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संन्यासी विद्रोह की गवाह भी है महानंदा नदी

सिलीगुड़ी की कहानी महानंदा की जुबानी : 3 सिलीगुड़ी. मैं महानंदा हूं. सिलीगुड़ी समेत उत्तर बंगाल के एक वृहद हिस्से की जननी और यहां के सदियों पुराने इतिहास की गवाह. महाभारत काल से लेकर आधुनिक महानगर सभ्यता की दौड़ की मैं साक्षी रही हू. बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास ‘ आनंदमठ ‘ के चरित्र भवानी […]

सिलीगुड़ी की कहानी महानंदा की जुबानी : 3
सिलीगुड़ी. मैं महानंदा हूं. सिलीगुड़ी समेत उत्तर बंगाल के एक वृहद हिस्से की जननी और यहां के सदियों पुराने इतिहास की गवाह. महाभारत काल से लेकर आधुनिक महानगर सभ्यता की दौड़ की मैं साक्षी रही हू.
बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास ‘ आनंदमठ ‘ के चरित्र भवानी पाठक और देवी चौधुरानी की लीला भूमि भी मेरे और तीस्ता के मध्यवर्ती इलाकों में रही है. 18 वीं सदी में हुए संन्यासी विद्रोह भी इसी क्षेत्र में हुआ जो राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन की एक अनूठी मिसाल है. लेकिन उससे पहले की कहानी की ओर मैं आपका ध्यान दिलाना चाहती हूं.
मनोरंजन पांडेय
सिलीगुड़ी : सन 1850 के आसपास सिलीगुड़ी के तराई क्षेत्र और डुवार्स को नो मेंस लैंड यानी अनधिकृत क्षेत्र कहा जाता था. इस क्षेत्र पर वर्चस्व के लिये सिक्किम, नेपाल और भूटान के अलावा कोचबिहार रियासत आपस में समय समय पर भिड़ते रहते थे. इस क्षेत्र की महत्वपूर्ण सामरिक स्थिति का ही लाभ उठाकर अंग्रेजों ने अपना प्रभुत्व इस क्षेत्र में कायम किया.
करीब डेढ़ सौ साल पहले बैकुंठपुर जंगल में जो आजकल वन विभाग का एक डिवीजन है, बाहर से आये संन्यासियों, फकीरों के साथ कई आपराधिक किस्म के लोगों ने बस्ती बसाई. इतिहासकार दुलाल दास के अनुसार अंग्रेज सरकार कानून भंग करने वालों को इस बीहड़ जंगल में छोड़ देती थी ताकि ये हाथी समेत वन्य जीवों के हमले में या मलेरिया व काला ज्वर की चपेट में आकर मर जायें. दिलचस्प तथ्य यह है कि ये ही लोग आगे चलकर संन्यासी विद्रोह के मूल आधार बने. देवी चौधरानी का बजरा यानी छोटा जहाज इसी बैकुंठपर जंगल के बगल से बहने वाली मेरी बहन तीस्ता में चलता था.
1789 में बंदियों के एक बड़े गिरोह ने बैकुंठपुर पर कब्जा कर लिया. इस जंगल में बेंत और चाय की झाड़ियां छाई रहती थी. आज भी बैकुंठपुर जंगल काफी घना है. सालूगाढ़ा के निकट राजफाफरी के समीप से यह जंगल शुरु होता है. इस जंगल में दिन दोपहर को भी आज भी प्रवेश करने की आदमी अकेले हिम्मत नहीं जुटा पाता है.
तो कल्पना कीजिये कि आज से डेढ़ सौ साल पहले यह जंगल कितना बीहड़ रहा होगा. यही वजह रही कि संन्यासी और फकीर विद्रोहियों जैसे मजनू मियां और बलराम ने इस इलाके को अपना मुख्यालय बनाया ताकि यहां अंग्रेज सैनिक आसानी से पहुंच नहीं सकें. उपन्यास आनंदमठ में बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने इस जंगल का सजीव चित्रण किया है.
उस समय डकैतों के आने जाने का रास्ता इसी वनांचल से होकर गुजरता था. कभी बैकुंठपुर रियासत बेहद खुशहाल हुआ करता था और वहां शाही रौनक रहती थी. कोचबिहार रियासत के संस्थापक थे महाराज विश्व सिंह. उनके बड़े भाई शिव सिंह को प्रजा प्यार से शिशु सिंह के नाम से पुकारती थी.
वे कोचबिहार रियासत के वंश परंपरा से प्रधान सेनापति और मंत्री थे. शिव सिंह के जिम्मे पूर्वी मोरंग का क्षेत्र था. इस क्षेत्र की देखरेख के लिये उन्होंने बैकुंठपुर में बैकुंठनाथ मंदिर बनाने के बाद वहीं पर राजधानी स्थापित की. यह वह समय था जब कोचबिहार रियासत अपने प्रभामंडल के शिखर पर था. बाद में बैकुंठपुर ने खुद को स्वतंत्र घोषित कर लंबे समय तक शासन किया. लेकिन जैसा कि इतिहास का नियम है.
किसी भी शासक का प्रभाव और ऐश्वर्य हमेशा कायम नहीं रहता. मालदा के शासक हुसैन शाह ने युद्ध में कोचबिहार की सेना को पराजित कर बैकुंठपुर पर भी कब्जा कर लिया. इस तरह से बैकुंठपुर के गौरव का समापन हुआ. लेकिन अंग्रेजों का प्रभुत्व कायम होने के बाद संन्यासियों और फकीरों ने बैकुंठपुर रियासत के शासकों के वंशजों की मदद से अपना प्रभाव विस्तार करना शुरु किया.
किसी जमाने में डकैतों का था बोलबाला
एक अन्य इतिहासकार शिव चटर्जी के अनुसार संन्यासियों और फकीरों एक संगठित समूह था जो खास तौर पर अंग्रेज अफसर, जमींदारों और राजकर्मचारियों को निशाना बनाता था. उनके खजाने को लूटकर उन्हें गरीबों में बांट दिया जाता था. इस तरह से इस दल का प्रभाव दिनोंदिन बढ़ने लगा.
संन्यासियों का यह दल कई बार विभिन्न राज्यों जैसे सिक्किम और नेपाल के लिये भाड़े के सैनिक के बतौर भी काम करते थे. कहना न होगा कि आनंदमठ की कहानी का प्लॉट लेखक को इसी संन्यासी विद्रोह से मिला था जिस पर उन्होंने गहन शोध भी किया था. आखिर में अंग्रेज सरकार ने इन विद्रोहियों के दमन के लिये दो सौ घुड़सवार भेजे. हालांकि इस विद्रोह 36 का दमन करने में सरकार को 36 साल लगे.
शिव चटर्जी के अनुसार इस विद्रोह की एक प्रमुख वजह यहां आया अकाल जिसके चलते किसानों की हालत वैसे ही असहाय हो गई थी. उसमें अंग्रेज राजकर्मचारियों के अत्याचार और उत्पीड़न से यहां के ग्रामीणों के पास बगवात करने के अलावा अन्य कोई चारा नहीं था. विद्रोह का अमूमन क्षेत्र वर्तमान बांग्लादेश से लेकर पश्चिम में पूर्णिया बिहार तक फैला हुआ था.
देवी सिंह पर राजस्व संग्रह की जिम्मेदारी
बंगाल के नायब दिवान रेजा खां के मातहत देवी सिंह पर उत्तर बंगाल में राजस्व संग्रह का दायित्व था. ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारियों, जागिरदार, बिचौलियों और नवाब के कर्मचारियों के अमानवीय लोभ के चलते किसान कड़ी संख्या में गांवों से पलायन कर गये थे. उसके बाद 1768-69 में सूखा पड़ने से खेतीबाड़ी बेकार हो गयी थी.
उस समय पूर्वी बंगाल के कुछ हिस्सों से लेकर बिहार के पूवांचल में करीब एक करोड़ लोगों की मौत भुखमरी से हो गई थी. उसी दौरान संन्यासियों और फकीरों के गिरोहों की गतिविधियां तेज हुई थीं. संन्यासियों के दल सशस्त्र रहते थे और अपना डेरा बदलते रहते थे. उस समय के अकाल के चलते काफी तादाद में भूमि से उजड़े किसान इन दलों में शामिल हो गये थे. उल्लेखनीय है कि पूर्वी बंगाल के ढाका में फकीर विद्रोह 1763 में हुआ था. उत्तर बंगाल में शुरु हुए संन्यासी/ फकीर विद्रोह का दमन करने में ब्रिटिश सरकार को 36 साल लगे.
देवी चौधुरानी और भवानी पाठक की बड़ी भूमिका
जनश्रुति है कि इस विद्रोह में देवी चौधुरानी और उनके गुरु भवानी पाठक की बड़ी भूमिका थी. उस विद्रोह में गोरखपुर जिले के मूल निवासी भवानी पाठक शहीद हो गये थे. आज भी शिकारपुर चाय बागान में स्थित काली मंदिर भवानी पाठक और देवी चौधुरानी की वीरगाथा की साक्षी बना हुआ है.
उस मंदिर में आज भी काली के भक्त मां काली के साथ ही मंदिर में बनी देवी चौधुरानी और भवानी पाठक की मूर्तियों की भी पूजा करते हैं. बताते हैं कि इसी मंदिर में देवी चौधुरानी का दल हमले की योजना बनाता था. वहीं पर एक समय ब्रिटिश सेना और देवी चौधुरानी के गिरोह के साथ जमकर मुठभेड़ हुई थी जिसमें भवानी पाठक शहीद हो गये थे.
Prabhat Khabar Digital Desk
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