!!बद्री नारायण, राजनीतिक विश्लेषक!!
बसपा का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा. मायावती का सोशल इंजीनियरिंग काम नहीं कर सका. बसपा का दलित-मुसलिम गंठजोड़ कमोबेश असफल रहा. हालांकि, सकारात्मक पहलू यह रहा है कि सपा के मुकाबले बसपा को सीटें भले ही आधी भी नहीं आयी हैं, लेकिन वोट प्रतिशत दोनों ही पार्टियों की तकरीबन समान (22 फीसदी) रहे हैं.
पारंपरिक दलित वोटर बसपा के साथ रहे. मायावती ने इस बार अन्य पिछड़ा वर्ग के बहुत से उम्मीदवारों को टिकट दिया था. उन्हें भरोसा होगा कि उम्मीदवार जाति का वोट भी बटोरने में कामयाब हो सकता है, दलित वोट तो बसपा का जनाधार है ही, लिहाजा आसानी से जीत हो सकती है. लेकिन, नतीजे आने के बाद स्पष्ट हो गया कि ऐसे उम्मीदवार अपनी जाति का वोट बसपा के पक्ष में नहीं ला पाये. ये सभी वोट भाजपा में चले गये. बसपा को उम्मीद थी कि उसके पूर्व के प्रदर्शन को ध्यान में रखते हुए दलित जनाधार के अलावा ओबीसी व सवर्ण वोट मिल सकते हैं, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. ओबीसी कुर्मी, कोइरी भाजपा के साथ चले गये. नतीजों से लग रहा है छोटी दलित जातियों के वोट भी बसपा को नहीं मिले. वर्ष 2007 में बसपा को बहुमत था. पहली बार सोशल इंजीनियरिंग चर्चा में आया.
नये समीकरण से मायावती की देश भर में प्रशंसा हुई. लेकिन, इस बार ऐसे सोशल इंजीनियरिंग पर जोर नहीं दिया गया, नतीजा बुरी हार के रूप में सामने आया. हालांकि, इस बार भी मायावती ने भाईचारा समितियां बनायी थीं, लेकिन काम नहीं आया. बसपा की हार का बड़ा कारण यह भी रहा मायावती ने सभी चीजें हाथ में ले लिया. कई नेताओं ने बसपा से नाता तोड़ लिया.
28 साल पहले की स्थिति में हाथी
मोदी सुनामी में ‘हाथी’ के पांव उखड़ गये. इस विस में बसपा की नुमाइंदगी 1989 के बाद सबसे कम होगी. दलित वोटों की दीवार दरक गयी. मुसलिम वोट भी नहीं मिला. बीती विधानसभा में 80 विधायक थे. 25.65 प्रतिशत वोट मिले.जो घट कर अब 22.2 प्रतिशत रह गये. वोट बैंक पार्टी 28 वर्ष पहले की स्थिति से भी पीछे चली गयी है. 1985 में 17 सीटों पर जीत मिली थीं. 1993 में यह 67 हो गयी. 2012 में बसपा को झटका लगा, मायावती को यूपी की सत्ता गवांनी पड़ी थी. इस बार 99 मुसलिम उम्मीदवार उतारे थे.