विनिता पारिख, स्वतंत्र पत्रकार, कम्युनिकेशन एक्सपर्ट
हमारे स्वतंत्रता संग्राम के सपूतों ने केवल अंग्रेजों से लोहा नहीं लिया था, बल्कि उन्होंने सामाजिक बुराइयों का भी विरोध किया था. इसी वजह से प्रस्तावना में, जिसे ‘संविधान की आत्मा’ कहा जाता है, उसकी शुरुआत ही हम भारत के लोग के साथ की गयी है, जो कि हमारी उन उम्मीदों, सपनों और आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता है, जिनके बारे में कभी इस देश के लोगों ने देखा या सोचा था. इसने यह स्पष्ट कर दिया कि भारत के लोग सर्वोपरि हैं और इसी के साथ संविधान ने हमें अपने सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्वतंत्रता को हासिल करने का माध्यम भी दे दिया.
तकनीकी दृष्टिकोण से देखें, तो भारत ब्रिटिश राजशाही की दासता से वर्ष 1947 में आजाद हो गया था, लेकिन हमारा संविधान वर्ष 1950 में अस्तित्व में आया. इसका मतलब है कि 1947 से 1950 तक जॉर्ज-छठवें ही हमारे राजा रहे और हमारे देश के विदेशी मामले, संचार, मुद्रा आदि पर उस वक्त तक ब्रिटिश शासकों का ही अधिकार रहा, जब तक कि भारत वर्ष 1950 में एक गणतंत्र देश (वह देश, जिसका अपना एक संविधान था) घोषित न हो गया. ब्रिटिश तो चले गये, पर क्या हम एक आदर्श गणतंत्र के लक्ष्यों को इतने सालों बाद भी प्राप्त कर पाने में सफल हुए? क्या जो सपने स्वतंत्रता आंदोलन के नायकों ने देखे थे, जो उम्मीदें उन्होंने पाली थीं, वह साकार हुईं? क्या हम अब तक राजनीतिक रूप से स्वतंत्र हो पाये हैं? ये सारे मुद्दे आज के समय में बेहद प्रासंगिक और अर्थपूर्ण है. इन पर गंभीरता से विचार-विमर्श किये जाने की जरूरत है.
मेरे विचार से कुछ हद तक तो हमने इस दिशा में सफलता प्राप्त कर ली है. इसका एक जीवंत उदाहरण हमारी चुनावी प्रक्रिया है. देश के हर वयस्क (18 वर्ष या उससे अधिक की उम्र के) नागरिक को चुनावों में वोट देने का अधिकार है. वह स्वयं अपनी इच्छा से अपने प्रतिनिधि का चुनाव कर सकता है. इसका मतलब है कि हमने राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त कर ली है, हालांकि इसे सशक्त और पारदर्शी बनाने के लिए अभी इसमें कई तरह के सुधार करने जरूरत है, फिर भी यह कोई कम बात नहीं कि चुनाव की इस ताकत के बलबूते आज हम बड़े-से-बड़े नेता को भी उसकी औकात बताने की हैसियत रखते हैं.
अब बात करते हैं सामाजिक स्वतंत्रता की. संविधान ने तो हमें सामाजिक स्वतंत्रता दे दी है, लेकिन क्या हम इसका सही मायनों में उपयोग कर पा रहे हैं? हमारा संविधान कहता है कि भारत के किसी भी नागरिक से उसके जन्म, जाति, धर्म या संप्रदाय के आधार भेदभाव नहीं किया जायेगा. देश के सभी नागरिकों को अपने अधिकारों को एंज्वाय करने के लिए समान अवसर दिये गये हैं. भारतीय लोकतंत्र के चार प्रमुख स्तंभों में से प्रेस को चौथे खंभे का दर्जा दिया गया है. कहने को हमारे यहां मुक्त प्रेस की अवधारणा रही है. दरअसल, सामाजिक परिवर्तन संपूर्ण समाज के मनोवृतिक परिवर्तन का परिचायक है. इस लिहाज से देखें, तो आजादी से लेकर अब तक 70 वर्षों की अवधि में हम निरंतर इस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, लेकिन अभी मीलों का सफर तय करना बाकी है.