सुपौल. कभी त्योहारों, जन्मदिनों और खास मौकों पर अपनों को ग्रीटिंग कार्ड भेजना हर घर की परंपरा हुआ करती थी. बड़े-बुजुर्ग हों या बच्चे, डाकिए का इंतजार रहता था कि कब किसी अपने का भेजा रंग-बिरंगा ग्रीटिंग कार्ड हाथ में आए. उन कार्डों में लिखे शब्द सिर्फ शुभकामनाएं नहीं होते थे, बल्कि अपनापन, भावनाएं और रिश्तों की गर्माहट भी समाई रहती थी, लेकिन बदलते वक्त और डिजिटल युग के आगमन के साथ यह खूबसूरत परंपरा अब धीरे-धीरे इतिहास के पन्नों में सिमटती जा रही है. सोशल मीडिया ने ले ली ग्रीटिंग कार्ड की जगह आज ग्रीटिंग कार्ड की जगह सोशल मीडिया और मैसेजिंग एप्प ने ले ली है. व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम, फेसबुक और ट्विटर के जरिए कुछ सेकेंड में ही शुभकामनाएं भेज दी जाती हैं. बधाइयां देना अब पहले से कहीं ज्यादा आसान हो गया है, लेकिन इसी आसानी ने रिश्तों की आत्मीयता को कहीं न कहीं कम कर दिया है. डिजिटल संदेशों में वह भावनात्मक जुड़ाव और अपनापन महसूस नहीं होता, जो कभी हाथ से लिखे ग्रीटिंग कार्ड्स में हुआ करता था. अब दुकानदार भी नहीं मंगाते ग्रीटिंग कार्ड सुपौल में ग्रीटिंग कार्ड की दुकानों की स्थिति इस बदलाव की गवाही देती है. स्थानीय दुकानदार बताते हैं कि करीब पांच साल से उन्होंने ग्रीटिंग कार्ड मंगाना ही बंद कर दिया है. पहले त्योहारों और नववर्ष के मौके पर ग्रीटिंग कार्ड की जबरदस्त मांग होती थी, लेकिन अब लोग पूछने तक नहीं आते कि कार्ड उपलब्ध हैं या नहीं. दुकानदारों के मुताबिक, साल 2000 के बाद से यह बदलाव धीरे-धीरे शुरू हुआ, जब लोगों ने फोन करके नए साल और त्योहारों की बधाई देनी शुरू की. इसके बाद मैसेज का दौर आया और ग्रीटिंग कार्ड की जगह टेक्स्ट मैसेज ने ले ली. डिजिटल क्रांति ने संवाद को बनाया दिया आसान साल 2010 के आसपास स्मार्टफोन और सस्ते इंटरनेट पैक ने इस बदलाव को और तेज कर दिया. सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का विस्तार हुआ और लोग फेसबुक पोस्ट, व्हाट्सएप मैसेज, वीडियो कॉल, रील और लाइव वीडियो के जरिए शुभकामनाएं देने लगे. धीरे-धीरे मैसेज का दौर भी पीछे छूट गया और डिजिटल माध्यमों ने पूरी तरह ग्रीटिंग कार्ड की जगह ले ली. इस डिजिटल क्रांति ने जहां संवाद को आसान बनाया, वहीं रिश्तों की गहराई पर भी सवाल खड़े कर दिए. हालांकि, आज भी कुछ लोग ऐसे हैं जो ग्रीटिंग कार्ड के महत्व को समझते हैं और उन्हें संजोकर रखते हैं. ग्रीटिंग कार्ड संग्रह करने वालों का मानना है कि यह सिर्फ एक कागज का टुकड़ा नहीं, बल्कि भावनाओं की अभिव्यक्ति है, जिसे सालों तक संभालकर रखा जा सकता है. पुराने कार्डों को देखकर बीते लम्हें और रिश्तों की मिठास फिर से जीवंत हो उठती है. साधनों की सुगमता ने पैदा कर दी रिश्तों की आत्मीयता के बीच दूरी मैथिली रचनाकार केदार कानन इस बदलाव को रिश्तों के नजरिए से देखते हैं. उनका कहना है कि जब पोस्टकार्ड या ग्रीटिंग कार्ड के जरिए संदेश मिलता था, तो लोग उसे बार-बार पढ़ते थे, छूते थे और महसूस करते थे. उन शब्दों में अपनापन झलकता था। लेकिन आज साधनों की सुगमता ने भावनाओं और रिश्तों की आत्मीयता के बीच दूरी पैदा कर दी है. एक साधारण मैसेज भेजकर व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाता है, जबकि पहले संदेश भेजना अपने आप में एक भावनात्मक प्रक्रिया हुआ करती थी. बुजुर्गों का भी मानना है कि भले ही तकनीक ने जीवन को आसान बना दिया है, लेकिन पुराने समय की कुछ परंपराएं रिश्तों को और मजबूत बनाती थी. ग्रीटिंग कार्ड उन्हीं परंपराओं में से एक हैं, जिन्हें फिर से जीवित करने की जरूरत है.
डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है

