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जयंती विशेष: मानवता को राष्ट्रवाद से ऊंचे स्थान पर रखते थे गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर

रवींद्रनाथ के विश्व भारती में आज भी प्राचीन भारत की आत्मा बसती है. यहां के स्टूडेंट्स आज देश-विदेश में विश्व भारती शांति निकेतन का अमिट छाप छोड़ रहे है. पूरी दुनिया में विश्व भारती शांति निकेतन का एक अलग ही मान है

बोलपुर, मुकेश तिवारी:

”जो दी केऊ डाक सुने केऊ ना आशे तोबे एकला चलो रे..!” संभवतः इस गीत के बोल हर कोई सुना होगा. गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर की शिक्षा प्रतिष्ठान के रूप में स्थापित विश्वभारती शांति निकेतन की स्थापना 23 दिसंबर 1921 में की थी. आज पूरे एक सौ वर्ष हो गए हैं. आज भी यह विश्वभारती अपना परचम लहरा रहा है. गुरूदेव के सपनों के ज्ञान के मंदिर की लौ आज भी जल रही है.

रवींद्रनाथ के विश्व भारती में आज भी प्राचीन भारत की आत्मा बसती है. यहां के स्टूडेंट्स आज देश-विदेश में विश्व भारती शांति निकेतन का अमिट छाप छोड़ रहे है. पूरी दुनिया में विश्व भारती शांति निकेतन का एक अलग ही मान है. रवींद्रनाथ द्वारा स्थापित इस शिक्षा संस्थान को लेकर स्वयं देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी आह्वान किया था कि मानवता और आत्मीयता, जो विश्व कल्याण की भावना हमारे रक्त के कण-कण में है, उसका एहसास बाकी देशों को कराने के लिए विश्व भारती को देश की शिक्षा संस्थाओं का नेतृत्व करना चाहिए.

खुद रवींद्रनाथ टैगोर मानवता को राष्ट्रवाद से ऊंचे स्थान पर रखते थे. गुरुदेव ने कहा था, “जब तक मैं जिंदा हूं मानवता के ऊपर देशभक्ति की जीत नहीं होने दूंगा.” टैगोर गांधी जी का बहुत सम्मान करते थे. लेकिन वे उनसे राष्ट्रीयता, देशभक्ति, सांस्कृतिक विचारों की अदला बदली, तर्कशक्ति जैसे विषयों पर अलग राय रखते थे. हर विषय में टैगोर का दृष्टिकोण परंपरावादी कम और तर्कसंगत ज़्यादा हुआ करता था, जिसका सीधा संबंध विश्व कल्याण से होता था.

टैगोर ने ही गांधीजी को महात्मा की उपाधि दी थी. गुरुदेव ने बांग्ला साहित्य के ज़रिये भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नयी जान डाल दी. वे एकमात्र कवि हैं जिनकी दो रचनाएं दो देशों का राष्ट्रगान बनीं. भारत का राष्ट्रगान जन-गण-मन और बांग्लादेश का राष्ट्रगान आमार सोनार बांग्ला गुरुदेव की ही रचनाएं हैं.

गुरुदेव का सपना था कि विश्व भारती के प्रत्येक विद्यार्थी यहां से पढ़ कर देश हित में पूरी दुनिया के सामने अपनी अमिट छाप छोड़े. विश्वभारती के लिए यही गुरु दक्षिणा होगी. भारत की छवि को पूरी दुनिया भर में निखारने के लिए यहां से निकले विद्यार्थी कुछ करें. आज भी गुरुदेव का विश्व भारती अपने आप में ज्ञान का वो उन्मुक्त समंदर है, जिसकी नींव ही अनुभव आधारित शिक्षा के लिए रखी गयी थी.

रवींद्रनाथ नाथ टैगोर की रचनाओं में ईश्वर और इंसान के बीच मौजूद आदि संबंध विभिन्न रूपों में उभर कर आता है. साहित्य की शायद ही ऐसी कोई विधा है, जिनमें उनकी रचना न हो – गान, कविता, उपन्यास, कथा, नाटक, प्रबंध, शिल्पकला, सभी विधाओं में उनकी रचनाएं विश्वविख्यात हैं.

उनकी रचनाओं में गीतांजली, गीताली, गीतिमाल्य, कहानी, शिशु, शिशु भोलानाथ, कणिका, क्षणिका, खेया आदि प्रमुख हैं. उन्होंने कई किताबों का अनुवाद अंग्रेज़ी में किया. अंग्रेज़ी अनुवाद के बाद उनकी रचनाएं पूरी दुनिया में फैली और मशहूर हो गयीं. रवींद्रनाथ टैगोर ने करीब 2,230 गीतों की भी रचना की.

यही कारण है की रवींद्र संगीत बांग्ला संस्कृति का अभिन्न हिस्सा बन गया. टैगोर के संगीत को उनके साहित्य से अलग नहीं किया जा सकता. उनकी ज्यादातर रचनाएं तो अब उनके गीतों में शामिल हो चुकी हैं. हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की ठुमरी शैली से प्रभावित ये गीत मानवीय भावनाओं के कई रंग पेश करते हैं. अलग-अलग रागों में गुरुदेव के गीत यह आभास कराते हैं मानो उनकी रचना उस राग विशेष के लिए ही की गई थी.

आज भी विश्व भारती के लिए गुरुदेव का भजन आत्मनिर्भर भारत का विस्तार, भारत के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती है. इतिहास गवाह है कि भारत ने ज्ञान ही नहीं बल्कि समग्र विश्व को सर्वे भवंतु सुखिनः का भी ज्ञान दिया है. गुरुदेव स्वदेशी समाज का संकल्प लिए थे.

वह कृषि को आत्मनिर्भर देखना चाहते थे. वाणिज्य और व्यापार को आत्मनिर्भर देखना चाहते थे और उन्होंने आत्मनिर्भरता के इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए राष्ट्र निर्माण से अपनी आत्मा की प्राप्ति का ही विस्तार किया था. रविंद्र नाथ कहते थे कि सफलता और असफलता हमारा वर्तमान और भविष्य तय नहीं करती.

हो सकता है आपको किसी फैसले के बाद जैसा सोचा था वैसा परिणाम न मिले, लेकिन आपको फैसला लेने में डरना नहीं चाहिए. उन्होंने कहा था कि आपका ज्ञान सिर्फ आपका नहीं, बल्कि मानवता, समाज और देश की हर एक भावी पीढ़ियों की भी वो धरोहर है.

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