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संताली भाषा साहित्य का हो रहा है अपेक्षित विकास

Santali language: संतालों में आज जो शिक्षा का प्रसार देखा जाता है, उसमें पाउल जुझार की बड़ी देन है. शिक्षा के साथ-साथ उन्होंने समाज सुधार का भी काम किया, जिसकी वजह से सरकारी सेवा में रहते हुए भी वे बहुत लोकप्रिय हुए

अशोक सिंह- संतालों में आज जो शिक्षा का प्रसार देखा जाता है, उसमें पाउल जुझार की बड़ी देन है. शिक्षा के साथ-साथ उन्होंने समाज सुधार का भी काम किया, जिसकी वजह से सरकारी सेवा में रहते हुए भी वे बहुत लोकप्रिय हुए. सेवानिवृत्ति के बाद 1952 में लोकसभा चुनाव में जनता ने उन्हें अपना प्रतिनिधि चुना. उस पद पर रहते हुए उन्होंने देश की बड़ी सेवा की और 19 फरवरी 1954 में दिल्ली में उनका निधन हो गया. संथाली भाषा साहित्य के विशेषज्ञ के रूप में वे जाने माने जाते थे. पटना विश्वविद्यालय ने संताली पाठ्यक्रम समिति के लिए 1943-44 के लिए उन्हें सदस्य मनोनीत किया था और संताल परगना के तत्कालीन उपायुक्त ने उन्हें 1947-48 की अवधि में सरकारी कर्मचारियों की संताली भाषा की दक्षता संबंधित परीक्षा का परीक्षक नियुक्त किया था.

संताली भाषा साहित्य की लिपि को देवनागरी रूप देने में गोपाल लाल का अहम योगदान

पाउल जुझार सोरेन के बाद जो नाम संथाली भाषा साहित्य की विकास यात्रा को आगे बढ़ाने में आता है उसमें गोपाल लाल वर्मा (1891) का नाम प्रमुख है. संताली भाषा साहित्य की लिपि देवनागरी का जो स्वरूप आज देखने को मिलता है, उसमें गोपाल लाल वर्मा का बड़ा योगदान है. एक समय था जब संताली भाषा की एक भी पुस्तक नागरी लिपि में नहीं थी तब संथाली साहित्य के लिए रोमन लिपि का व्यापक प्रचार था. पाठ्य पुस्तकें रोमन लिपि में छापी जाती थी. सन 1939-40 में बिहार राज्य में निरक्षरता निवारण का काम करने के लिए एक प्रादेशिक संस्था निरक्षरता निवारण समिति के नाम से सरकार की ओर से एक कमेटी गठित की गई थी. उसने निश्चय किया था कि संतालों को पढ़ाने के लिए जो प्रारंभिक पुस्तकें तैयार कराई जाए वह सभी रोमन लिपि में छापी जायें. सरकार का यह निर्णय बिहार प्रादेशिक हिंदी साहित्य सम्मेलन के सामने आया. सम्मेलन ने इसका विरोध किया.

सम्मेलन के माध्यम से सरकार के इस निर्णय के विरोध में एक व्यापक आंदोलन हुआ. सरकार के सामने संकट उपस्थित करने में उस वक्त के साहित्यकार सफल हुए पर सरकार के सामने कोई उस भाषा की लिपि को लेकर कोई व्यापक स्वरूप उपस्थित नहीं कर पाये. उसी समय संताल परगना के एक शिक्षा विभाग के अधिकारी ने देवनागरी लिपि में संताली भाषा का एक चार्ट बना दिया. इतना ही नहीं उन्होंने प्रमाणित करने की चेष्टा भी कि देवनागरी लिपि बहुत दिनों से संतालों की लिपि रही है. गोपाल लाल वर्मा ने संताली भाषा का चार्ट ही नहीं बनाया बल्कि एक पुस्तक भी संथाली भाषा की देवनागरी लिपि में लिखी थी. उस पुस्तक का नाम था ‘संथाली पहिल पुथी’. यह पुस्तक सन 1940 में छपी थी. उन दिनों गोपाल लाल वर्मा गोड्डा में स्कूल के डिप्टी इंस्पेक्टर थे. इस पुस्तक के प्रकाशन के पूर्व संथाली भाषा के लिए जो पुस्तकें प्रचलित थी उसका नाम था ‘होड रोड़ रे आक्’ रोमन लिपि में छपी थी.

गोपाल बाबू ने अपनी पुस्तक के संबंध में कहा है संताली के लगभग सभी स्वर और व्यंजन वर्ण हिंदी के हैं तथा उसी के नियम पर रखे गये हैं. ऐसी स्थिति में उन्होंने अपनी मान्यता दी कि संताली भाषा के लिए देवनागरी के अतिरिक्त कोई दूसरी लिपि उपयुक्त नहीं हो सकती. आगे चलकर गोपाल बाबू और उनके कुछ ऐसे अन्य व्यक्तियों के सहयोग से बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के माध्यम से एक आंदोलन चलाकर सन 1940 में पटना विश्वविद्यालय को विवश किया गया था कि मैट्रिकुलेशन परीक्षा में संताली भाषा के रूप में स्वीकृत करें और बोर्ड ऑफ स्टडीज बनाएं जिसमें सफलता मिली थी. उसी कड़ी में कविवर नारायण सोरेन ‘तोड़े सुताम’ जी का नाम भी आता है जो संताली साहित्य आकाश के देदीप्यमान नक्षत्र थे. तोड़े सुताम के नाम से प्रसिद्ध नारायण सोरेन जी संथाल समाज के अच्छे ज्ञाता और अनुभवी विद्वान थे. उनकी दृष्टि बहुत ही सूक्ष्म और पैनी थी. वे केवल आचार शास्त्र के ही पंडित नहीं थे, धर्म अध्यात्म दर्शन और राष्ट्रप्रेम में भी उन्होंने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया था.

उनकी कविता में युग जीवन एवं देश के नए विचारों का दर्शन मिलता है. उनका जन्म 1929 में संथाल परगना जिले के पाकुड़ अनुमंडल अंतर्गत एक छोटे से गांव में हुआ था. उन्होंने अपना जीवन सरकारी नौकरी से शुरू किया. फिर बाद के दिनों में उन्होंने नौकरी छोड़ दी और राजनीति से अपना संबंध जोड़ लिया. कुछ दिनों तक वे एक स्कूल में शिक्षक भी रहे और फिर बाद में आगे चलकर एमएलसी भी हुए. राजनीति में वे अवश्य थे पर मूल रूप से हमेशा साहित्यकार रहे. ‘गिरा’ नामक कविता संग्रह 1954 में प्रकाशित हुआ था जो संताली साहित्य में मील का पत्थर माना जाता है. कहा जाता है कि इस पुस्तक से संताल काव्य साहित्य में एक नया युग प्रारंभ हुआ. उन्होंने दुमका में संथाली भाषा समिति की स्थापना की थी जिसके वे सभापति भी रहे. उन्होंने संथाली भाषा में मोलोक नामक एक पत्रिका भी निकाली थी. उसके बाद साधु रामचंद्र मुर्मू का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है. साधु राम चंद्र मुरमू एक संत कवि थे. वह जिज्ञासुओं को अध्यात्म का पाठ पढ़ाते थे. इनका जन्म पश्चिम बंगाल के जिला मेदनीपुर में हुआ था. वे धर्म एवं कर्मकांड के ज्ञाता थे. उन्होंने संथाल धर्म पर एक ग्रंथ लिखा. उन्होंने संताली भाषा में एक नाटक ‘संसार भेद’ के नाम से लिखा है. उस समय होड सोम्वाद में उनकी कविताएं अक्सर प्रकाशित होती थी.

संताली साहित्य का भीष्म पितामह : डॉ डोमन साहू ‘समीर’: उसके बाद संताली साहित्य के विद्वानों में डॉक्टर डोमन साहू ‘समीर’ का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है, जिन्हें संथाली साहित्य का भीष्म पितामह भी कहा जाता है. समीर जी को संताली साहित्य में वही स्थान प्राप्त है जो आधुनिक हिंदी साहित्य में आचार्य महावीर प्रसाद का रहा है. समीर जी ने संथाली भाषा के लिए वही काम किया जो आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने आधुनिक हिंदी साहित्य के लिए किया. समीर जी ने आजादी के बाद अपने संपादन में संताली भाषा में प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘होड़ सोम्वाद’ के माध्यम से अनेकों संताल कवि लेखक साहित्यकारों को बनाया जो आगे चलकर बड़े नामचीन लेखक सिद्ध हुए. एक गैर संताली भाषी समुदाय से होकर भी समीर जी ने संथाली भाषा साहित्य और उसकी समृद्धि के लिए जो कुछ और जितना किया उतना संताल समाज और उस भाषा भाषी समुदाय से जुड़े बड़े बड़े विद्वान भी आज तक नहीं कर पाये. समीर जी की दर्जनों पुस्तकें प्रकाशित तो हुई ही, देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आदिवासी साहित्य पर सैकड़ों आलेख भी प्रकाशित हुए जिसमें 1941 में उस वक्त की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका सरस्वती में भी छपने का गौरव उन्हें प्राप्त हुआ. उनकी सैकड़ों महत्वपूर्ण उपलब्धियों में महत्वपूर्ण उपलब्धियों में ‘संताली- हिंदी’ एवं ‘हिंदी-संथाली’ शब्दकोश जो देवघर हिंदी विद्यापीठ से प्रकाशित हुआ है बहुत ही महत्वपूर्ण और बड़ा काम माना जा सकता है.

आदित्य मित्र संताली की संस्कृति के प्रति रूचि: वे एक साथ बहुत सारी भाषाओं के ज्ञाता थे और संताली भाषा के लिए आजीवन देवनागरी लिपि की वकालत करते रहे. इस क्रम में आदित्य मित्र संताली (1923) का नाम भी आता है. आदित्य मित्र संताली को संस्कृत के प्रति गहरी अभिरुचि थी. यहां तक की संस्कृत की शिक्षा प्राप्त करने के लिए वे अयोध्या चले गये थे. वहां उन्होंने संस्कृत की शिक्षा प्राप्त की. संताली, हिंदी और संस्कृत भाषा के वे जानकार थे. उन्होंने शुरुआत में रांची में आदिम जाति सेवा मंडल से जुड़कर काम किया. फिर बाद में संताल पहाड़िया सेवा मंडल देवघर में काम करने लगे. बाद के दिनों में वह मिडिल स्कूल में एक शिक्षक के पद पर भी काम किए. आदित्य मित्र संताली हिंदी और संताली दोनों भाषा में लिखते थे. संथाली भाषा में उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हैं. कवि के साथ-साथ कहानीकार और नाटक के रूप में भी वे बहुत लोकप्रिय थे. उसके बाद ठाकुर प्रसाद मुर्मू (1931) का नाम भी प्रमुखता से लिया जाता है. ठाकुर प्रसाद मुर्मू संताली साहित्य के जाने-माने साहित्यकार थे. साहित्य की सभी विधाओं पर उन्होंने काम किया. उनकी कविताओं में राष्ट्रप्रेम और समाज सुधार का संदेश मिलता है. उनकी कविताओं का एक संग्रह ‘एभेन आड़ाङ’ नाम से प्रकाशित हुआ जो काफी लोकप्रिय रहा.

इसी कड़ी में शारदा प्रसाद किस्कू का नाम भी आता है. शारदा प्रसाद किस्कू का जन्म 1929 में पुरुलिया जिला अंतर्गत एक गांव में हुआ था. वे पढ़ने लिखने में बहुत तेज थे. शारदा प्रसाद किस्कू राजनीति से भी जुड़ गये और 1962 में विधानसभा चुनाव में खड़े हुए लेकिन सफल नहीं हो सके. बाद में एक स्कूल में शिक्षक भी रहे और बांकुड़ा बंगाल से निकलने वाली बंगला लिपि पत्रिका ‘खेरवाल आड़ाङ’ में वे सहायक संपादक भी रह चुके थे. इसी कड़ी में राजेंद्र प्रसाद किस्कू भी एक महत्वपूर्ण कवि के रूप में उभर कर सामने आए जिनका जन्म 1962 में गोड्डा के अमरपुर में हुआ था. एक साधारण कृषक परिवार से होकर भी उन्होंने उस वक्त बीए किया और बाद में संथाली साहित्य के विकास में लग गये. ‘जुड़ासी धारती योक् आम रिमिल और ‘हुयाक दिसा’ कविताएं काफी प्रसिद्ध हुई. उर्दू की कुछ रुबाईयों का संथाली में अनुवाद भी किया था. राजेंद्र प्रसाद किस्कू मसलिया प्रखंड में कल्याण निरीक्षक भी रहे.

कविता के अलावा कहानियां भी उन्होंने खूब लिखी लेकिन बहुत सारी रचनाएं उनकी अप्रकाशित ही रह गई. संताली भाषा साहित्य को समृद्ध करने वाले वरिष्ठ साहित्यकारों में और भी कई नाम हैं जिसकी सूची काफी लम्बी है. लेकिन कई महत्वपूर्ण नाम ऐसे हैं जिनकी चर्चा के बिना संताली भाषा साहित्य की विकास यात्रा पर चर्चा अधूरी होगी उन महत्वपूर्ण लेखकों में लक्ष्मी नारायण मुर्मू ‘पानीर पियो’, इगनातिकम सोरेन ‘बिरवाहा’, बाबूलाल मरांडी ‘लू’, सल्हाय हांसदा, भागवत मुर्मू ‘ठाकुर’ पद्मश्री चित्तू टुडू, रामसहाय किस्कू ‘रापाज’, मनीन्द्र हांसदा, गुमास्ता प्रसाद सोरेन, मांझी हांदसा, महादेव मराण्डी, छोटेलाल सोरेन ‘उपलवाहा’, भुवनेश्वर सोरेन ‘भैरव’, जेठू मुर्मू, चैतन्य कुमार मरांडी ‘अरसाल’, जोसेफ चंद्रशेखर हांदसा, जेठा कुमार चौड़े, बुद्धि राय मुर्मू, हृदय नारायण मंडल ‘अधीर’ (गैर संताली भाषी), पृथ्वी चंद्र किस्कू, आनंद प्रसाद किस्कू ‘रापाज’, बाल किशोर बास्की ‘अरमान’, विद्यारत्न रूपनारायण श्याम शास्त्री, भवेश चंद्र हांसदा, रामसुंदर हेंब्रम, सहदेव मरांडी, मलिन्द्र नाथ मराण्डी, केवलराम सोरेन, ननकू सोरेन, गोरा चांद टूडू, हृदय नारायण साह, यदुनंदन मुर्मू, वैद्यनाथ मरांडी, शीतल प्रसाद मुर्मू, जगदीश चंद्र सोरेन, गणेश लाल हांसदा, नोगेंद्र नाथ हांसदा, चारलिस मुर्मू, गुहीराम हेम्ब्रम ‘रसिका’, सुना टुडू, श्रीधर कुमार मुर्मू ‘सुमन’, निमाई चंद्र सोरेन, होपोन चंद्र बास्की, सोनागिरी मुर्मू, टॉमस हेंब्रोम, साइमन के. हांदसा, लीलू सोरेन, हरप्रसाद मुर्मू, लोधा मरांडी, उपेंद्र नाथ हेंब्रम, बाबूलाल मुर्मू ‘आदिवासी’ जो समीर जी के बाद लंबे समय तक होड़ सोम्बाद के संपादक भी रहे और देवनागरी लिपि के समर्थन व पक्षधर भी.

लगभग 30-32 किताबों के बड़े और सम्मानित विद्वान लेखक होकर भी जिन्हें कभी साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं मिला सिर्फ इसलिए कि साहित्य अकादमी के एक आफर के बावजूद भी उन्होंने ओलचिकी में लिखना स्वीकार नहीं किया. इसी कड़ी में बासूदेव बेसरा, बाबूराम मुर्मू, बटेश्वर हेंब्रम, मुंशी चंद्र मुर्मू, सुफल सोरेन, रूप श्याम सरोज, प्रधान मरांडी, शुखदेव मुर्मू, मुंशी हेंब्रम, बालेश्वर सोरेन, चुनाराम हांसदा, रामपत सोरेन, भूषण प्रसाद साह, जेबी टूडू ‘रासकार’, सुशील सोरेन, छोटन प्रसाद मुर्मू, हरे कृष्ण बास्की, सुखलाल हांसदा, सुकुल सोरेन, शिकार किस्कू, रामजीत मरांडी, शिवचरण किस्कू, होपोन लाल टूडू, आदि के नाम उल्लेखनीय हैं. इसके साथ-साथ चुंडा सोरेन ‘सिपाही’ भैया हांसदाक् ‘चासा’, कृष्ण चंद्र टुडू, विश्वनाथ टूडू, सुशील सोरेन, साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित श्याम बेसरा, डॉ शर्मिला सोरेन, महेंद्र बेसरा बेपारी, शिव लाल मरांडी, साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित सोमेन्द्र शेखर हांसदा, डॉ होलिका मराण्डी और निर्मल मुर्मू आदि का नाम भी लिया जा सकता है, जो संताली भाषा साहित्य को समृद्ध में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं.

इसके अलावा और भी कई ऐसे महत्वपूर्ण नाम हैं जिसकी लंबी सूची यहां देना संभव नहीं हो पा रहा है. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि आज संताली भाषा साहित्य का अपेक्षित विकास हो रहा है. लगभग सभी विधाओं में संताली साहित्यकार काफी कुछ न सिर्फ लिख रहे हैं बल्कि प्रमुखता से छप भी रहे हैं.

भारतीय भाषाओं की आठवीं अनुसूची में संताली भाषा को शामिल करने के बाद इस भाषा साहित्य का काफी विकास हुआ है. दर्जनों पत्र पत्रिकाएं भी आज इस भाषा में प्रकाशित हो रही हैं, जिसके माध्यम से कई वरिष्ठ और संताली युवा लेखक सामने आ रहे हैं, जिसमें उनका लोक साहित्य भी दिखता है और समकालीन आधुनिक साहित्य भी. कई लेखकों को संताली भाषा का साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिल है. इतना ही नहीं मुख्यधारा के बड़े बड़े साहित्य कार्यक्रमों की तरह अब संताली लिटरेचर फेस्टिवल का भी आयोजन हो रहा है, जिसमें उपायुक्त रवि शंकर शुक्ला की पहल से दुमका में हुए संताली लिटरेचर फेस्टिवल विशेष रूप से उल्लेखनीय है. जिसके बाद से कई वरिष्ठ और नए संताली लेखकों की सक्रियता आज देखी जा सकती है. मुख्यधारा के हिंदी साहित्य की तरह आज संताली भाषा साहित्य में भी बड़ी संख्या में कवि लेखक सक्रिय हैं और अपने भाषा साहित्य को समृद्ध करने में लगे हुए हैं.

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