दिल्ली का शाहीन बाग़ इन दिनों नागरिकता संशोधन क़ानून और एनआरसी के ख़िलाफ़ हो रहे विरोध प्रदर्शनों के लिए देश भर में चर्चा के केंद्र में है. शाहीन बाग़ की ही तरह अब चर्चा में पटना का सब्ज़ीबाग़ भी शामिल हो गया है.
एक तो शाहीन बाग़ की ही तरह इस जगह के नाम के आखिर में बाग़ आता है और फिर शाहीन बाग़ की ही तरह यहां महिलाएं भी बड़ी संख्या में पुरुषों के साथ दिन-रात बैठकर धरना दे रही हैं. भारी ठंड के बावजूद सैकड़ों महिलाएं यहां 12 जनवरी से सड़क पर बैठी हैं.
इसीलिए सब्ज़ीबाग़ को इन दिनों बिहार का शाहीन बाग़ कहा जा रहा है.
जिस तरह शाहीन बाग़ के विरोध प्रदर्शन को राजनीतिक हस्तियों, फ़िल्म और साहित्य जगत से जुड़े लोगों और अन्य चर्चित चेहरों का साथ मिल रहा है, उसी तरह पटना के सब्ज़ीबाग़ में चल रहे विरोध प्रदर्शन में कन्हैया कुमार, शिवानंद तिवारी, तेज प्रताप यादव और मशहूर शायर इमरान प्रतापगढ़ी जैसी शख़्सियतें शिरकत कर चुकी हैं. सोशल मीडिया पर भी यहां के विरोध प्रदर्शन की चर्चा है.
वैसे, पटना का सब्ज़ीबाग़ और यहां चला रहा विरोध प्रदर्शन महज इन कारणों से ही ख़ास नहीं है. ये इसलिए भी ख़ास है क्योंकि सब्ज़ीबाग़ के इतिहास में पहली बार मुसलमान महिलाएं घर से निकलकर सड़क पर बैठी हैं.
पटना का ‘सांस्कृतिक केंद्र’
पटना के उर्दू दैनिक ‘इंक़लाब’ के संपादक अहमद जावेद कहते हैं, "20वीं शताब्दी की शुरुआत तक जब बांकीपुर पटना डिविज़न का प्रशासनिक केंद्र हुआ करता था, तब तक इस इलाके में सब्ज़ियों का बाज़ार लगा करता था. शायद इसलिए इलाके का नाम भी सब्ज़ीबाग़ पड़ गया."
सब्ज़ीबाग़ का इतिहास इससे भी पुराना है क्योंकि यह ऐतिहासिक अशोक राजपथ के किनारे बसा एक मोहल्ला है. अशोक राजपथ वो सड़क है जिसके बारे में कहा जाता है कि यह दुनिया की सबसे पुरानी सड़कों में से एक है.
मेगस्थनीज की किताब ‘इंडिका’ जिसमें मौर्य युग के भारत का वर्णन है, के अनुसार, गंगा के किनारे से गुज़रने वाली यह तब की राजधानी पाटलिपुत्र की वो सड़क थी जिससे होकर सम्राट नदी के घाट पर जाया करते थे. यह हमेशा से पटना की सबसे व्यस्त सड़क रही है.
वर्तमान समय में सब्ज़ीबाग़ एक बड़ा और घनी बस्ती वाला मोहल्ला बन गया है. इसके बीच से एक जो सड़क गुज़रती है, उसके एक ओर अशोक राजपथ है और दूसरी तरफ़ बारी पथ. मुस्लिम बहुत इस इलाक़े में अब केवल सब्ज़ी का ही बाज़ार नहीं लगता, बल्कि हर तरह की दुकानें हैं.
अहमद जावेद कहते हैं, "बीते दिनों में सब्ज़ीबाग़ पटना का सांस्कृतिक केंद्र बन गया है. यहां रिहल (वो लकड़ी की तख़्ती जिसपर रखकर धार्मिक ग्रंथ पढ़े जाते हैं) से लेकर लोहबान (धार्मिक कार्यों के दौरान सुगंध पैदा करने के लिए जलाया जाने वाला पदार्थ) तक सबकुछ मिलता है. हर तरह के धार्मिक ग्रंथ यहां की दुकानों पर बिकते हैं. शादी का सारा सामान यहां मिल जाएगा. त्योहारों के दौरान हिन्दू देवी-देवताओं को पहनाए जाने वाले वस्त्र भी यहीं से पूरे शहर में जाते हैं, फिर चाहे वह सरस्वती पूजा हो, छठ पूजा, विश्वकर्मा पूजा या दुर्गा पूजा."
इसी सब्ज़ीबाग़ में बीच सड़क पर शामियाना लगाकर 24 घंटे सैकड़ों की संख्या में पुरुष और महिलाएं पिछले हफ़्ते भर से धरने पर बैठे हैं. राष्ट्रीय मीडिया में यह प्रदर्शन सुर्खियां बटोर रहा है.
बड़ी संख्या में जुट रही हैं महिलाएं
गुरुवार की दोपहर की जब हम सब्ज़ीबाग़ में चल रहे विरोध प्रदर्शन में पहुंचे तब आश्चर्य हुआ कि प्रदर्शन में शामिल पुरुषों से अधिक संख्या महिलाओं की थी. हर उम्र और हर वर्ग की महिलाएं वहां मौजूद थीं. किसी ने हिजाब पहन रखा था, किसी ने बुरका और कइयों के चेहरे खुले थे. कई महिलाएं गोद में बच्चों को भी लेकर आई थीं.
यहां आधी सड़क राहगीरों और गाड़ियों के आने-जाने के लिए छोड़ दी गई है और आधे को बांस से घेरकर कुर्सियां लगायी गई हैं. आयोजक और वॉलंटियर्स इस बात को लेकर ख़ासे सचेत दिखते हैं कि सड़क पर आवाजाही न रुके. इसलिए वो घेरे के बाहरी किनारे पर किसी को खड़ा नहीं होने देते हैं.
प्रदर्शन स्थल को नारे लिखे प्लैकार्ड, बैनर और पोस्टरों से सजाया गया है जिनमें सीएए को वापस लेने की अपीलें और सरकार विरोधी नारे लिखे हैं.
प्रदर्शन और बाज़ार यहां एकसाथ चल रहे हैं. सभी दुकानें खुली हुई हैं. दुकानों पर ग्राहक भी दिख रहे थे. पैदल आ-जा रहे लोग प्रदर्शन स्थल से गुजरते हुए ख़ुद ही ठहर जा रहे थे. वो एक नज़र पूरे दृश्य को निहारते, तभी कोई कहता, "बढ़ते रहिए, नहीं तो घेरे के अंदर आ जाइए." जिसे जाना होता था वो आगे बढ़ जाता. जो रुकना चाहता था वो घेरे के अंदर आकर बैठ जाता.
क्या कहती हैं प्रदर्शनकारी महिलाएं
किशनगंज की रहने वालीं वालिया ख़ातून अपने बच्चे को गोद में लिए वहां से गुज़र रही थीं. थोड़ी देर बाहर खड़ी होकर प्रदर्शन देखती हैं, फिर घेरे के अंदर जाकर बच्चे के साथ बैठ गईं.
कहती हैं, "सब्ज़ीबाग़ में अपने एक रिश्तेदार के यहां आयी हूं. बाजार निकली थी. देखा कि यहां इस काले कानून के ख़िलाफ़ प्रदर्शन हो रहा है. सारी महिलाएं ही बैठी हैं. छोटे-छोटे बच्चे आज़ादी के नारे लगा रहे हैं. अच्छा लगा देखकर तो सोचा कि मुझे भी इसका हिस्सा होना चाहिए. इसलिए यहां बैठी हूं."
क्या वो इसके पहले भी किसी विरोध प्रदर्शन या धरना प्रदर्शन में शामिल हुई हैं?
इसके जवाब में वालिया कहती हैं, "जिस जगह पर मैं रहती हूं वहां हम औरतों को सड़क पर उतरने ही कहां दिया जाता है. घर-परिवार से ही फ़ुर्सत नहीं मिल पाती. यहां मेरे पास मौका था."
वालिया का बच्चा रोने लगता है तो वे उसे बिस्किट खिलाती हैं जो आयोजकों की तरफ़ से दिए गए थे.
अधेड़ नज़मा खातून यहां हर रोज़ प्रदर्शन में शामिल होती हैं. उनका घर सब्ज़ीबाग़ में ही है.
वो बताती हैं, "जब तक घर से कोई बुलाने या लेने के लिए नहीं आ जाता तब तक यहीं रहती हूं. घरवाले परेशान रहते हैं कि तबीयत ख़राब हो जाएगी. लेकिन यहां बैठी महिलाओं को देखती हूं तो जाने का मन नहीं करता. मैंने इसी सब्ज़ीबाग़ में अपनी ज़िंदगी गुज़ार दी लेकिन अपने मोहल्ले की औरतों का यह रूप कभी नहीं देखा था. मुझसे अधिक उम्र की महिलाएं भी यहां हैं."
नागरिकता संशोधन अधिनियम और एनसीआर का विरोध क्यों कर रही हैं?
इस पर नज़मा कहती हैं, "क्योंकि यह बेवजह का क़ानून है. जिसकी कोई ज़रूरत ही नहीं थी. मैंने सुना है इसमें हज़ारों करोड़ रुपये खर्च होंगे. देश में अभी इतनी समस्याएं हैं कि अगर उन पैसों का इस्तेमाल वहां हो तो देश कुछ तरक्की करेगा. ये सरकार जानती है कि तरक्कीमंद देश पर लंबे समय तक राज करना संभव नहीं है, इसलिए देश को लोगों को बांटने का काम कर रही है."
बुज़ुर्ग भी शामिल
धरने में सबसे आगे बैठीं 80 साल की अज़रा खातून भी थीं. उनके साथ बैठी महिलाएं बता रही थीं कि वे भी रोज़ दिन में प्रदर्शन में शामिल होती हैं. देर शाम तक टिकी रहती हैं.
अजरा ख़ातून अपनी लड़खड़ाती ज़ुबान में कहती हैं, "हमको एनआरसी नहीं चाहिए. इसलिए नहीं चाहिए क्योंकि हम आज़ादी के 10 साल पहले इस देश में पैदा हुए. मेरे बाप-दादा ने इसी सब्ज़ीबाग़ में रहना चाहा. इसे आबाद किया और ये अब हमी से हमारी पहचान मांग रहे हैं. जिस तरह मेरे पुरखों ने हिन्दुस्तान को चुना, उसी तरह मैं भी अपने बच्चों को हिन्दुस्तान में रहते देखना चाहती हूं. इसी सब्ज़ीबाग़ में देखना चाहती हूं."
धीरे-धीरे शाम हो रही थी. सूरज डूब रहा था. प्रदर्शन का शोर बढ़ने लगा. सड़क पर लोगों की लंबी कतारें लगने लगीं. महौल में गर्मजोशी थी. बाज़ार में भी चहल-पहल दिन के मुक़ाबले काफ़ी बढ़ गई थी.
क्या सात दिनों से हो रहे इस लगातार प्रदर्शन से सब्ज़ीबाग़ के दुकानदारों को कई नुकसान नहीं हो रहा है?
प्रदर्शन स्थल के मंच से सटे एक कपड़े के दुकान पर बैठे नाज़िश कहते हैं, "वैसे तो कई असर नहीं है. जितनी बिक्री आम दिनों में होती है, उतनी ही अभी भी है. और अगर नुक़सान होगा भी तो हमलोग सहने के लिए तैयार होंगे. क्योंकि हम जानते हैं कि अगर अभी का नुक़सान सह लिए तो आगे होने वाले उससे भी बड़े नुक़सान से बच जाएंगे. अपनी ज़मीन को बचाने में कामयाब हो जाएंगे. ये हमारे अस्तित्व की लड़ाई भी है."
सब्ज़ीबाग़ चौक स्थित एक बहुत पुराने दुकान मुरली मनोहर स्टोर के मालिक उमेश कुमार कहते हैं, "प्रोटेस्ट अपने तरीके से चल रहा है, बाज़ार अपने तरीके से. सबसे अच्छी बात है कि रास्ता ब्लॉक नहीं होता. मैनेजमेंट अच्छा है."
ऐसा प्रदर्शन पहली बार
क्या सब्ज़ीबाग़ इससे पहले भी किसी विरोध प्रदर्शन का गवाह रहा है? वर्षों से वहां यूनानी दवाखाना चलाने वाले अरमान कहते हैं, "छोटे-मोटे प्रदर्शन तो हमेशा होते रहते हैं. मगर महिलाएं पहली बार बाहर आई हैं. 1974 के जेपी आंदोलन के समय भी सब्ज़ीबाग़ आंदोलन का अड्डा हुआ करता था. लालू से लेकर नीतीश तक कई बार यहां से प्रोटेस्ट मार्च निकाल चुके हैं. चूंकि यह इलाका पटना यूनिवर्सिटी से एकदम सटा है."
जैसे-जैसे शाम ढल रही थी, भीड़ बढ़ती जा रही थी. कभी-कभी रास्ता थोड़ी देर के लिए बंद भी हो जाया करता था. फिर आयोजकों की काफ़ी मशक्क़त के बाद चालू हो पाता.
आयोजकों में से एक आसिफ़ कहते हैं, "हमारी कोशिश यही रहती है कि जबतक बाज़ार खुले तबतक रास्ता चालू रहे. सब्ज़ीबाग़ की पहचान यहां का बाज़ार ही है. रात में जिस वक़्त भीड़ बढ़ती है तब दुकानें भी बंद हो जाती हैं. बगल में ही एक मंदिर भी है, हमें वहां का भी ख़्याल रखना पड़ता है. जो भी वॉलंटियर्स हैं, वो यहीं के लड़के हैं. यह विरोध प्रदर्शन किसी पार्टी या पक्ष का नहीं है. सब अपने आप हो रहा है."
आयोजकों से आख़िर में पूछा, यहां के प्रोटेस्ट में सबसे ख़ास क्या है? उन्होंने जवाब दिया, "हमारे यहां कोई मौलवी नहीं है."
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