रिम्स अॉडिटोरियम में विश्व रक्तदाता दिवस पर रक्तदाता और संस्थान हुए सम्मानित
रांची : साइंस और तकनीक की तरक्की से हम कृत्रिम किडनी और दिल बनाने की अोर अग्रसर हैं. लेकिन इतनी तरक्की के बाद भी कृत्रिम रक्त अब तक नहीं बन सका है. दरअसल साइंस कृत्रिम रक्त (होमोग्लोबिन) बनाने की तरफ एक कदम भी नहीं उठा सका है. साफ है कि खून सिर्फ प्राकृतिक तरीके से ही मिल सकता है, इसलिए यह बेहद कीमती है.
रक्तदान तो कम हो ही रहा है, पर हमें इसका गैर जरूरी उपयोग भी रोकना होगा. किसी मरीज को खून चढ़ाने की सलाह देने से पहले डॉक्टर भी गंभीरता से विचार करें कि उक्त मरीज को क्या खून की जरूरत वास्तव में है? ये बातें रिम्स के निदेशक डॉ डीके सिंह ने कहीं. वह रिम्स अॉडिटोरियम में विश्व रक्तदाता दिवस पर बुधवार को रक्तदाता और रक्तदान में सहयोग करने वाली संस्थाअों के सम्मान समारोह में बोल रहे थे.
रक्तदान शिविर ज्यादा लगें : मौके पर डॉ सिंह ने कहा कि स्वैच्छिक रक्तदाता नहीं होने से ही हमें रिप्लेसमेंट (किसी के बदले में) डोनर पर जोर देना पड़ रहा है. रक्तदाता और रक्तदान शिविर, दोनों की संख्या अौर बढ़नी चाहिए.
झारखंड एड्स कंट्रोल सोसाइटी (जेसैक) के परियोजना निदेशक (पीडी) मृत्युंजय कुमार वर्णवाल ने कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि खून देने वाले सिर्फ चार फीसदी हैं, जो 96 फीसदी लोगों की खून संबंधी जरूरतें पूरी करते हैं. 18 से 65 वर्ष तक का कोई भी स्वस्थ आदमी, जिसका वजन कम से कम 45 किलो हो, वह एक वर्ष में तीन बार खून दे सकता है. लेकिन लोग जागरूकता के अभाव में एक बार भी नहीं देते. इस अवसर पर एनएचएम के एमडी शैलेश कुमार चौरसिया, जेसैक के एपीडी बी पोद्दार और रिम्स के अधीक्षक डॉ विवेक कश्यप ने भी अपने विचार व्यक्त किये.
इससे पहले झारखंड थैलेसीमिया फाउंडेशन के अतुल गेरा ने अपना अनुभव सुनाया. कार्यक्रम में सौ या अधिक बार खून देने वाले 12 रक्त दाताअों सहित सौ से अधिक संस्थाअों (सरकारी, गैर सरकारी, शिक्षण व अन्य) को सम्मानितकिया गया.