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दवा कंपनियों से सांठगांठ कर मरीजों को लूटने में लगे हैं कॉरपोरेट अस्पताल, ऐसे होता है एमआरपी पर खेल
राजीव पांडेय एक ही दवा की दो कीमतें, मरीज की हैसियत देख बनाते हैं बिल रांची : राजधानी रांची के बड़े और कॉरपोरेट अस्पताल दवा के खर्च के नाम पर मरीजों को खुलेआम लूट रहे हैं. ये अस्पताल देश की बड़ी और प्रतिष्ठित दवा कंपनियों से सांठगांठ कर दवाओं की कीमताें में हेरफेर करते हैं. […]
राजीव पांडेय
एक ही दवा की दो कीमतें, मरीज की हैसियत देख बनाते हैं बिल
रांची : राजधानी रांची के बड़े और कॉरपोरेट अस्पताल दवा के खर्च के नाम पर मरीजों को खुलेआम लूट रहे हैं. ये अस्पताल देश की बड़ी और प्रतिष्ठित दवा कंपनियों से सांठगांठ कर दवाओं की कीमताें में हेरफेर करते हैं.
इस पर किसी मरीज के परिजन को शक भी नहीं होता है. ‘प्रभात खबर’ ने जब तहकीकात की, तो पता चला कि दवा कंपनियां अपने उत्पाद की कीमतों में हेराफेरी करती हैं. कंपनियां एक ही कंपोजिशन की दवाओं की दो तरह की कीमत निर्धारित करती हैं.
इनमें एक सस्ती होती है, जबकि दूसरी महंगी होती है. हैरानी तब होती है, जब एक ही दवा की कीमत में 2,500 से 3000 रुपये तक का अंतर देखने को मिलता है. अस्पताल प्रबंधन इन दवाओं का उपयोग मरीज की हैसियत और आर्थिक स्थिति के हिसाब से करते हैं. अस्पताल प्रबंधन बड़ी चालाकी से दवा कंपनियों के साथ ऐसी सांठगांठ करते हैं, जो आसानी से पकड़ में नहीं आता है. सबसे ज्यादा हेराफेरी एंटीबायोटिक दवाओं (जीवन रक्षक दवाओं) की कीमतों में होती है, जो मरीज को देना बेहद जरूरी होता है.
कंपनी और अस्पताल के बीच पहले ही तय हो जाता है मार्जिन : दवा कंपनियां दवाओं की एमआरपी (मैक्सिम रिटेल प्राइस) तय करने से पहले अस्पताल प्रबंधकों से बातचीत करती हैं. दवाओं की बिक्री से मिलनेवाला मुनाफा (मार्जिन) तय होने के बाद एक ही कंपोजिशन वाली दवाओं के लिए दो तरह की कीमतें तय की जाती हैं. इसके बाद प्रोडक्ट तैयार कर अस्पतालों को उसका स्टॉक भेज दिया जाता है.
मरीज की हैसियत के हिसाब से अस्पताल में उपयोग होती है दवा
अस्पताल में दो तरह की दवा आने के बाद मरीज की हैसियत के हिसाब से उसका उपयोग किया जाता है. अस्पताल में अगर आयुष्मान भारत योजना या कोई गरीब मरीज इलाज करा रहा है, तो उसके लिए सस्ती एमआरपी (1,089 रुपये) वाली दवा का इस्तेमाल किया जाता है.
वहीं, अगर मरीज के पास हेल्थ इंश्योरेंस कार्ड है या मरीज पैसेवाला है, तो उसी कंपनी की महंगी एमआरपी (3,619 रुपये ) वाली दवा का इस्तेमाल किया जाता है. इसके अलावा बुखार में भी महंगी एमआरपी वाली दवा का उपयोग किया जाता है. पारासिटामोल के इंजेक्शन की वास्तविक कीमत 30 से 40 रुपये होती है, जबकि एमआरपी 350 से 400 रुपये तक होती है.
क्रिटिकल केयर यूनिट में सबसे ज्यादा खर्च की जाती है महंगी दवाएं
अस्पताल में महंगी दवा का उपयोग क्रिटिकल केयर विंग में सबसे ज्यादा किया जाता है. यहां मरीज को पता होता है कि बीमारी बड़ी है और मरीज गंभीर है. ऐसे में उसको बताया जाता है कि जान बचाने के लिए महंगी दवा देनी होगी, जिससे मरीज हर प्रकार का खर्च करने के लिए तैयार हो जाता है.
कंपनियां एक ही दवा के लिए तैयार करती हैं दो पैकिंग, दोनों की कीमतें अलग-अलग
कीमत में होता है 2500 से 3000 रुपये तक का अंतर
प्रभात खबर के पास कई कंपनियों की एक ही दवा की दो पैकिंग और उसकी अलग-अलग कीमत से संबंधित साक्ष्य मौजूद हैं. यहां पर सिर्फ उदाहरण के लिए एक दवा कंपनी की तस्वीर छाप रहे हैं.
ऐसे होता है एमआरपी पर खेल
मान लीजिए कि एक कंपनी ने एक एंटीबायोटिक दवा (इंजेक्शन) बनायी, जिसमें मॉलिक्यूल और कंपोजीशन एक ही है और उसके बनाने में खर्च भी एक ही आया है. फर्क सिर्फ इतना होता है कि इंजेक्शन के एक पैक में अतिरिक्त सूई डाल दी जाती है. जिसका उत्पादन लागत दो से पांच रुपये होता है.
लेकिन, कंपनी बिना सूई वाले इंजेक्शन की एमआरपी 1,089 रुपये और सूई के साथवाले इंजेक्शन की एमआरपी 3,619 रुपये निर्धारित करती है. यानी एमआरपी में 2,500 रुपये का अंतर हो जाता है. इसके बाद दवा की दोनों लॉट अस्पताल काे मुहैया करायी जाती है.
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