पुष्पेश पंत
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जलपान में कचौरी का आनंद
पुष्पेश पंत बारिश के मौसम में पकौड़ों-समोसों को खाते-खाते जब जीभ कुछ और खाने को मचलती है, तब हमें कचौरियां याद आने लगती हैं. हालांकि, अब बारिश का मौसम जाने को है, लेकिन कचौरियों को खाने का कोई मौसम थोड़ी होता है. पूरी की जुड़वां बहन कचौरी उसी की तरह पकवान है, जो घी या […]
बारिश के मौसम में पकौड़ों-समोसों को खाते-खाते जब जीभ कुछ और खाने को मचलती है, तब हमें कचौरियां याद आने लगती हैं. हालांकि, अब बारिश का मौसम जाने को है, लेकिन कचौरियों को खाने का कोई मौसम थोड़ी होता है. पूरी की जुड़वां बहन कचौरी उसी की तरह पकवान है, जो घी या तेल में छानी (तली) जाती है और आम तौर पर किसी पर्व पर विशेष व्यंजन के रूप में पकायी जाती है. अधिकांश लोग इसे मुख्य भोजन का अंग मानते हैं परंतु ऐसे शौकीन कम नहीं जो नाश्ते, अल्पाहार या जलपान के समय भी इनका आनंद लेते हैं.
जिस तरह आटे की पूरी और मैदे की बंगाली लूची का फर्क समझना महत्वपूर्ण है, वैसे ही पूरी तथा कचौरी की दिशा में जा रही बेडवी और कचौरी का बारीक अंतर ध्यान में रखना जरूरी है. फूल कर कुप्पा बेडवी जब कड़ाही से निकल कर तश्तरी तक पहुंचती है, तो बारीक पीसी हुई दाल की परत भी आटे के पेड़े की भांति बेले जाने के बाद अदृश्य हो जाती है. सूखी या तरी वाली सब्जी या मेथी की चटनी के साथ इसके निवाले मुख में जब पहुंचते हैं, तो इसकी उपस्थिति कम लोग महसूस कर सकते हैं.
भरवां कचौरियां कई रूप में प्रकट होती हैं. बंगाल में ‘राधा बल्लभी’ बेडवी की याद दिलाती है, तो मीठी हरी मटर वाली ‘मटरशुटी कचुरी’ अनूठी लगती है. अंग्रेजी राज में कोलकाता में ही छोटी पोटली की शक्लवाली कचौरियों का जन्म हुआ, जो उस शहर में ‘क्लब कचौरी’ कहलाती हैं और अन्यत्र ‘कौकटेल कचौरी’ नाम से मशहूर हैं.
राजस्थान में प्याज, आलू और मावे की कचौरियां लोकप्रिय हैं. लगभग डेढ़ सौ साल से बंगाल में मारवाड़ी समुदाय आर्थिक जीवन में खास भूमिका निभाता रहा है. यह सुझाना तर्कसंगत लगता है कि कचौरियों का चस्का उन्हीं ने बंगाली मोशायों को लगाया था.
जयपुर में रावत की कचौरियां प्रसिद्ध हैं, तो जोधपुर वालों का दावा है कि यह स्वादिष्ट सौगात उन्हीं की देन है. राजस्थान की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा शाकाहारी है. जैन तथा वैश्य समुदाय के अनेक सदस्य लहसुन-प्याज का प्रयोग नहीं करते हैं. शायद इसीलिए प्याज की कचौरी की ईजाद स्थानीय खान-पान के इतिहास में मील का पत्थर बन गयी है.
बहरहाल, प्याज तथा आलू की ये कचौरियां आकार में आम कचौरी से काफी बड़ी होती हैं और अधिक तेल-घी भी पी लेती हैं. मावे की कचौरी ज्यादा मीठी नहीं, बल्कि फीकी ही होती है, जो प्याज वाली कचौरी के तीखेपन की काट प्रस्तुत करती नजर आती है.
बनारस में कचौरियां पारंपरिक नाश्ते की अनिवार्यता हैं, जिसकी जुगलबंदी जलेबी के साथ साधी जाती है. दिल्ली में बेडवी का चलन अधिक है, पर खस्ता कचौरी के चाहनेवाले भी काफी हैं. खस्ता कचौरी का सुख यह है कि इसका आनंद आप कमरे के तापमान पर ले सकते हैं.
चाहें तो तरकारी में लुकमा भिगो लें या फिर सोंठ या देसी टमाटर के सॉस की रंगत वाली लाल चटनी या हरी चटनी से इसे स्वादानुसार तीखा-खटमिट्ठा बना लें. मध्य भारत (खास कर इंदौर में) कहीं-कहीं छोटी सी कचौरी को चटनी डाल कर पोहे के साथ भी पेश किया जाता है. तब इसकी भूमिका मसालेदार सेव की तरह मुलायम पोहे को कुरकुरापन प्रदान करने की रहती है. सफर के दौरान खस्ता कचौरी टिकाऊ होने के कारण बहुत काम आती है.
आजकल कुछ लोग कचौरी को इस कारण सेहत के लिए नुकसानदेह समझते हैं कि उसे तला जाता है, तो कुछ को यह गलतफहमी है कि इसे घर पर बनाना बहुत झंझट का काम है.
यदि कचौरियां घर पर छानी जा रही हैं, तो जरा सी सावधानी से आप तेल की मात्रा को नियंत्रित कर सकते हैं. भरनेवाली मसालेदार पीठी बड़े-बड़े नामी गिरामी हलवाई भी रेडीमेड खरीदते हैं. कचौरी मसाला पैकेटबंद भी मिलने लगा है. फिर इंतजार किस बात का? पकौड़े-समोसे तक ही इस मौसम के मजे को सीमित न करें.
रोचक तथ्य
अंग्रेजी राज में कोलकाता में ही छोटी पोटली की शक्लवाली कचौरियों का जन्म हुआ, जो उस शहर में ‘क्लब कचौरी’ कहलाती हैं और अन्यत्र ‘कॉकटेल कचौरी’ नाम से मशहूर हैं.
राजस्थान में प्याज, आलू और मावे की कचौरियां लोकप्रिय हैं. लगभग डेढ़ सौ साल से बंगाल में मारवाड़ी समुदाय आर्थिक जीवन में खास भूमिका निभाता रहा है.
बनारस में कचौरियां पारंपरिक नाश्ते की अनिवार्यता हैं, जिसकी जुगलबंदी जलेबी के साथ साधी जाती है.
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