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नवरात्र में लगता है माई का दरबार

आस्था. लालगंज रोड में हरौली गांव में है बूढ़ी माई का मंदिर लाखों लोगों की आस्था का केंद्र है यह शक्ति पीठ हाजीपुर : कलश स्थापना के साथ ही बूढ़ी माई के दरबार में नवरात्र का अनुष्ठान शुरू हो गया. हाजीपुर शहर से पांच मील उत्तर लालगंज रोड में हरौली गांव में स्थापित है बूढ़ी […]

आस्था. लालगंज रोड में हरौली गांव में है बूढ़ी माई का मंदिर

लाखों लोगों की आस्था का केंद्र है यह शक्ति पीठ
हाजीपुर : कलश स्थापना के साथ ही बूढ़ी माई के दरबार में नवरात्र का अनुष्ठान शुरू हो गया. हाजीपुर शहर से पांच मील उत्तर लालगंज रोड में हरौली गांव में स्थापित है बूढ़ी माई का मंदिर. शक्ति पीठ के रूप में स्थापित बूढ़ी माई का स्थान जिले भर के लोगों, विशेष कर महिलाओं की आस्था का केंद्र है. यूं तो सालों भर मइया के भक्त और श्रद्धालु यहां दर्शन को आते रहते हैं और अपनी मन्नतें उतारते हैं, लेकिन दशहरे में यहां विशेष भीड़ उमड़ती है. लोगों का मानना है कि नवरात्र में बूढ़ी माई का दरबार लग जाता है. इस समय श्रद्धालु जो भी मन्नत मांगते हैं, वह अवश्य पूरी होती है. इस प्रसिद्ध मंदिर में खास कर आषाढ़ व सावन के महीने में श्रद्धालुओं की भीड़ देखने लायक होती है. ये दो महीने बूढ़ी माई की पुजाई का अवसर होता है, जब सुदूर इलाकों से लाखों की तादाद में महिलाएं यहां आकर पूजा-अर्चना करती हैं.
कई किस्से हैं चमत्कार के : नारायणी नदी के किनारे स्थित बूढ़ी माई के स्थान का निर्माण कब और कैसे हुआ, इसकी पुख्ता जानकारी तो किसी के पास नहीं है, लेकिन मइया के चमत्कार की कई कहानियां लोगों के मन में आज भी बसी हुई हैं. लोक मान्यता के अनुसार लालगंज क्षेत्र के बलहा बसंता गांव का रामकरण मांझी नामक नाविक नाव लेकर असम गया था. वहां से लौटने के क्रम में उसकी नाव सुंदर वन के जंगलों में फंस गयी, जहां केवल रेत ही दिखायी पड़ रही थी. नाव निकलने की कोई सूरत न देख नाविक निराश हो गया और उसी रेत पर सो गया. इसी बीच नाविक के सपने में एक बुढ़िया आयी. उन्होंने मांझी से कहा कि मुझे यहां से ले चलो. नाविक ने नाव फंसी होने का कारण बताया तो उस बुढ़िया की शक्ति से रेत पर नदी की धारा बहने लगी. तब मांझी बुढ़िया को लेकर वहां से चल पड़ा. यहां पहुंचने के बाद नारायणी नदी के इसी स्थान पर उसकी नाव अपने आप रुक गयी. नाव रुकते ही वह बुढ़िया एक पिंडी का रूप धारण कर कलश में समा गयी. जानकारी मिलते ही गांव वाले भी वहां जुटने लगे. ग्रामीणों के सहयोग से उस नाविक ने कलश को नदी किनारे उसी स्थान पर स्थापित कर दिया. तब से बूढ़ी माई को चमत्कारों की देवी मानकर पूजने की परंपरा शुरू हो गयी. इस इलाके के बड़े-बुजुर्ग बताते हैं कि एक बार पूरे इलाके में महामारी फैल गयी थी. उस स्थिति में बूढ़ी माई की आराधना की गयी और उनकी कृपा से समाज को त्राण मिला. इस प्रकार की कई किंवदंतियां इस शक्ति पीठ के बारे में सुनी जाती हैं. पहले यह मंदिर मिट्टी की दीवार से बना था, लेकिन बाद में ग्रामीणों के सहयोग से पक्के भवन का निर्माण कराया गया. दशहरा के मौके पर यहां हर साल मेला लगता है.
मेले में आसपास के गांवों के लोग बड़ी संख्या में जुटते हैं और माता की पूजा-अर्चना करते हैं.

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