।। नैंसी सहाय ।।
गुरुवार 12 जून. दोपहर तीन बजे ज्यों ही आइएएस का नतीजा नेट पर आया – 36 वें स्थान पर अपना नाम देख कर मुझे यूं लगा मानो क्षण में अब तक के मेरे कच्चे-पक्के सपने अचानक साकार हो उठे हों. फोन पर बधाइयों का तांता लग गया. निरंतर बधाइयों, शुभकामनाओं और शाबाशियों के सैलाब में डूबती-उतराती मैं उन लम्हों को मानो जांच रही थी.
बहुतों में मुझसे सवाल किया- ‘ आप कितना पढ़ती थीं?’
इस सवाल का जवाब किसी नाप-तौल में देना कठिन है. मैंने थोड़ा सा मनन किया, तो बचपन की एक घटना याद आ गयी. मैं चौथी कक्षा में थी. मां, पापा और भैया के साथ पुरी गयी थी. सागर किनारे रेत पर हम सब बैठे थे. मां ने मूंगफली खरीदी और छील-छील कर खिलाया. खत्म होते ही मां ने ठोंगे पर रवींद्रनाथ टैगोर के चित्र के साथ सामान्य ज्ञान लिखा देखा. उस पर टैगोर के जीवन पर अनेक जानकारियां थीं. वह मुझे और भैया को पढ़ कर सुनाने लगीं. भैया उस ठोंगे की नाव बना कर लहर में फेंकना चाहता था.
मगर कागज पर लिखा सुना कर ही भैया को कागज का वह टुकड़ा दिया गया. मुझे लगता है ज्ञान अजिर्त करने का स्वाभाविक सिलसिला शायद वहीं से शुरू हुआ था. तब से आज तक का अध्ययन, अनुभव, मनन, विचार, क्रिया, प्रतिक्रिया सब कुछ शामिल हो गया. जो भी पढ़ा, लिखा, सुना, समझा सबकी सहभागिता रही इस परीक्षा की तैयारी में. यूं कहें कि सागर के कई हिस्सों को स्पर्श करते हुए एक खास लहर को मुट्ठी में कैद करने की बात है. अगर इसे महाभारत की विजय कहें, तो वनवास अज्ञातवास के थपेड़ों में खुद को स्थिर रखने की चुनौती है. अगर रामचरितमानस की जीत कहें, तो जीवन को समग्रता से समझ कर विवेक के स्तंभ को थामनेवाली बात है.
कभी-कभी तिरस्कार के बाण से बिध कर भी व्यक्ति संकल्प का तरकश बांध लेता है. रिजल्ट निकलते ही मुझे कहानीकार सुदर्शन की कहानी ‘ बालक गंगाराम की टेक’ याद आ गयी. कहानी में चपरासी का बेटा गंगाराम अंगरेज साहब की घूमनेवाली कुरसी पर बैठ जाता है. अचानक साहब आ धमकते हैं और कान उमेठ कर उसे उतार देते हैं. पिता चपरासी को भी दुत्कारते हैं. बालक के आत्मसम्मान को ठेस लगती है. मन ही मन शपथ लेता है कि एक दिन इस कुरसी पर जरूर बैठूंगा. कहानी के अंत में होता भी यही है.
उसी साहब से उसी कुरसी का चार्ज लेता है. कुछ ऐसा ही अनुभव दो साल पहले मुझे भी हुआ था. मेरे कुछ पारिवारिक मित्रों ने अचानक मुझे फेसबुक पर फ्रेंडलिस्ट से हटा दिया. सब साहब थे. स्टेटस की बात थी. मैं प्रोफेसर टीचर की बेटी. यह बाण मेरे हृदय पर लगा था. एक संकल्प का बीज तत्क्षण अंकुरित हुआ. उसी अंकुर का वृक्ष आज खड़ा है. इस तिरस्कार की मैं आभारी हूं. मैं अभिभूत हूं कि मुझे अनेकों का आशीर्वाद, शुभकामनाएं और उत्साहवर्धक शाबाशियों का उपहार मिला.
मुझे बधाई देनेवालों के बीच एक आंटी ने कहा –
‘ तुम्हें कितनी छोटी बच्ची के रूप में देखा था- अब कितना बोझ संभालना है, सोच कर जी भर जाता है.’ उनकी आंखें सचमुच नम थीं.
इस बात से अचानक मुझे लगा मानों मेरे कंधे गुरुता का अनुभव कर रहे हों. सचमुच दृष्टि से परे देखने की क्षमता-श्रवण से परे सुनने के सामथ्र्य और गति से परे गतिमान होने के सामथ्र्य की साधना करने की चुनौती मेरे सामने खड़ी है. इसके लिए भी यदि किसी अध्ययन की जरूरत है, तो जीवन की उस पुस्तक को भी तलाशना होगा, जिससे इस मुल्क के करोड़ों निवासियों की आत्माओं की आकांक्षाएं और उम्मीदें लिखी हैं. वहां प्रतियोगिता नहीं, बल्कि सबके साथ मिल कर जीत हासिल करनी है. एक घटना की याद आती है –
‘ विकलांगों की दौड़ प्रतियोगिता हो रही थी. रेफरी ने सीटी बजायी. विकलांग दौड़ पड़े. एक गिर गया. उसके साथी आगे न बढ़ कर रुक गये. गिरे साथी को मिल कर उठाया और एक साथ ‘विनिंग प्वाइंट’ पर पहुंच गये. विकलांगों की यह सोच यदि समाज की सोच बन जाये, तो सरकटा भी मुल्क को ताज पहना सकता है. तन की विकलांगता कुछ नहीं, यदि मन दुरुस्त हो.
साक्षात्कार के कुछ अनुभव बांटना चाहती हूं. कुछ प्रश्नों के मेरे उत्तर मेरी सफलता के निर्णायक बने. दिलचस्प बात है कि उन सवालों के जवाब मैं अक्सर पापा के घरेलू ‘ भाषण ’ और मां के प्रभात खबर में छपे लेखों में सुनती-पढ़ती थी. पापा हमेशा कहते हैं कि लाख दुखों की एक दवा है – शिक्षा. लेकिन घिसी-पिटी सिर्फ नौकरी पानेवाली नहीं. चार विषय-साहित्य, संगीत, नैतिकता और राष्ट्रवाद, पहली कक्षा से लेकर शिक्षा के अंतिम पायदान तक अनिवार्य होने चाहिए. यही विषय हृदय को संवेदनशील बनाते हैं. साक्षात्कार में बोर्ड के चेयरमैन ने सवाल किया- ‘ स्कूल के सिलेबस में बदलाव करना हो, तो आप क्या करेंगी? मैंने पापा वाला उत्तर विस्तार से दे दिया. यह उत्तर मुझे महत्वपूर्ण इसलिए भी लगा, क्योंकि साक्षात्कार के अंत में बोर्ड चेयरमैन ने इसी उत्तर में खेलकूद विषय जोड़ते हुए समाप्त किया.
फार्म में भरे मेरे शौक ‘कुकिंग’ पर भी सवाल था. कुकिंच शौक क्यों? मेरा जवाब मां के खाना पकाने के नजरिये से जुड़ा था. मेरी मां कहती है कि स्त्री खाना नहीं, प्रेम पकाती है. खाना पकाना पारिवारिक बंधन है. सामाजिक जुड़ाव है. आस्था का भी द्योतक है. तभी तो मां के खाने की कोई सानी नहीं. पिकनिक में मिलजुल कर खाना पकाने से बढ़ कर कोई आनंद नहीं. स्वर्ण मंदिर और गुरुद्वारों में रोटी पकाना आस्था और अनुभूति है. भगवान के प्रति भक्ति भी छप्पन भोग होकर गुजरती है. मैंने हूबहू यही जवाब दे डाला.
साक्षात्कार में 7200 के करीब अंक देख कर मुझे इन दो प्रश्नों की याद आयी, जिसकी तैयारी किताबों और कोचिंग संस्थान में नहीं हुई थी. इनका उत्तर घर में पाया था. पढ़ा तो कई बार था, लेकिन एहसास पहली बार हुआ कि घर-परिवार जीवन की पहली पाठशाला है.
कहते हैं –
‘ सितारों के आगे जहां और भी है
जीवन के इस खेल में इम्तहां और भी हैं.’ भविष्य के इम्तहान में सफल हो सकूं, इसलिए एक कहानी को गांठ में बांध रखी हूं. कहानी का सार कुछ यूं है –
एक राजपुत्र को राजगद्दी के लिए अपनी योग्यता सिद्ध करने के लिए गुरुकुल भेजा गया. गुरु ने उसे जंगल की आवाजें सुनने को कहा. उसने सभी जानवरों की आवाज सुनी. मगर अयोग्य ही करार होता रहा. एक दिन उसने गुरु से कहा कि उसे वे आवाजें सुनाई पड़ीं, जो कभी न सुनी थी. उसने तितलियों की सिसकियां, मछलियों का रुदन और चींटियों की कराह सुनी. राजपुत्र में बेजुबानों की आवाज सुनने का सामथ्र्य आया, तो उसकी योग्यता सिद्ध हुई. समाज में इन्हीं अवाजों को सुनने की चेतना जगानी है. ईश्वर मुझे शक्ति दे. मेरी यह ‘छोटी’ सी आशा अब भी बरकरार है.
परिचय-नैन्सी सहाय, 36 आइएएस रैंक (पहला प्रयास)
राजलक्ष्मी सहाय व प्रकाश सहाय की पुत्री