रांची : वरिष्ठ पत्रकार प्रभु चावला ने कहा कि पत्रकारों के सामने समस्या है. समस्या यह कि पत्रकारिता केवल मिशन नहीं है, यह बिजनेस भी है. यहां बिजनेस मॉडल की बात हो रही है. यह मॉडल बनाया किसने है? 20 रुपये का अखबार पांच-छह रुपये में बेचने का फैसला किसका है? दरअसल आपसी प्रतियोगिता ने यह मॉडल बनाया है. देश भर में पांच हजार अखबार तथा तीन सौ से अधिक न्यूज चैनल होंगे, तो क्या होगा? ये सब क्या अच्छी खबर देना चाहते हैं? देश-समाज को सुधारना चाहते हैं? ज्यादातर ब्लैक मेलर हैं, बिजनेस करना चाहते हैं.
दरअसल मीडिया ने अपनी यह हालत खुद बनायी है. तीन को छोड़ ज्यादातर न्यूज चैनल मुनाफे में नहीं चल रहे. पर फिर भी चल रहे हैं. इनमें पैसा कौन व क्यों लगा रहा है? एक चिल्लाने वाले की मीडिया प्रोपर्टी 800 करोड़ रुपये की हो गयी है. दरअसल हम एडिटर भी प्रोपराइटर की तरह काम करते हैं. इसलिए पहले का रोल मॉडल अब बिजनेस मॉडल हो गया है. मीडिया में बाइलाइन (किसी पत्रकार के नाम से लिखी गयी कोई खबर) के बदले जब बॉटम लाइन (बिजनेस व मुनाफा) महत्वपूर्ण हो जाये, तो यही होगा. राजीव गांधी के समय में जब वीपी सिंह वित्त मंत्री थे, न्यूज प्रिंट पर अायात शुल्क पांच फीसदी बढ़ा दिया गया था.
देश के सभी बड़े अखबार व मीडिया हाउस के लोगों ने हल्ला मचा दिया था. रातों रात तत्कालीन सरकार को फैसला रद्द करना पड़ा था. पर अभी यह टैक्स 10 फीसदी कर दिया गया, तो ज्ञापन देकर चुप्पी साध ली गयी है. कुछ नहीं हो रहा. विज्ञापन पर आधारित बिजनेस मॉडल की दुहाई दी जाती है. आप 20 रुपये का अपना अखबार छह रुपये में क्यों बेचते हैं? आपके अखबार का कवर प्राइस (इसका मूल्य) किसी पाठक ने तो नहीं रखा है. यह फॉल्ट मॉडल अखबारों ने खुद बनाया है. श्री
चावला ने कहा कि जहां तक पत्रकार व पत्रकारिता की बदनामी का बात है, तो टीवी चैनल वालों के कारण सबकी बदनामी हो रही है. अाम लोग उन्हीं के बारे ज्यादा बोलते हैं. चैनलों में होस्ट अब ज्यादा बोलते हैं, मेहमान वक्ता को कम समय देते हैं. इन्हें लगता है कि यही बड़े ज्ञानी हैं. ज्यादा बोलने के चक्कर में ये लोग खुद को एक्सपोज कर देते हैं. इन टीवी चैनलों के कारण ही मीडिया बदनाम हो रही है. पहले कहा जाता था कि खबर वही है, जो छुपाया जा रहा है, बाकी सब प्रचार या विज्ञापन है. अब विज्ञापन या प्रचार को ही खबर बताया जा रहा है. परिभाषा बदल गयी है.
सवाल है कि हम बदनाम क्यों हो रहे हैं? अब पत्रकार, संपादक मुख्यमंत्री, मंत्री व अफसरों से नजदीकियां बढ़ाने में लगे हैं. इनसे पहचान होने पर वह गौरवान्वित होते हैं. मुख्यमंत्रियों से मिलने के लिए अखबार के संपादक-मालिक भी सर-सर करने लगे हैं. रामनाथ गोयनका से मिलने के लिए प्रधानमंत्री उनके कार्यालय आते थे. यह फर्क हो गया है. अब सरकार के बड़े लोग जब दौरा पर जाते हैं, तो संपादक से अपनी पसंद के पत्रकार की मांग करते हैं. पहले संपादक साफ कह देते थे कि कि रिपोर्टिंग कौन करेगा, यह देखना हमारा काम है.
परेशानी यह है कि हम ही बिकाऊ हो गये हैं. पहले हमारा रुख सत्ता विरोधी हुआ करता था. अब हम सत्ता से जुड़ने के लिए बेताब रहते हैं. बड़े-बड़े पत्रकार प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्रियों के साथ अपने संबंधों का खुलासा कर खुश होते हैं. मीडिया के लोग कोठियां बनाने व संपत्ति खड़ी करने में लगे हैं. घर बनाइये, अपनी जरूरत के लिए पैसे भी कमाइये, पर पत्रकारिता के पूरा बिजनेस मत बनाइये. तो सवाल है भविष्य क्या है. एक बात साफ है कि भविष्य प्रिंट जर्नलिज्म का है.
वह भी हिंदी जर्नलिज्म का. अंगरेजी अखबारों तथा पत्र-पत्रिकाअों की रीडरशिप कम हो रही है. वर्तमान बिजनेस मॉडल से निकलने के लिए अपनी कीमत बढ़ाएं, प्रसार संख्या घटाएं. विज्ञापन की कीमत बनाये रखें. अखबार में कंटेंट अच्छी होगी, तभी चलेगा. बड़े लोगों से खबर निकालना मुश्किल हो गया है. हमें नीचे के अोहदे वालों से खबर निकालनी है. हमने छोटे लोगों से मिलना-जुलना कम कर दिया है. पाठक भी यह समझें कि अखबार पढ़ने के लिए पैसा देना होगा. पत्रकारिता आज भी सबसे स्वतंत्र है. मुझे विश्वास है हम सब कह सकेंगे-सारे जहां से अच्छी पत्रकारिता हमारी.
बोले वरिष्ठ पत्रकार आर राज गोपालन आज कम हो गयी हैं पत्रकारिता से उम्मीदें
वरिष्ठ पत्रकार आर राजगोपालन ने प्रभात खबर मीडिया कॉन्क्लेव 2019 में रविवार को कहा कि आज पत्रकारिता से लोगों की उम्मीदें कम हो गयी हैं. आज पत्रकारों को खबरें नहीं मिल रही हैं. दिल्ली में बैठे पत्रकारों को बड़े निर्णयों की भनक तक नहीं लगती है. देश में कई बड़े निर्णय के बारे में किसी को पता नहीं चला. देश में नोटबंदी हो गयी और किसी को खबर नहीं मिली.
कश्मीर से धारा 370 हटाये जाने के मामले का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि यह बात सभी जान रहे थे कि कश्मीर में कुछ होनेवाला है, लेकिन जब तक गृह मंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में इसकी घोषणा नहीं की किसी को कुछ भी पता नहीं चला. दिल्ली में बैठे लगभग 400 पत्रकार कुछ नहीं बता सके. ये पत्रकार क्या कर रहे थे. आज पत्रकारों को कागजात नहीं मिलता. इससे पत्रकारिता कमजोर हो रही है. एक समय था, जब प्रिंट मीडिया में छपी खबरों पर सरकार गिर गयी थी. जब पत्रकारों को कोई सीक्रेट सूचना ही नहीं मिलेगी, तो प्रिंट मीडिया का भविष्य क्या होगा? ऐसे में पत्रकारिता का भविष्य ठीक नहीं लगता.
नहीं हो रही खोजी पत्रकारिता
आर राजगोपालन ने अपने 42 साल की पत्रकारिता के अनुभव को साझा करते हुए कहा कि अब खोजी पत्रकारिता नहीं हो रही है. कागजात पर आधारित पत्रकारिता अब पुराने दिनों की बात होती जा रही है. दिल्ली में बैठे पत्रकारों को कोई कागजात नहीं मिल रहा है. आज भारत समेत पूरे विश्व में समाचार पत्रों की भूमिका सीमित होती जा रही है. लोगों का पत्रकारिता पर से विश्वास कम हो गया है. इसमें सुधार की संभावना काफी कम दिख रही है.
अखबारों के समक्ष विश्वसनीयता बनाये रखना वर्तमान में चुनौती : आलोक मेहता
रांची :वरिष्ठ पत्रकार पद्मश्री अालोक मेहता ने कहा कि पत्रकारिता व अखबारों के समक्ष चुनौतियां आज आ गयी हैं, ऐसी बात नहीं है. पत्रकारिता पहले भी चुनौतियों का समाना करते रही है. अखबार पर बाजार व विज्ञापन का दबाव शुरुआती दौर से रहा है. पहले भी प्रथम पेज पर समाचार के बीच में विज्ञापन छपते थे. संपादक व प्रबंधन हमेशा से चुनौती का सामना करता रहा है. ऐसे में यह कहना कि आज पत्रकारिता व प्रबंधन के समक्ष बड़ी चुनौती है, सही नहीं होगा. अखबारों के समक्ष आज सबसे बड़ी चुनौती अपनी विश्वसनीयता बनाये रखना है. श्री मेहता ने कहा कि प्रादेशिक स्तर पर अखबारों के पास चुनौतियां अधिक हैं. प्रदेश व जिला स्तर पर पत्रकारिता करनेवालों के समक्ष राष्ट्रीय स्तर के पत्रकारों की तुलना में अधिक चुनौती है. आज टेलीविजन के दौर में भी लोग अखबार पढ़ रहे हैं. कंटेंट अखबार के लिए हमेशा से ही महत्वपूर्ण रहा है और आगे भी रहेगा. बिना कंटेंट का अखबार नहीं चलेगा. बेहतर अखबार के लिए मजबूत कंटेंट होना आवश्यक है. आज अखबारों का स्वरूप व तकनीकी बदला है. अखबार का चलना इस बात पर भी निर्भर करता है कि आप क्या दे रहे हैं. प्रिंट मीडिया का भविष्य हमेशा रहा है और आगे भी रहेगा. ऐसा नहीं है कि प्रिंट का भविष्य समाप्त हो गया है. आज प्रिंट मीडिया को अपने प्राथमिकता में बदलाव की आवश्यकता है. प्रिंट मीडिया के समक्ष आज इस बात की चुनौती है कि वे लोगों को वह बताये जो लोग टेलीविजन व मोबाइल में नहीं देख पा रहे हैं. आज टीवी मोबाइल के दौर में भी लोग अखबार पढ़ना चाहते हैं. मोबाइल आ जाने से अखबारों की पठनीयता कम नहीं हुई है. टेलीविजन के पास अखबारों की तुलना में नयी चीजे कम हैं.
अखबारों को तय करनी होगी अपनी प्राथमिकता
श्री मेहता ने कहा कि अखबारों को अपनी प्राथमिकता तय करनी होगी. आज हम अखबार में सबकुछ पढ़ाना चाहते हैं. यह दौर 80 के दशक से शुरू हुआ. इस कारण हम दबाव में आते हैं.
अखबारों को टेबलाइड कर दिया गया है. अखबार के अंदर ही विचार, समाचार, ग्लैमर सबकुछ देने लगे. ऐसे में हमें अपनी प्राथमिकता तय करनी हाेगी. अखबारों पर दबाव आता है, पर हमें अपनी सीमा में रहनी चाहिए. दबाव के बीच भी निर्भीक पत्रकारिता करने की चुनौती है.
ग्रामीण क्षेत्रों में अखबार बढ़ा सकते हैं रीडरशिप
श्री मेहता ने कहा कि ग्रामीण क्षेत्रों में समाचार पत्रों के लिए काफी गुंजाइश है. ग्रामीण क्षेत्रों में काफी संभावनाएं हैं. देश भर के ग्रामीण क्षेत्रों में अखबारों का रीडरशिप बढ़ाया जा सकता है. आज लोगों में पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने की प्रवृत्ति बढ़े इसके लिए पुस्तकालय बनाने का अभियान चलाना चाहिए.
जो पुस्तकालय पहले से चल रहे हैं उसका बेहतर संचालन हो इसे सुनिश्चित किया जाये. इसके लिए समाचार पत्रों को भी प्रयास करना चाहिए. ग्रामीण क्षेत्रों में पुस्तकालय बनने चाहिए. वहां पत्र-पत्रिकाएं होंगी तो लोगों में पढ़ने की प्रवृत्ति बढ़ेगी.
नयी पीढ़ी में हैं काफी संभावनाएं
श्री मेहता ने कहा कि भ्रष्टाचार, महंगाई , गरीबी व अन्य समस्याएं देश में पहले भी रही हैं. स्व इंदिरा गांधी का भाषण भी उठा कर पढ़ें ताे ये सब बातें मिल जायेंगी. ऐसा नहीं है कि ये सब बातें आज आ गयी हैं. इन सब के बीच भी काफी काम हुए हैं. हमें संतुलन बनाकर चलना चाहिए. अखबार को बढ़ाने के लिए नये तरीके ढूंढ़ने की आवश्यकता है. चीजों को समझने की जरूरत है़ नयी पीढ़ी में काफी संभावनाएं हैं.
मीडिया सिर्फ एक ही पहलू देखता है दूसरा पहलू नहीं : संजीव श्रीवास्तव
अब ‘एकला चलो रे’ का समय नहीं है. पूरी दुनिया में मीडिया की यही स्थिति है
नयी पीढ़ी हम सबसे ज्यादा स्मार्ट, समझदार व सक्षम है
अंध भक्ति या घोर विरोध के बजाय एक संतुलन वाली पत्रकारिता जरूरी है
रांची : मैंने किसी अखबार प्रबंधन से इतनी समझदारी से अपनी बात कहते नहीं सुना था. दबावों के बीच कोई ऐसा बिजनेस मॉडल चुनना सचमुच चुनौती है, जिससे एक बेबाक व ईमानदार पत्रकारिता भी हो सके. कुल मिला कर संघर्ष, मिशन व आंदोलन की जगह सीमित हो चुकी है. ऐसे में यह वक्त इंटेलिजेंट कॉम्प्रोमाइज मेकिंग (बुद्धिमानी के साथ समझौता करने) का है. पर ज्यादातर मीडिया हाउस स्टुपिड कॉम्प्रोमाइज मेकिंग में लगे हैं.
समय-काल के अनुरूप खुद को ढालना ही नारद के वक्त से पत्रकार व पत्रकारिता के लिए बेहतर रहा है. अब ‘एकला चलो रे’ का समय नहीं है. पूरी दुनिया में मीडिया की यही स्थिति है. यह दुनिया अब दबंग शासकों की है. इसके साथ तारतम्य बनाना ही चुनौती है. उपराष्ट्रपति ने प्रभात खबर के 10 अगस्त के कार्यक्रम में मीडिया के लिए जो कुछ कहा, उसका सारांश यहां बताया गया.
पर आदर्शवादी तरीके से यह बिजनेस मॉडल नहीं चलाया जा सकता, क्योंकि आप सरकार के विज्ञापन पर निर्भर हैं. इससे पहले की सरकार में भी यह सब था, पर अलग तरीके से. वर्तमान सरकार में यह अलग तरीके से है. दरअसल, कोई नहीं चाहता कि मीडिया स्वतंत्र रहे.
अक्सर यह सुना जाता है कि अब के पत्रकार पहले जैसे नहीं हैं. पर मेरा मानना है कि नयी पीढ़ी हम सबसे ज्यादा स्मार्ट, समझदार व कंपिटेंट है. उनकी त्रासदी यह है कि मीडिया की दुनिया बदल रही है. हम नये पत्रकारों को बीबीसी के प्रशिक्षण में बताया गया था कि किसी भी कहानी के दो पहलू होते हैं.
पर आज की ज्यादातर मीडिया किसी बात के एक ही पहलू पर बात करती है. उसे यह एहसास भी नहीं रहता कि उसके पाठक, दर्शक या श्रोता यह सब समझते हैं. अापका झुकाव या रुझान भले दिख जाये, पर व्यापक रूप से तटस्थता का ट्रेंड भी गायब हो रहा है. अंध भक्ति या घोर विरोध के बजाय एक संतुलन वाली पत्रकारिता जरूरी है.
आप हमेशा किसी आइडियोलॉजी में बंध कर बात नहीं कर सकते. जो सही है, उसे सही तथा जो गलत है, उसे गलत कहना चाहिए. पर यह बात गायब हो रही है. न्यूट्रल मीडिया के लिए स्पेस कम होता जा रहा है. अब तो डिस्कशन पैनल में भी वक्ता बड़े तरीके से चुने जाते हैं.
दो पक्ष में तथा दो विपक्ष में. पर कोई एक साथ पक्ष-विपक्ष नहीं हो सकता. ऐसे लोग मीडिया में नकार दिये जाते हैं. नेशनल मीडिया के बाद चुनौती राज्य की या क्षेत्रीय मीडिया के लिए ज्यादा है. खास कर चुनाव में जनता फैसला कर चुकी होती है, पर पत्रकारिता को अपनी आवाज सुनना है. मीडिया इन्हीं चुनौतीपूर्ण रास्ते का सफर तय कर रही है.