घाटशिला. निखिल भारत बंग साहित्य सम्मेलन की आंचलिक समिति ने जेसी हाई स्कूल स्थित आशा ऑडिटोरियम में शनिवार को दो दिवसीय बंग साहित्य एवं संस्कृति सम्मेलन का शुभारंभ किया. इसकी शुरुआत संगठन के ध्वज फहराने, दीप जलाकर और वंदे मातरम् गीत से हुई. स्वागत भाषण में अध्यक्ष तापस चटर्जी ने विभूति भूषण बंद्योपाध्याय और घाटशिला के ऐतिहासिक संबंधों के साथ बांग्ला भाषियों की स्थिति पर चर्चा की.
भाषा ही पहचान, संस्कृति और अस्तित्व की नींव
मुख्य अतिथि कोलकाता रवींद्र भारती विश्वविद्यालय के डॉ पवित्र सरकार ने कहा कि भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि मानव पहचान, संस्कृति और ज्ञान की मूल धुरी है. दुनिया में 7,000 से अधिक भाषाएं आज भी बोली जाती हैं. आधी पहले ही खत्म हो चुकी हैं. आने वाले समय में लगभग 3,500 भाषाओं के विलुप्त होने का खतरा है. भाषाओं के मिटने से समाज, देश और पूरी दुनिया सांस्कृतिक रूप से गरीब हो जायेगी. भाषा किसी राज्य या नक्शे की सीमा में बंधी नहीं होती. बांग्ला भाषा केवल पश्चिम बंगाल तक सीमित नहीं, बल्कि बिहार, झारखंड, असम और ओडिशा तक फैली सांस्कृतिक विरासत है. झारखंड समेत कई जगहों पर प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा की पढ़ाई नहीं होने से बच्चे अपनी भाषा से दूर हो रहे हैं. भाषा सीखने का सबसे सही समय शुरुआती 12 माह होते हैं. यदि इस उम्र में मातृभाषा कमजोर हो गयी, तो आगे चलकर उसका पुनर्निर्माण कठिन हो जाता है. अंग्रेज़ी और अन्य भाषाएं सीखना जरूरी है, पर अपनी मातृभाषा को छोड़कर नहीं. भाषा खत्म होने का सबसे बड़ा खतरा बाहर से नहीं, बल्कि अपने व्यवहार, चुनाव और शिक्षा व्यवस्था के कारण भीतर से पैदा होता है. मातृभाषा को घर, समाज और स्कूल तीनों स्तरों पर संरक्षण देना जरूरी है.
साहित्यिक स्मारिका का विमोचन
सम्मेलन में साहित्यिक स्मारिका ‘बनबानी’ का विमोचन हुआ. जमशेदपुर, राउरकेला, घाटशिला और कोलकाता से आये प्रतिनिधियों ने संगीत व बच्चों ने सांस्कृतिक कार्यक्रम किया. मंच संचालन डॉ. संदीप चंद्रा और बेबी साव ने किया. धन्यवाद ज्ञापन शाखा अध्यक्ष कंचन ने किया. मौके पर कोषाध्यक्ष शिल्पी सरकार, मृणाल कांति विश्वास, मनोरंजन बक्सी, साधु चरण पाल, शिखा रक्षित, सोमा सरकार, भारती पॉल, सुमोना गुप्ता, प्रदीप भद्रो, पूर्णिमा रॉय समेत बड़ी संख्या में प्रतिनिधि, साहित्यप्रेमी और सदस्य उपस्थित थे.
बांग्ला भाषा की शिक्षा बहाल करना जरूरी : विद्युत वरण महतो
सांसद विद्युतवरण महतो ने कहा कि झारखंड में कभी स्कूलों में बंगाली पढ़ाई जाती थी, लेकिन सिलेबस से हटने के बाद भाषा लगातार कमजोर होती गयी. राज्यभर में लाखों लोग आज भी बंगाली बोलते हैं. प्राथमिक शिक्षा में इसकी अनुपस्थिति नयी पीढ़ी को मातृभाषा से दूर कर रही है. बंगाली व ओड़िया दोनों क्षेत्र की संस्कृति की जड़ें हैं, जिन्हें सम्मान मिलना चाहिए. मातृभाषा को पहचान, साहित्य और संस्कृति का आधार बताते हुए स्कूलों, समाज और सरकार से बंगाली शिक्षा को पुनः शुरू करने की जरूरत पर जोर दिया गया, ताकि आने वाली पीढ़ियां अपनी भाषा से जुड़ी रहें.
कक्षा 1 से 12 तक बांग्ला की पढ़ाई बहाली का करूंगा प्रयास : सोमेश सोरेन
विधायक सोमेश सोरेन ने कहा कि देश के कई बड़े शहरों और अस्पतालों में बांग्ला भाषा का उपयोग देखकर गर्व होता है. झारखंड में बच्चों को अपनी मातृभाषा पढ़ने का पर्याप्त अवसर नहीं मिलता है. बाबा स्व रामदास सोरेन की इच्छा हमेशा रही कि बंगाली भाषा जीवित रहे. इसी भावना के साथ कक्षा 1 से 12 तक बंगला पढ़ाई को पुनः शुरू कराने के लिए प्रयास करने का संकल्प लिया. भाषा सिर्फ पढ़ाई का विषय नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पहचान है. समाज, संस्थाओं और प्रशासन को मिलकर बंगाली भाषा के संरक्षण और प्रसार के लिए आगे आना होगा.
अतिथियों को अंगवत्र, विभूति भूषण का स्मृति चिह्न व पौधा देकर सम्मानित किया गया. मौके पर केंद्रीय उपाध्यक्ष गौतम भट्टाचार्य, कार्यकारी अध्यक्ष मनोज सतपति, विपुल गुप्ता, शिप्रा भट्टाचार्य, आशीष गुप्ता, अनिल धर, केंद्रीय महासचिव, तरुण डे, राजेश रॉय, वक्ता डॉ काजल सेन, डॉ रत्ना रॉय, झरना कर, आशीष महतो, गौतम महतो, ताराशंकर बनर्जी, इंद्रजीत गुप्ता, कोडरमा माणिक बनर्जी निसार अमीन, विभूति भूषण बनर्जी आदि ने विचार रखे.मातृभाषा से जुड़ाव ही संस्कृति को बचायेगा : माजी
विशिष्ट अतिथि राज्य सभा सांसद महुआ माजी ने कहा कि घाटशिला की साहित्यिक विरासत और गौरीकुंज जैसे स्थलों का संरक्षण बंगाली संस्कृति की अमूल्य धरोहर को जीवित रखता है. झारखंड में बड़ी संख्या में बंगाली बोलने वाले रहते हैं. इसके बावजूद प्राथमिक स्तर पर बंगाली शिक्षा की कमी चिंता का विषय है. जरूरत है कि बच्चों में मातृभाषा के प्रति सम्मान और रुचि बढ़ायी जाये. सरकार इस दिशा में ठोस कदम उठाये. देश-विदेश में रहने वाले बंगाली परिवार अपनी भाषा, परंपराओं और खान-पान को संजोकर रखते हैं. यह उदाहरण नयी पीढ़ी को मातृभाषा और संस्कृति से जोड़ने की प्रेरणा देता है. किसी भाषा की समृद्धि उसके साहित्य और उसमें लिखने वाले लोगों से बढ़ती है, न कि केवल विदेशी भाषाओं की नकल से. बंगाली साहित्य, कला और संस्कृति को आगे बढ़ाने के लिए अनुवाद, अनुसंधान और देशभर में सक्रिय संगठनों का सहयोग जरूरी है. हर जिले में ऐसे कार्यक्रम आयोजित कर बंगाली समाज को एकजुट करने और मातृभाषा के सम्मान को मजबूत करने पर बल दिया गया. भाषा और साहित्य के संरक्षण के लिए संगठित प्रयास ही भावी पीढ़ी का सांस्कृतिक आधार मजबूत कर सकते हैं.
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