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राजधानी रांची के सबसे बड़े अस्पताल RIMS का हाल बदहाल, फर्श पर इलाज कराने को मजबूर हैं लोग

राज्य के सबसे बड़े अस्पताल रिम्स में प्रतिदिन दो से ढाई हजार मरीज विभिन्न ओपीडी में परामर्श के लिए आते हैं, वहीं, ओपीडी और इमरजेंसी के माध्यम से औसतन 300 से 400 मरीजों को भर्ती किया जाता है.

रांची, राजीव पांडेय : झारखंड राज्य निर्माण के 20 वर्ष से ज्यादा हो गये, लेकिन यहां के सबसे बड़े अस्पताल रिम्स में आज भी मरीज बेड नहीं मिलने के कारण फर्श पर इलाज कराने को मजबूर हैं. यहां 1200 बेड की स्वीकृति है, पर इलाज कराने के लिए औसतन 1800 मरीज भर्ती होते हैं. राज्य सरकार हर वर्ष करीब 600 करोड़ का फंड रिम्स को उपलब्ध कराती है, लेकिन फिर भी व्यवस्था में सुधार नहीं है. झारखंड गठन के वक्त राजेंद्र चिकित्सा महाविद्यालय एवं अस्पताल (आरएमसीएच) का नाम राजेंद्र इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइसेंस (रिम्स) किया गया था, जिसके पीछे उद्देश्य बेहतर और गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराना था. लेकिन रिम्स मरीजों और उनके परिजनों की उम्मीद पर खरा नहीं उतर पाया है. स्थिति यह है कि न्यूरो सर्जरी और हड्डी सहित अन्य विभागों में इलाज कराने आये मरीजों को बेड नसीब नहीं हो पाता है. फर्श पर मरीजों का इलाज किया जाता है. बेड पाने के लिए पैरवी और मशक्कत करनी पड़ती है. रिम्स प्रबंधन भी इस मामले में बेबस और लाचार है.

राज्य के सबसे बड़े अस्पताल रिम्स में प्रतिदिन दो से ढाई हजार मरीज विभिन्न ओपीडी में परामर्श के लिए आते हैं, वहीं, ओपीडी और इमरजेंसी के माध्यम से औसतन 300 से 400 मरीजों को भर्ती किया जाता है. रिम्स में स्वीकृत बेड की संख्या करीब 1200 है, लेकिन करीब 1,800 मरीजों का इलाज किया जाता है. इसमें सबसे ज्यादा न्यूरो सर्जरी, मेडिसिन और हड्डी विभाग में मरीज भर्ती होते हैं, जो स्वीकृत बेड से दोगुना होते हैं. नतीजा यह है कि यहां मरीजों का फर्श पर रखकर महीनों इलाज किया जाता है.

न्यूरो सर्जरी में 200 मरीज रहते हैं भर्ती, पर स्वीकृत बेड हैं 120

न्यूरो सर्जरी में स्वीकृत बेड की संख्या 120 है, लेकिन यहां 200 से ज्यादा मरीज भर्ती रहते हैं. न्यूरो सर्जरी विभाग में स्वीकृत बेड से 65 फीसदी ज्यादा मरीजों को फर्श पर रखना पड़ता है. वहीं, हड्डी विभाग में भी कमोबेश समान स्थिति है. हड्डी विभाग में भी 115 से 118 स्वीकृत बेड हैं, लेकिन यहां 140 से ज्यादा मरीज भर्ती रहते हैं. कई बार मेडिसिन, सर्जरी और बच्चा विभाग में भी मरीजों का फर्श पर इलाज होता है. न्यूरो सर्जरी और हड्डी विभाग में भर्ती मरीजों में से 80 फीसदी को सर्जरी की आवश्यकता होती है, लेकिन बेड की कमी के कारण कई मरीजों को महीनों फर्श पर ही रहना पड़ता है. सर्जरी के बाद मरीजों को बेड नहीं मिलने से गुणवत्तापूर्ण देखभाल नहीं हो पाती है. मरीज ही नहीं, डॉक्टरों को भी मरीज को परामर्श देने में परेशानी होती है.

लोहे के तार पर बांधी जाती हैं स्लाइन बोतलें

राज्य के सबसे बड़े अस्पताल रिम्स में फर्श पर भर्ती मरीजों को स्लाइन चढ़ाने के लिए दीवार पर लोहे का तार बांधा जाता है. स्लाइन स्टैंड भी मुहैया नहीं कराया जाता है. ठंड से बचाव के लिए कॉरिडोर की खिड़की को प्लास्टिक से ढंका जाता है. वहीं, बारिश होने पर परिजन मरीज को बचाने के लिए खाली स्थान ढूढ़ते है. गर्मी के मौसम में लू से बचाना भी मुश्किल होता है.

प्रखंड स्तर पर सुविधा से बदलेगी सूरत

जानकार बताते हैं कि रिम्स में मरीजों के लोड को तभी कम किया जा सकता है, जब प्रखंड, अनुमंडल और जिला स्तर पर चिकित्सा सेवा सुदृढ़ हो. पीएचसी-सीएचसी और सदर अस्पताल में मरीजों का इलाज हो जाये. रेडियोलॉजी और पैथोलॉजी जांच की सुविधा के साथ सर्जरी की सुविधा भी हो. हालांकि सरकार हमेशा ग्रामीण अस्पतालों में बेहतर चिकित्सा सेवा का दावा करती है, लेकिन यह सिर्फ कागजों पर ही रहता है.

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न्यूरो सर्जरी विभाग का एक्सटेंशन ही ढूंढ़ रहा रिम्स

न्यूरो सर्जरी, हड्डी और अन्य विभागों में मरीजों के दबाव और एनएमसी की फटकार पर कई बार रिम्स प्रबंधन ने प्रयास किया, लेकिन इसमें सफलता नहीं मिल पायी है. न्यूरो सर्जरी विभाग का एक्सटेंशन नेत्र विभाग में किया गया है, लेकिन वहां के डॉक्टरों ने आपत्ति दर्ज करा दी. उनका कहना था कि न्यूरो के मरीजों का इलाज उनके वार्ड में होने से आंख के मरीजों में संक्रमण का खतरा बढ़ जायेगा. विरोध के बाद न्यूरो सर्जरी के मरीजों को वहां भर्ती बंद कर दिया गया.

कैंसर विंग तो खुला, पर मेडिकल ऑन्कोलॉजी का इलाज नहीं

कैंसर मरीजों को बेहतर चिकित्सा सुविधा देने के लिए रिम्स में अलग से कैंसर सुपरस्पेशियलिटी विंग खोला गया था, लेकिन पांच से छह साल बाद भी मेडिकल ऑन्कोलॉजी विभाग संचालित नहीं हो पाया है. यहां कैंसर का इलाज दवाओं से नहीं होता है, क्योंकि परामर्श देने के लिए विशेषज्ञ डॉक्टर ही नहीं हैं. कुछ समय के लिए यहां एक या दो डॉक्टरों ने योगदान दिया, लेकिन वह छोड़कर चले गये. ऐसे में मेडिकल ऑन्कोलॉजी का इलाज कराने के लिए अभी मरीजों को निजी अस्पताल पर निर्भर रहना पड़ता है. सर्जरी विभाग और रेडियेशन ऑन्कोलॉजी विभाग में भी पर्याप्त डॉक्टर और मैनपावर नहीं हैं. कैंसर मरीजों के लिए शुरू किया गया डे-केयर विंग भी कारगर साबित नहीं हो पाया है.

कई विभागों में डॉक्टर ही नहीं मरीजों को होती है काफी परेशानी

रिम्स के कई विभागों में डॉक्टरों की कमी है, जिसका खामियाजा मरीजों को उठाना पड़ता है. ओपीडी में सीनियर डॉक्टरों का परामर्श नहीं मिल पाता है. जूनियर डॉक्टर ही परामर्श देते है. अधिकांश विभाग में असिस्टेंट प्रोफसर की कमी है, लेकिन डॉक्टरों की नियुक्ति नहीं हो पा रही है. चिंता की बात यह है कि अगर नेशनल मेडिकल कमीशन (एनएमसी) का निरीक्षण हो जाये, तो कई विभाग में पीजी की सीट कम हो जायेगी. सबसे ज्यादा समस्या हड्डी विभाग में है, यहां सिर्फ दो सीनियर डॉक्टर है. डॉक्टरों की कमी के कारण मरीजों को ऑपरेशन के लिए लंबी प्रतीक्षा करनी पड़ती है. मरीज महीनों तक ऑपरेशन की तिथि के लिए प्रतीक्षारत रहते हैं.

आउटसोर्स का जाल, रिम्स को हो रहा घाटा

रिम्स में चिकित्सा सेवा को बेहतर बनाने के लिए कई बार आउटसोर्सिंग कंपनियों का सहारा लेना पड़ता है, लेकिन यही आउटसोर्स कंपनियां रिम्स के लिए जंजाल बन गयी हैं. रिम्स को आर्थिक नुकसान तो होती ही है, मेडिकल एजुकेशन पर भी प्रभाव पड़ता है. रिम्स में ब्लड जांच के लिए मेडॉल को सरकार ने अधिकृत कर दिया है. वहीं, रेडियोलॉजी जांच के लिए हेल्थ मैप को जिम्मेदारी दी गयी है. हालांकि रिम्स के पास जांच की सुविधा है. रिम्स द्वारा बीपीएल और आयुष्मान योजना का मुफ्त इलाज किया जाता है. वहीं, 250 रुपये की जांच सभी मरीजों के लिए मुफ्त है, लेकिन निजी जांच एजेंसियां खुद जांच कर सरकार का पैसा लेती हैं. इसके अलावा मेडिकलवाले विद्यार्थियों को खुद के लैब में जांच नहीं होने से पढ़ाई और प्रशिक्षण का मौका नहीं मिल पाता है.

अधिकतर लिफ्ट रहते हैं खराब फंसते और चोटिल होते हैं मरीज

रिम्स के अधिकांश लिफ्ट खराब रहते हैं, जिससे मरीजों को परेशानी का सामना करना पड़ता है. सबसे ज्यादा परेशानी गर्भवती महिला और बच्चों को होती है, क्योंकि इनको तीसरे और चौथे तल्ला तक ले जाने के लिए सीढ़ी से होकर जाना पड़ता है. वहीं, कई बार लिफ्ट चलते-चलते फंस जाता है, जिससे मरीजों की जान सांसत में आ जाती है. डॉक्टरों को भी कई बार लिफ्ट के कारण चोटिल होना पड़ता है. हालांकि लिफ्ट के रखरखाव के लिए एजेंसी को सालाना 20 से 25 लाख रुपये दिये जाते है.

रिम्स में नर्सों की कमी, मरीजों की देखरेख में होती है परेशानी

रिम्स में नेशनल मेडिकल कमीशन (एनएमसी) और नर्सिंग कॉउंसिल ऑफ इंडिया (आइएनसी) के मानक के अनुरूप नर्स नहीं हैं. आइसीयू और एचडीयू सहित महत्वपूर्ण वार्ड में एक मरीज पर एक नर्स होना चाहिए, लेकिन रिम्स में एक से दो नर्स पर 30 से 40 मरीज हैं. नर्सों की कमी के कारण मरीजों की सही तरीके से देखभाल नहीं हो पाती है. एनएमसी और आइएनसी द्वारा भी लगातार नर्सों के खाली पदों को भरने का निर्देश दिया जाता है, लेकिन उसके बाद भी नियुक्ति के लिए आवेदन नहीं निकाला जाता है. हाल ही में 326 नर्सों को नियुक्त किया गया है, लेकिन तब भी नर्सों की कमी पूरी नहीं हो पाती है. करीब 1,500 नर्स को नियुक्त करने पर ही रिम्स के मरीजों की सही देखभाल हो सकती है. इधर, प्रबंधन भी मान रहा है कि नर्सों की बहुत कमी है, क्योंकि मरीजों का दबाव दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है. ओपीडी में मरीजों की संख्या 2,000 से 2,500 तक पहुंच गयी है. वहीं भर्ती मरीजों की संख्या 1,600 से 1,800 तक हो गयी है. ऐसे में पहले से नियुक्त 450 और नयी 326 नर्सों से व्यवस्थित चिकित्सा सेवा देने में मुश्किल हो रही है.

किडनी विभाग तो खुला, पर डायलिसिस यूनिट नहीं शुरू हो सकी

राज्य में किडनी मरीजों की संख्या तेजी से बढ़ी है, क्योंकि डायबिटीज और बीपी के मरीज बढ़े हैं. किडनी मरीजों को राज्य में बेहतर सुविधा मिले, इसके लिए रिम्स में वर्ष 2020 में नेफ्रोलॉजी विभाग खोला गया. एक विशेषज्ञ डॉक्टर की नियुक्ति भी की गयी है, लेकिन अभी भी फैकल्टी की काफी कमी है. इस कारण वर्ष 2022 में सिर्फ 3,686 मरीजों को परामर्श मिला. हालांकि विभाग के पास अपनी डायलिसिस यूनिट नहीं है, जिससे पुरानी व्यवस्था के तहत मेडिसिन विभाग के डायलिसिस विंग में इलाज होता है. वहीं, दो साल पूर्व स्वास्थ्य मंत्री बन्ना गुप्ता ने 20 बेड की डायलिसिस यूनिट खोलने की घोषणा की, लेकिन दो साल बाद भी इस यूनिट की स्थापना नहीं की जा सकी है. हालांकि रिम्स प्रबंधन का कहना है कि निजी एजेंसी को संचालन के लिए अधिकृत किया गया है, जिसको कार्यादेश दे दिया गया है. शीघ्र नेफ्रोलॉजी विभाग में डायलिसिस से मरीजों का इलाज शुरू हो जायेगा.

मरीजों को बेड मिलना ही चाहिए, पर रिम्स पर है दबाव

रिम्स में मरीजों को फर्श पर रखकर इलाज किया जाता है, आखिर मरीजों को कब बेड नसीब होगा?

मरीजों को बेड मिलना ही चाहिए, लेकिन रिम्स पर मरीजों का लोड है, इसलिए बेड उपलब्ध नहीं हो पाता है. हमारे स्तर से प्रयास किया जाता है कि भर्ती होते ही बेड उपलब्ध हो जाये, लेकिन यह नहीं हो पा रहा है. देश के बड़े अस्पतालों में मरीजों के लिए बेड निर्धारित हैं, इसके बाद भर्ती नहीं लिया जाता है. वहीं रिम्स में हम मरीजों को भर्ती करने से मना नहीं कर सकते हैं, इसलिए बेड मिलने में दिक्कत होती है.

मरीजों की मौत में रिम्स का आंकड़ा चौकाने वाला है, पिछले साल 11,000 मौतें हो गयी. इलाज में कहां कमी रह गयी?

मरीज की मौत तो अस्पताल में स्वाभाविक है, लेकिन हमारे यहां मौत का आंकड़ा इसलिए भी अधिक रहता है, क्योंकि अंतिम समय में निजी अस्पताल रिम्स रेफर कर देते हैं. एम्स में सबके लिए प्रावधान बना हुआ है, जिसके आधार पर वहां मौत का आंकड़ा कम होता है. निजी अस्पतालों से आये गंभीर मरीजों को भर्ती करते समये उनकी स्थिति की जानकारी सभी विभागों को लिखित रूप में रखनी है, जिससे यह पता चले कि मरीज को अंतिम समय में रेफर किया गया था.

रिम्स के कई डॉक्टर निजी प्रेक्टिस करते हैं, जिसका असर चिकित्सा सेवा पर पड़ता है, आखिर इसपर कब लगाम लगेगा?

डॉक्टरों को अपने कर्तव्य का स्वयं बोध होना चाहिए. ड्यूटी समय में अपना शत-प्रतिशत देना उनका कर्तव्य है, पर अधिकांश ऐसा नहीं करते हैं. ज्यादा से ज्यादा समय अस्पताल में देने से मरीजों को फायदा होगा. कार्य संस्कृति में बदलाव किसी में जोर जबरदस्ती से नहीं लाया जा सकता है. इसके लिए खुद आत्ममंथन करना होगा. रिम्स और सरकार द्वारा निजी प्रैक्टिस पर अंकुश लगाने का प्रयास किया जा रहा है. शासी परिषद से भी इस मामले में सख्ती के लिए अनुमति ली जा रही है.

सफेद हाथी बनकर रह
गया रिम्स का पेइंग वार्ड

28 करोड़ रुपये की लागत से बना 100 बेड का पेइंग वार्ड सफेद हाथी बनकर रह गया है. निजी अस्पतालों की तर्ज पर सुविधा देने के लिए पांच साल पहले पेइंग वार्ड का शुभारंभ किया गया था, जो आज भी मूर्त रूप नहीं ले पाया है. यू कहें तो यह सिर्फ कागजों में ही है. सूत्रों ने बताया कि पांच साल में बिल्डिंग के कुछ कमरों का ही उपयोग हो पाया, बाकी कमरे खाली ही रहे. आमदनी से ज्यादा इस बिल्डिंग के रखरखाव में रिम्स को खर्च करना पड़ रहा है. जिन कमरों में मरीजों को भर्ती भी किया गया, तो वहां वीआइपी कैदी ही रहे. जबकि 1,000 रुपये प्रतिदिन पर मरीजों को निजी अस्पताल की तरह सुविधा मिलनी थी.

जानकारों ने बताया कि वर्ष 2018 में इस बिल्डिंग को शुरू किया गया था. संचालन के कुछ दिनों बाद ही पेइंग वार्ड के लिए अलग से डॉक्टर और मैनपावर को नियुक्त करना था, लेकिन अभी तक इसके लिए नियुक्ति की प्रक्रिया चल रही है. यहां पैरवी पर ही मरीजों की भर्ती होती है. डॉक्टर भी मरीजों को भर्ती नहीं करना चाहते है, क्योंकि यहां नर्सिंग और पारा मेडिकल ही नहीं है. बिल्डिंग के हर कमरे में एसी, फ्रीज और टीवी की सुविधा है. कमरे में परिजनों के रहने की व्यवस्था भी है. पेइंग वार्ड में जैसी व्यवस्था है, उसके लिए निजी अस्पतालों में मरीजों से 3,500 से लेकर 4,000 रुपये लिये जाते हैं. हालांकि रिम्स का दावा है कि शीघ्र ही इस बिल्डिंग का उपयोग होने लगेगा. डॉक्टरों की नियुक्ति की जा रही है.

रिम्स में शुरू हुई बाइपास सर्जरी, 30 को मिली जिंदगी

रिम्स ने तमाम दबाव के बावजूद कुछ बेहतर काम भी किये हैं. कार्डियोथोरेसिक एंड वैस्कुलर सर्जरी विभाग (सीटीवीएस) में तीन कार्डियेक सर्जन हैं, जिसमें विभागाध्यक्ष डॉ विनीत महाजन के निर्देश में 30 बाइपास सर्जरी की गयी है. वहीं, 182 मरीजों की ओपेन हार्ट सर्जरी की गयी है. विगत एक साल (फरवरी 2022 से फरवरी 2023 तक) में 6,610 हार्ट के मरीजों को परामर्श दिया गया है. 605 मरीजों को वार्ड में भर्ती कर इलाज किया गया है. वहीं, 182 ओपन हार्ट सर्जरी और 258 थोरेसिक एंड वास्कुलर सर्जरी की गयी. डॉ विनीत महाजन ने बताया कि सीटीवीएस विभाग में पहली बार हजारीबाग की महिला की अवैक बाइपास सर्जरी ( सर्जरी में डॉक्टर मरीज से बातचीत कर रहे थे) की गयी थी. इसे मेडिकल भाषा में बीटिंग हार्ट सर्जरी भी कहा जाता है. इसमें मरीज को पूरी तरह बेहोश नहीं किया गया था. यहां झारखंड के साथ-साथ बिहार, ओड़िसा और पश्चिम बंगाल के मरीजों की सर्जरी की गयी है. आयुष्मान और बीपीएल मरीज का नि:शुल्क इलाज किया जाता है. वहीं, सामान्य मरीजों की सर्जरी 60 से 80 हजार रुपये में हो जाती है. इसी ऑपरेशन के लिए निजी अस्पतालों में तीन से चार लाख रुपये तक का खर्च आता है.

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