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क्या लालू को नीतीश का नेतृत्व स्वीकार होगा?

उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए लोकसभा चुनाव में भाजपा के बेहतरीन प्रदर्शन के बाद राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और जनता दल एकीकृत (जदयू) को यह अहसास हुआ है कि मौजूदा हालात में भाजपा और उससे जुड़ी दूसरी ताक़तों से अकेले मुक़ाबला कर पाना उनके लिए बहुत मुश्किल है. राज्यसभा उपचुनाव में दोनों […]

लोकसभा चुनाव में भाजपा के बेहतरीन प्रदर्शन के बाद राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और जनता दल एकीकृत (जदयू) को यह अहसास हुआ है कि मौजूदा हालात में भाजपा और उससे जुड़ी दूसरी ताक़तों से अकेले मुक़ाबला कर पाना उनके लिए बहुत मुश्किल है.

राज्यसभा उपचुनाव में दोनों दलों के एक साथ आने का शायद यही कारण रहा. गुरुवार को राज्यसभा चुनाव में जदयू के दोनों प्रत्याशी गुलाम रसूल बलियावी और पवन वर्मा जीत गए जबकि शरद यादव निर्विरोध चुने गए.

हालांकि भाजपा समर्थित निर्दलीय प्रत्याशी साबिर अली और अनिल शर्मा से उन्हें कड़ा मुकाबला मिला. जदयू प्रत्याशियों को राजद, कांग्रेस, सीपीआई और दो निर्दलीय विधायकों ने समर्थन देने की घोषणा की थी.

शुरू में नीतीश कुमार के साथ जाने में लालू यादव को बहुत हिचकिचाहट थी और यही बात नीतीश कुमार के साथ भी थी. नीतीश कुमार को लगता था कि जिन लालू यादव के ख़िलाफ़ इतना अभियान चलाया, उनके साथ जाना ठीक होगा या नहीं.

लालू के राजनीतिक समीकरण में ‘सेंध की कोशिश’

लेकिन इस हिचकिचाहट के बावजूद दोनों के बीच सहमति बनी है कि अगले विधानसभा में एक साथ रहकर ही भाजपा और उसके सहयोगी दलों का मुक़ाबला किया जा सकता है.

लेकिन राज्यसभा का यह चुनाव महज़ दो सीटों का मामला नहीं है, बल्कि यह आगामी विधानसभा चुनाव की रणनीति की शुरुआत है.

पहले चुनाव लड़ने और जीतने के लालू यादव के जो फ़ॉर्मूले थे, उनमें उन्हें थोड़ा संशोधन करना होगा. थोड़ा ज़्यादा नयापन लाना होना होगा. लोकसभा चुनाव तक उन्होंने जो रणनीति अपनाई है, उससे लगता है कि वह पुराने ढर्रे पर और पुरानी राजनीति करने के अभ्यस्त हो गए हैं.

और यही कारण है कि उन्हें इतना बड़ा ख़मियाज़ा भुगतना पड़ा. यह बताता है कि जो आज के समाज और सियासत में बहुत प्रयोगधर्मी नहीं होगा, वह अपनी पकड़ नहीं बनाए रख सकता. सिर्फ नारेबाज़ी के लटके-झटके और सामाजिक न्याय की कोरी बातों से लोगों को अपने पक्ष में नहीं किया जा सकता.

नीतीश ज़्यादा लचीले

आज लोग ठोस नतीजे चाहते हैं. युवा आबादी, चाहे जिस जाति या बिरादरी की हो, वह ठोस नतीजे चाहती है.

लालू यादव की सबसे बड़ी कमी रही है, कोई ठोस नतीजा न दे पाना. कुल मिलाकर जिनकी बातें वह करते रहे हैं, उनके लिए विकास या प्रशासनिक क्षेत्रों में भागीदारी जैसे मामले में उनका नज़रिया स्पष्ट नहीं रहा है. यही कारण रहा कि लोकसभा और पिछले विधानसभा में उनका प्रदर्शन ठीक नहीं रहा.

जबकि नीतीश कुमार की शैली में ज़्यादा नयापन दिखता है. पहले उन्होंने बिहार में प्रभावशाली जातियों के साथ सामाजिक समीकरण बनाया, जिसका राजनीतिक स्वरूप भाजपा के साथ गठबंधन के रूप में सामने आया.

कितनी अहम है चुनाव में जातीय पहचान?

इसके पीछे सबसे महत्वूर्ण कारण था कि नीतीश कुमार को लग गया था कि बिहार की जाति आधारित सियासत में बिना ऊपरी जातियों को लिए वह कुछ नहीं कर पाएंगे. लेकिन अब स्थितियां बदल गई हैं. भाजपा ने उच्च जातियों में गहरी पैठ जमा ली है और पिछड़ी और दलित जातियों में भी काफ़ी हद तक सेंध लगा ली है.

ऐसे में लालू और नीतीश को बिहार में वाकई राजनीति करनी है, तो उन्हें दलित, पिछड़ी और मध्यवर्ती जातियों के अलावा तरक्कीपसंद उच्च जातियों के एक हिस्से को अपने साथ लाना होगा और सबके लिए नए ढंग के नारे और नया एजेंडा चाहिए. देखना होगा कि क्या ऐसा करने का माद्दा उनमें है.

अभी तो यह देखना बाकी है कि दोनों पार्टियों के बीच की यह प्रक्रिया विधानसभा चुनाव के लिए कोई ठोस आधार बना पाएगी या नहीं. इसके अलावा यह भी देखना होगा कि क्या लालू प्रसाद यादव की परिवार आधारित राजनीति में बदलाव आएगा भी या नहीं.

भाजपा की चुनौती

इसी तरह अभी भाजपा और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के बारे में भी यह देखना होगा कि जिस तरह लोकसभा चुनाव में उन्होंने लोगों को लुभाया, क्या विधानसभा चुनाव में भी वह लोगों को लुभा पाएंगे.

क्योंकि बिहार में एक ऐसा तबक़ा है, जो यह मानता है कि नीतीश ने पहले की सरकारों के मुक़ाबले बेहतर प्रशासन दिया है. बिहार में भावी गठबंधन क्या शक्ल लेते हैं, यह देखना दिलचस्प होगा.

गठबंधन में नेतृत्व के मामले को लेकर लालू लचीले नहीं रहे हैं. उन्हें थोड़ा लचीला होना होगा.

पहली बात यह कि लालू यादव को इसे स्वीकार करना होगा कि मुख्यमंत्री के तौर पर नीतीश कुमार अधिक से अधिक समुदायों और तबक़ों के लिए स्वीकार्य रहे हैं.

बिहार को विशेष राज्य का दर्जा मिलना चाहिए?

दूसरी बात, उनके प्रशासन की भले ही आलोचना की जाए, लेकिन कुछ पहलकदमियों से अनेक समुदायों में उनकी स्वीकार्यता बढ़ी है.

ऐसे में लालू यादव को यह मान लेना चाहिए कि वह केंद्र की राजनीति के लिए सक्रिय रहेंगे. हालांकि वो ख़ुद कोई भी चुनाव नहीं लड़ सकते. केवल मुख्यमंत्री पद ही नहीं है. अन्य क्षेत्रों में भी वह और उनकी पार्टी के लोग काम कर सकते हैं. वैसे भी मुख्यमंत्री वह बन सकते नहीं.

इसलिए मुझे नहीं लगता कि नीतीश कुमार के नेतृत्व को चुनौती देने की कोई ठोस वजह उनके पास है.

(बीबीसी संवाददाता पंकज प्रियदर्शी से बातचीत पर आधारित)

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