29.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Trending Tags:

Advertisement

विपक्षी दलों की एकजुटता की कोशिश

कांग्रेस के भीतर क्या चल रहा है या विपक्षी एकता को लेकर उसका रोडमैप क्या है, इसे लेकर अधिकृत बातें सामने नहीं आती हैं. कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे एक अनुभवी और दिग्गज नेता हैं और उनके गैर-भाजपा दलों के तमाम नेताओं के साथ संपर्क हैं तथा अन्य नेता उनका आदर भी करते हैं.

विपक्षी दल अगले आम चुनाव को लेकर एकजुटता दिखा रहे हैं, मगर उसमें अभी भी कई व्यावहारिक समस्याएं हैं. संपूर्ण विपक्ष में दो तरह के दल हैं, एक तो क्षेत्रीय दल हैं, और दूसरे वे दल हैं जिन्होंने कांग्रेस का सहयोगी रह कर वर्ष 2004 से 2014 तक सत्ता का सुख भोगा. इन दोनों तरह के दलों के बीच एक तरह की रस्साकशी का माहौल है. उसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि ये सारे दल मोदी को मात देने की तैयारी सिद्धांत और विचारधारा के बजाय अपने नफा-नुकसान को ध्यान में रख कर रहे हैं. मेरा अनुमान है कि अगले पांच-छह महीने में ही स्थिति और स्पष्ट हो पायेगी, जब मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मिजोरम के चुनाव संपन्न हो जायेंगे.

पुराना इतिहास देखा जाए, तो विपक्ष की एकता चुनाव के आस-पास नजर आती है. वर्ष 1977 के चुनाव में अधिकांश विपक्षी नेता या तो जेल में थे, या राजनीतिक रूप से सक्रिय नहीं थे. फिर, जनता पार्टी का गठन हुआ जिसमें आठ राजनीतिक दल शामिल हुए और उन्होंने मिलकर इंदिरा गांधी को कड़ी चुनौती दी और उन्हें हराया. इसी प्रकार, 1984 में राजीव गांधी को प्रचंड बहुमत मिला था, मगर 1989 में विपक्ष ऐसा एकजुट हुआ कि उसमें वाम दल एवं भाजपा भी साथ हो गये और उन्होंने विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुवाई वाले जनता दल का समर्थन किया. उस वक्त क्षेत्रीय दलों ने भी बड़ी सक्रियता दिखाई थी, जिनमें एनटी रामाराव की पार्टी तेलुगू देशम ने अहम भूमिका निभायी थी और वे राष्ट्रीय मोर्चा नाम से बने गठबंधन के संयोजक भी रहे.

आज की स्थिति में विपक्ष के पास ना तो ऐसा कोई गठबंधन है, ना ही उसके पास ऐसा कोई संयोजक ही है. अमूमन ऐसा भी देखा गया है कि विपक्ष जब विषम परिस्थितियों में था, तो कोई ऐसा व्यक्ति आया जिसने भीष्म पितामह जैसी भूमिका निभाकर विपक्ष को एक करने में मदद की. जैसे, 1975 से 1977 के बीच जयप्रकाश नारायण ने विपक्ष को एकजुट करने की अगुवाई की. ऐसी ही भूमिका 1989 में सीपीएम महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत और लोक दल के नेता देवीलाल ने निभायी थी. वर्ष 1996 में भी हरकिशन सिंह सुरजीत और विश्वनाथ प्रताप सिंह की बड़ी भूमिका थी. वर्ष 2004 के बारे में भी ऐसा ही कहा जा सकता है. इसके बाद अन्ना हजारे ने एक आंदोलन चलाकर विपक्षी एकता को एक नैतिक बल दिया था जो यूपीए के लिए घातक साबित हुआ.

यह ध्यान रखना चाहिए कि ऐसा हर प्रयास अनूठा होता है और 2024 के लिए भी नये तरह का प्रयोग होगा. मोटे तौर पर जो अड़चन दिख रही है, वह आम आदमी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस और तीन अन्य क्षेत्रीय दलों को लेकर है, जिनमें तेलंगाना की चंद्रशेखर राव की भारत राष्ट्र समिति है जो पहले तेलंगाना राष्ट्र समिति कहलाती थी, फिर नवीन पटनायक की पार्टी बीजू जनता दल और आंध्र प्रदेश की तेलुगू देशम पार्टी है. बीजू जनता दल ने कहा है कि वह तटस्थ रहेगी, मगर समझा जाता है कि वह एनडीए के करीब है. आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू ने वर्ष 1996 में विपक्ष की सरकार बनवाने में सक्रियता दिखायी थी और 2019 के चुनाव में भी उन्होंने शरद पवार के साथ मिलकर विपक्ष को एक करने की कोशिश की थी. मगर इस बार चंद्रबाबू नायडू के तेवर बदले से नजर आ रहे हैं. विपक्षी एकता की राह में ये पांच दल ऐसे हैं, जिन्हें अन्य दल साधने में सफल नहीं हो सके हैं.

जहां तक कांग्रेस का प्रश्न है, तो उसने कर्नाटक चुनाव जीत कर दिखा दिया है कि उसमें अभी भी दम है. लेकिन कांग्रेस की ताकत ही उसकी कमजोरी बन रही है, क्योंकि अधिकांश क्षेत्रीय दल ये चाहते हैं कि जिन-जिन राज्यों में क्षेत्रीय दल मजबूत हैं वहां कांग्रेस मुख्य भूमिका में नहीं रहे और आम चुनाव में हर सीट पर विपक्ष का एक ही उम्मीदवार खड़ा हो. मगर कांग्रेस की समस्या यह है कि वह एक राष्ट्रीय पार्टी है और उसे लगभग 20 प्रतिशत वोट मिलते हैं. इस संदर्भ में यदि बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों में कांग्रेस की भूमिका गौण रहती है, तो वह 543 सीटों में से शायद ढाई सौ से भी कम सीटों पर लड़ पायेगी.

कांग्रेस ने अपने बूते पर 1951-52 से लेकर 1977 तक सरकार चलायी, और उसके बाद भी 80 और 90 के दशक में कांग्रेस सत्ता में रही. तो बतौर राष्ट्रीय पार्टी, कांग्रेस यदि ढाई सौ सीटों पर चुनाव लड़ती है और उसे सौ-सवा सौ सीटें मिल भी जाती हैं, तब भी वह भाजपा की तरह अपनी सरकार बना ही नहीं पायेगी. कांग्रेस के लिए यह भी एक व्यावहारिक समस्या है. फिलहाल, कांग्रेस समेत तमाम विपक्ष के लिए एक बड़ी समस्या पारदर्शिता की कमी भी है. कांग्रेस के भीतर क्या चल रहा है या विपक्षी एकता को लेकर उसका रोडमैप क्या है, इसे लेकर अधिकृत बातें सामने नहीं आती हैं. कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे एक अनुभवी और दिग्गज नेता हैं और उनके गैर-भाजपा दलों के तमाम नेताओं के साथ संपर्क हैं तथा अन्य नेता उनका आदर भी करते हैं. लेकिन, वे कोई भी बड़ा फैसला लेने से हिचकते हैं और अनावश्यक रूप से गांधी परिवार की तरफ देखते हैं.

(बातचीत पर आधारित)

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें