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पूर्वोत्तर से बेदखल हुई कांग्रेस

राहुल महाजन वरिष्ठ पत्रकार [email protected] चुनाव नतीजों से पहले हैदराबाद में जोड़-तोड़ की गतिविधियां, बीजेपी के टीआरएस को बहुमत से कम सीटें आने पर समर्थन का संकेत, एआइएमआइएम के भी केसीआर का साथ देने की घोषणा सब धरी की धरी रह गयी. केसीआर की तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) को न केवल पूर्ण बहुमत मिला है, […]

राहुल महाजन
वरिष्ठ पत्रकार
चुनाव नतीजों से पहले हैदराबाद में जोड़-तोड़ की गतिविधियां, बीजेपी के टीआरएस को बहुमत से कम सीटें आने पर समर्थन का संकेत, एआइएमआइएम के भी केसीआर का साथ देने की घोषणा सब धरी की धरी रह गयी. केसीआर की तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) को न केवल पूर्ण बहुमत मिला है, बल्कि तेलंगाना की 119 सीटों में से 2014 में मिली 63 सीटों से भी कहीं ज्यादा सीटें पर टीआरएस को मिली हैं.
इस विधानसभा चुनाव में टीआरएस की बढ़त के बीच उसके दो पूर्व मंत्रियों तुम्माला नागेश्वर राव को पलेर से और जुपल्ली कृष्णा राव को कोल्लापुर से कांग्रेस प्रतिद्वंदियों के खिलाफ हार का सामना करना पड़ा है.
सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को हुआ है, जिसकी एक दर्जन से भी ज्यादा सीटें छिटक कर केसीआर की झोली में जा गिरी हैं. केसीआर का विधानसभा को भंग करने और समय से पहले चुनाव कराने के फैसले को मास्टरस्ट्रोक माना जा रहा है.
हालांकि, उनकी राह को मुश्किल मनाने के लिए अप्रत्याशित रूप से कांग्रेस और टीडीपी ने हाथ मिलाकर महागठबंधन बनाया और गेम चेंजर होने का दावा किया था, लेकिन कांग्रेस और तेलुगू देशम पार्टी की महाकुटमी का प्रयोग पूरी तरह से असफल रहा है. इस गठबंधन में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआइ) और नयी बनी पार्टी तेलंगाना जन समिति भी शामिल थी.
जहां तक एआईएमआईएम का सवाल है, मुस्लिम आबादी को असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी का वोट बैंक तो माना जाता है. तेलंगाना की कुल आबादी का 12.7 फीसदी हिस्सा अल्पसंख्यकों का है. राज्य की 119 विधानसभा सीटों में से 40 से 45 सीटों पर अल्पसंख्यकों का खासा प्रभाव है. लेकिन, दिक्कत यही है कि पार्टी का प्रभाव केवल 7 विधानसभा सीटों पर ही है.
एआइएमआइएम हैदराबाद के पुराने शहर इलाके की 6 सीटों, सिकंदराबाद में 1 और राजेंद्रनगर में 1 सीट पर चुनाव लडा था. लेकिन, राजेंद्रनगर में सीट पर उसके उम्मीदवार मिर्जा रहमत बेग टीआरएस से कहीं पीछे दिखायी दिये.
बीजेपी ने तेलंगाना में सभी 119 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ा था. बीजेपी को लगता था कि ग्रेटर हैदराबाद समेत शहरी इलाकों के वोटरों के समर्थन उसे मिलेगा.
लेकिन, ऐसा नहीं हुआ और तेलंगाना राष्ट्र समिति की आंधी में बीजेपी को भी कोई फायदा नहीं हुआ. टीआरएस ने राज्यसभा के डिप्टी चेयरमैन के चुनाव में एनडीए का साथ दिया था, जबकि ये पार्टी एनडीए का हिस्सा नहीं है. बीजेपी के लिए तेलंगाना में खोने को खास नहीं था, लेकिन सीटों का नुक्सान के बावजूद तेलगांना में मित्र राजनीतिक दल की सरकार होना राष्ट्रीय चुनावों में फायदा का सौदा साबित हो सकता है. बीजेपी दक्षिण भारत में कर्नाटक को छोड़ किसी भी राज्य में अभी तक सत्ता में नहीं रही है.
तेलंगाना राज्य के गठन के लिए केसीआर ने अहम भूमिका निभायी थी. तेलंगाना राज्य 2014 में वजूद में आया और केसीआर राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने.
केसीआर ने कई लोगों के लिए कई वेलफेयर स्कीम लाये, जिसमें जरूरतमंद लोगों के लिए पैसा, शादी, मकान और पानी की सुविधाएं उपलब्ध करायी. किसानों के लिए केसीआर पुराने तंत्र पर एमएसपी और अप्रत्यक्ष सब्सिडी पर निर्भर नहीं रहे और उन्होंने किसानों को सीधे हर सीजन में पर एकड़ चार हजार रुपये देने का फैसला किया था और साल में दो फसलें उगानेवाले किसान को प्रति एकड़ 8 हजार की रकम दी गयी. लोकसभा चुनावों के साथ तेलंगाना राज्य के चुनाव न करा कर नौ महीने पहले ही चुनाव कराने का फैसले और अलग राज्य बनाने में उनकी भूमिका का फायदा केसीआर को हुआ है.
मिजोरम में भी राज्य की जनता ने बदलाव का फैसला किया है. पूर्वोत्तर में कांग्रेस का आखिरी किला ढ़ह गया है. पूर्वोत्तर की राजनीति के लिहाज से अहम समझे जानेवाले इस राज्य में सत्तारूढ़ कांग्रेस और मिजोरम नेशनल पार्टी (एमएनएफ) के बीच मुख्य मुकाबला था. कांग्रेस के मुख्यमंत्री पी ललथनहवला, जो पांच बार मिजोरम के मुख्यमंत्री रहे हैं, अपनी दोनों सीटों से चुनाव हार गये हैं. वह चंफाई साउथ और सेरछिप सीट से मैदान में उतरे थे. चंपाई साउथ सीट से उन्हें एमएनएफ के टीजे ललनुंतलुआंगा ने हराया. ललथनहवला ने पिछली बार भी दो सीटों पर चुनाव लड़ा था. साल 2013 में उन्होंने सेरछिप और ह्रांगतुजरे सीटों पर जीत दर्ज की थी. वह 1978 के बाद से रिकॉर्ड नौवीं बार विधानसभा के लिए चुने गये थे, लेकिन इस बार वे एक सीट भी बचाने में नाकाम रहे.
कांग्रेस 2013 की 34 सीटों से गिरकर केवल 5 सीटों पर सिमट गयी है. मिजोरम में कुल 40 विधानसभा की सीटें हैं और यहां 73 फीसदी मतदान हुआ था. यहां बहुमत के लिए 21 सीटों की आवश्यकता थी जिसे एमएनएफ ने आसानी से हासिल कर लिया. पूर्वोत्तर राज्य मिजोरम में मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) ने 10 साल बाद सत्ता में वापसी की है.
पूर्व मुख्यमंत्री और एनएनएफ अध्यक्ष जोरामथांगा आइजोल ईस्ट-1 सीट पर जेपीएम के सापदांगा से चुने गये हैं. जोरम नेशनलिस्ट पार्टी और मिजोरम पीपुल्स कांफ्रेंस एमपीसी ने दो-दो सीटें और मारा डेमोक्रेटिक फ्रंट पार्टी ने एक सीट जीती हैं. बीजेपी ने पहली बार मिजोरम 39 सीटों पर प्रत्याशी खड़े किये थे. बीजेपी के उम्मीदवार पूर्व मंत्री डॉ बुद्ध धान चकमा तुईचवांग सीट से जीत कर मिजोरम में बीजेपी का खाता खोल है.
ये बात ध्यान देने लायक है कि एनएनएफ जोरम पीपुल्स मूवमेंट (जेडपीएम) जो दो राजनीतिक दलों ज़ोरम नेशनल पार्टी और मिजो पीपुलस कॉफ्रेंस और चार समूहों का गठबंधन है को भी कोई खास सफलता नहीं मिली है.
एक बार फिर मुख्यमंत्री बनने जा रहे मिजोरम नेशनल फ्रंट के लीडर जोरमथंगा पहली बार जीत का स्वाद नहीं चख रहे हैं. उन्होंने 10 सालों 1998 से 2008 तक सरकार राज्य में चलायी है. साल 1987 में विधायक चुन कर आये जोरमथंगा पहली बार ही राज्य में शिक्षा एवं वित्त मंत्री बने थे.
साल 2008 में उनकी सरकार को हारकर बाहर होना पड़ा और कांग्रेस के ललथनहवला प्रदेश के सीएम बने. ललथनहवला का मिजोरम के सीएम के तौर पर लंबा अनुभव रहा है. इससे पहले भी वह 1989 से 1998 तक प्रदेश के सीएम रहे थे. इस तरह से बीते छह कार्यकालों में मिजोरम में दो ही मुख्यमंत्री रहे हैं.
Prabhat Khabar Digital Desk
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