सिलीगुड़ी: मैं महानंदा हूं. हिमालय की गोद में बसे दार्जिलिंग के रास्ते में एक हिल स्टेशन महानदी की पहाड़ियों की ढलान से मैं उछलती, फांदती समतल में सिलीगुड़ी की ओर प्रवाहित होते हुए लंबी यात्रा पूरी करती हूं. उत्तर बंगाल की चार-पांच प्रमुख नदियों में मेरा नाम बड़े ही आदर से लिया जाता है. मेरे ही तट पर सिलीगुड़ी के अलावा उत्तर बंगाल का एक प्रमुख जिला मुख्यालय शहर मालदा बसा हुआ है. पहाड़ी इलाकों से होते हुए उत्तर बंगाल के साथ बिहार होते हुए दक्षिण दिनाजपुर जिला होकर मैं मालदा में गंगा के साथ एकाकार हो जाती हूं.
मैं मात्र एक नदी न होकर उत्तर बंगाल में इतिहास के विस्तार की लीला भूमि भी हूं, जिसके किनारे बड़ी बड़ी ऐतिहासिक घटनाएं घटी हैं. मैं उन सभी घटनाक्रमों की साक्षी रही हूं. यह सही है कि मेरे साथ पहाड़ से बहकर आनेवाली तीस्ता भी मेरी मुंहबोली बहन है, लेकिन मेरा दर्द ऐसा है जिसका बयान करने पर इतिहास की बहुत सी परतें उभरकर सामने आ सकती हैं. रामायण में मेरा उल्लेख हलादिनी के नाम से हुआ है. मेरा वर्तमान नाम महाभारतकाल के पांडवों ने उस समय दिया, जब वे अज्ञातवास के दौरान मेरे वक्षस्थल से होकर बंगाल के किसी अधिबंग तीर्थ के लिए गुजरे थे.
महाभारत के वनपर्व में यह उल्लेख है कि पांचों पांडव माता कुंती और द्रौपदी के साथ जब इस क्षेत्र से गुजर रहे थे, तब उन्होंने हमारा नाम लेते हुए मुझे नंदा व महानंदा के नाम से अलंकृत किया था. नंदा संभवत: मेरी छोटी बहन थी, जो आजकल बालासन के नाम से जानी जाती है. चूंकि मेरा स्वरूप इतिहास के उस कालखंड में विशाल था, इसलिए पांडवों ने मेरा नामकरण महानंदा के नाम से किया, जो आज तक प्रचलित है. हालांकि आज यहां के लोगों की अदूरदर्शिता के चलते मेरा स्वरूप बेहद संकुचित और संकीर्ण हो गया है. इतिहास के थपेड़ों को झेलते हुए मेरी काया जीर्ण शीर्ण हो गयी है. केवल बरसात में ही मैं स्वस्थ महसूस करती हूं. मेरा स्वरूप देखकर लोग भी आनंदित और विभोर हो जाते हैं.
मेरे ही सामने प्राचीन काल का विख्यात पुंड्रवर्द्धन राज्य ने अपनी गौरव-गाथा लिखी. आज भी बांग्लादेश के हिस्से में गये दिनाजपुर जिले में उस राज्य के महल के अवशेष हैं, जो उस काल खंड की गवाही देते हैं.
सिलीगुड़ी नगरी का विकास
सिलीगुड़ी नगरी तो मेरे ही किनारे विकसित हुई और आज देश में एक महानगर के रुप में चर्चित है. वह 1901 की बात है जब सिलीगुड़ी महज एक गांव थी. इस गांव की आबादी 784 थी. यह इलाका तब ब्रिटिश शासन में फांसीदेवा महकमा के अंतर्गत था. फांसीदेवा के महकमा बनने के पहले वह इलाका सिक्किम राज्य के अधीन था. वहीं पर सिक्किम के राजकर्मचारी सजायाफ्ता अपराधियों को फांसी पर लटकाते थे. इसी वजह से उस जगह का नाम फांसीदेवा पड़ा. 1872-75 के बीच महकमा कार्यालय सिलीगुड़ी में स्थानांतरित किया गया. सबसे पहले महकमा कार्यालय फूस का बना था. 1923-24 में वह अगलगी की घटना में पूरी तरह जल गया.
उसके बाद 1925 में वर्तमान महकमा कार्यालय बना. तब से यह महकमा कार्यालय उसी हालत में मामूली फेरबदल के साथ कायम है. मुझे इस बात का खेद रहता है कि आज भी सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को उसी पुराने महकमा कार्यालय में काम करना पड़ता है. महकमा कार्यालय को मेरे बगल में स्थानांतरित करने की बात चली लेकिन कुछ लोग इसका विरोध कर रहे हैं. यह शहर एक गांव से विकसित होता हुआ आज महानगर में परिणत हो चुका है. लेकिन मेरी हालत दिनोंदिन बद से बदतर होती जा रही है. मेरी ओर किसी का ध्यान नहीं है.
कैसे पड़ा सिलीगुड़ी का नाम
चलिये इस विषय पर चर्चा करने से पहले मैं अपने नाम से परिचित कराऊं. मेरे नाम के बारे में विभिन्न विद्वानों के भिन्न मत हैं. कोई कहते हैं कि शिला राशि के नदी बहाव के चलते टुकड़े-टुकड़े होने से यह नाम शिला+गुड़ा मिलकर सिलीगुड़ी हुआ है. कई इसे लकड़ियों की बड़ी-बड़ी सिल्लियों से जोड़ कर इस नामकरण को बताते हैं, चूंकि कभी यह इलाका लकड़ियों की आपूर्ति के लिए जाना जाता था. इतिहासकार दुलाल दास के अनुसार इसी वजह से यहां कई आरा कल बने थे, जिनमें एक सरकारी सॉ मिल भी थी. वहीं, उत्तर बंगाल के इतिहास पर गहन अध्ययन कर चुके स्व. कैलाशनाथ ओझा के अनुसार सिली लेप्चा भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ अत्यधिक वर्षा होता है. इस इलाके में पहले काफी बारिश हुआ करती थी. उस समय यहां कारोबार के सिलसिले में सिक्किम की लेप्चा जनजाति के लोग आया करते थे. उन्होंने ही इस जगह को सिली बताया, जो बाद में राजवंशियों के गुड़ी नाम से जुड़ कर सिलीगुड़ी हो गया. राजवंशी भाषा में गढ़ उस जगह को कहते हैं, जहां कोई चीज बहुतायत में पायी जाती है. अनुमान किया जाता है कि लेप्चा और राजवंशी के शब्दों को मिलाकर सिलीगुड़ी नामकरण हुआ. ऐसा व्यावहारिक भी लगता है, चूंकि इस क्षेत्र के आदिम निवासी ये राजवंशी लोग ही हैं, जिनका लेप्चा जनजाति के लोगों के साथ संपर्क रहा है. इस क्षेत्र के एक अन्य इतिहासकार शिव चटर्जी के अनुसार पुराने लोग बताते हैं कि सिलीगुड़ी में मई-जून में प्रचंड गर्मी पड़ती थी. वहीं, जुलाई-अगस्त में अविराम वर्षा से बाढ़ के हालात पैदा हो जाते थे. 40 के दशक तक तीन सप्ताह तक लगातार बारिश होने का रिकार्ड है. उस समय वर्षा की मात्रा का वार्षिक औसत 5000 मिमी रहा है, जो बाद में घट कर 2000 मिमी तक आ गया. धीरे-धीरे यहां के आसपास के घने जंगल कटने लगे, जिससे बारिश की मात्रा में कमी आने लगी. एसओ माइली के अनुसार सिलीगुड़ी के टाउन स्टेशन के आसपास डाकघर, डाक बंगलो, काठ से निर्मित सिलीगुड़ी का थाना, 20 बिस्तर वाली डिस्पेंसरी ( जो बाद में अस्पताल बना) के अलावा 8 बंदियों वाला जेलखाना थे.
प्रदूषण से पर्यावरण को नुकसान
मेरी चिंता तो मुख्य रूप से सिलीगुड़ी महानगर को लेकर है, जिसका पूरा कचरा मेरी काया को जीर्ण-शीर्ण कर रहा है. लोग मेरे प्रति इतने संवेदनहीन हो गये हैं कि उन्होंने मेरी ही काया पर पक्के मकान तक बना डाले हैं, जिससे मेरा सांस लेना भी दूभर हो गया है. उन्हें इस बात का तनिक भी एहसास नहीं है कि वे मेरी उपेक्षा कर अपनी ही जिंदगी से खेल रहे हैं. अपने आसपास के पर्यावरण को नष्ट कर रहे हैं.