लखनऊ : उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में ऐतिहासिक जीत मिलने के सप्ताह भर बाद भारतीय जनता पार्टी इस पसोपेश में है कि वह देश के सबसे बड़े व हृदय प्रदेश माने जाने वाले यूपी की कमान सौंपे तो सौंपे किसे? शायद इसी पसोपेश की वजह से गुरुवार को विधायक दल की प्रस्तावित बैठक दो दिन के लिए टाल दी गयी, जिसमें पार्टी के बड़े नेता व कुशल रणनीतिकार वेंकैया नायडू शिरकत करने वाले थे.
अब भाजपा की विधायक दल की शनिवार को लखनऊ में शाम पांच बजे से बैठक है और रविवार को स्मृति उपवन में मुख्यमंत्री का शपथ ग्रहण है. इस बीच मीडिया में एक खबर सूत्रों के हवाले से आयी है कि मुख्यमंत्री पद की दौड़ में केंद्रीय रेल एवं संचार राज्य मंत्री मनोज सिन्हा का दावा सबसे अब सबसे मजबूत है. हालांकि बीएचयू आइआइटी में पढ़े इस टेक्नोक्रेट ने बड़ी शालीनता से यह कहा है कि वे मुख्यमंत्री पद की दौड़ में नहीं हैं और उन्हें ऐसी दौड़ के बारे में पता भी नहीं है.
दरअसल, उत्तरप्रदेश में अगले दो साल में भाजपा सरकार के कामकाज का सीधा नाता 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव से है. काम उत्तरप्रदेश में होगा तो उसका असर देश में दिखेगा और अगर वहां काम नहीं हुआ तो उसका कम से कम आंशिक असर तो भाजपा की चुनाव संभावनाओं पर पड़ेगा ही. आखिर नरेंद्र मोदी-अमित शाह ने अमूल-चूल बदलाव करने की बात कह कर सवा तीन सौ सीटें जो जीती है. इसलिए पार्टी व संघ परिवार कद्दावर शख्सीयत या फिर संभावनाओं वाली शख्सीयत में से किसी को मुख्यमंत्री चुनना चाहता है. इस कसौटी वे आधा दर्जन नाम पीछे छूट जाते हैं, जिनकी मीडिया में बीते एक सप्ताह से खूब चर्चा हो रही है.
कद्दावर शख्सीयत की कसौटी पर केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह सबसे खरे उतरते हैं, जबकि संभावनाओं वाली शख्सीयत की कसौटी पर मनोज सिन्हा सबसे खरे उतरते हैं. रेल राज्य मंत्री के रूप में मनोज सिन्हा के अच्छे कामकाज के कारण ही उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संचार मंत्रालय का प्रभार दिया, जिसे कॉल ड्रॉप मंत्रालय तक की संज्ञा दे दी गयी थी.
बहरहाल, राजनाथ सिंह को दिल्ली से लखनऊ भेजने पर भाजपा के लिए एक बड़ी दिक्कत यह होगी कि राष्ट्रीय राजनीति में उसके पास एक बड़ा नाम कम हो जायेगा, वह भी एक ऐसा शख्स जो केंद्रीय कैबिनेट में प्रोटोकॉल पर दूसरे नंबर पर आता हो. राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री पद को लेकर अपना अनमनापन मीडिया में दिखा चुके हैं और उनका बॉडी लैंग्वेज संकेत देता है कि वे खुद को राष्ट्रीय नेता मानते हैं और इस अनुभूति में सुख महसूस करते हैं. राजनाथ सिंह भाजपा के अंदर संघ के सबसे नजदीकी शख्सीयतों में गिने जाते हैं. ऐसे में उनके चयन पर उनका खुद का नजरिया संघ एवं भाजपा दोनों के लिए अहम है. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी केंद्र से वैकल्पिक नेतृत्व को खत्म नहीं करना चाहेगा.
एक अहम बात संघ व भाजपा में परंपरा रही है नये नेतृत्व को खड़ा करने की. यही कारण था कि महाराष्ट्र में जीत मिलने पर केंद्र से नितिन गडकरी को भेजने के बजाय देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री बनाया गया. आज फडणवीस राष्ट्रीय स्तर पर पहचाने जा रहे हैं और 44-45 साल का यह शख्स एक ऐसा नेता बन कर उभरा है, जिस पर महाराष्ट्र की राजनीति को संभालने व संवारने के लिए भाजपा-संघ पूरा भरोसा कर सकता है.
एक अहम बात और. नरेंद्र मोदी के भाजपा के शीर्ष नेता बन कर उभरने के बाद नेतृत्व चयन का एक नया पैटर्न उभरा है, जिसमें इक्का-दुक्का अपवाद हो सकता है. मोदी-शाह अपने इस नये पैटर्न के तहत किसी राज्य का मुख्यमंत्री सामान्यत: वैसे शख्स को चुनते रहे हैं जो वहां की प्रभावी जाति-बिरादरी से नहीं आता हो. हरियाणा की प्रभावी जाट बिरादरी के बजाय एक पंजाबी को सीएम बनाया गया, झारखंड में प्रभावी आदिवासी समुदाय की बजाय एक वैश्य को सीएम बनाया गया. महाराष्ट्र में प्रभावी मराठा समुदाय से नहीं बल्कि विदर्भ के एक युवा शख्स को सीएम बनाया गया. संभव है यह फार्मूला यूपी में भी अपनाया जाये, जहां प्रभावी ठाकुर बिरादरी से आने वाले राजनाथ सिंह की जगह कम संख्या वाले भूमिहार जाति के मनोज सिन्हा को सीएम बनाया जाये. इस फार्मूले का एक लाभ यह होता है कि दूसरी प्रभावी जातियों के पास ऐसे निर्णय पर सवाल उठाने के मौके नहीं रह जाते हैं.