कई बार अनुरोध किया कि वह ‘आत्मकथा’ लिखें. उनकी एक आंख की रोशनी चली गयी थी. दमा के वह मरीज थे. इसी कारण डॉक्टरों ने उन्हें दिल्ली की जलवायु में रहने के लिए कहा था. इस उम्र में वह खुद चाय बनाते और पिलाते थे. बिल्कुल अपरिग्रह का जीवन! ‘जस की तस धर दीन्हीं चदरिया’. ‘आत्मकथा’ के आग्रह पर उन्होंने कहा, तुम लोग एक टाइपिस्ट का प्रबंध कर दो, तो कोशिश करूं. इतना बड़ा व्यक्ति! पर ऐसे साधनहीन, लोकसभा लाइब्रेरी या नेहरू लाइब्रेरी वह नियमित जाते थे, जो उन्हें जानते थे. रास्ता छोड़ कर निहारते थे. गौर वर्ण दीप्त चेहरा, भारी आवाज और अद्भुत विद्वता!
वह ‘संसार’, जो उन्होंने हमारे जैसे हजारों लोगों को दिखाया, अब नहीं रहा. बेंजामिन, फ्रेंकलिन ने कहा था कि एक नौजवान के जीवन में सबसे अंधकार की घड़ी तब आती है, जब वह बिना परिश्रम किये सब कुछ पा लेना चाहता है. यह वही दौर है और अंधकार की घड़ी भी. कॉरपोरेट पालिटिक्स के इस दौर में लोग उन नेताओं और उनकी राजनीतिक संस्कृति को नहीं जानेंगे, जिन्होंने सफलता के शिखर छूकर भी अपने पीछे थाती छोड़ी, दो कुरते-दो पायजामे की. जिस स्नेह, त्याग, आत्मीय बंधन और समर्पण का संसार उस पीढ़ी ने छोड़ा, उसे अपराध, ड्रग, सत्ता दुरुपयोग और किसी कीमत पर आर्थिक सफलता पाने के लिए उद्यत 21वीं शताब्दी की पीढ़ी कैसे समझेगी?वह ‘प्रभात खबर’ में अक्सर लिखते थे. सुझाव देते थे और अतीत का दरस-परस कराते थे. उनकी स्मृति को प्रणाम.