– भाई-बहन के अटूट प्रेम व लोकसंस्कृति का प्रतीक पर्व – सामा-चकेवा का पर्व केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि लोकजीवन की खुशबू से भरा है सांस्कृतिक उत्सव सुपौल. मिथिलांचल की लोक परंपरा और सांस्कृतिक विरासत को जीवंत करने वाला भाई-बहन के प्रेम का पर्व सामा-चकेवा बुधवार की रात पूरे उल्लास और श्रद्धा के साथ मनाया गया. कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर जिले के गांवों से लेकर शहर तक के घर-आंगन गीतों, हंसी-ठिठोली और पारंपरिक रीतियों से गूंज उठे. महिलाओं और युवतियों में इस अवसर पर अपार उत्साह देखा गया. बुधवार की देर शाम तक महिलाएं सामा-चकेवा के पारंपरिक गीत, सोहर और समदाउन गाती रही. हर घर के आंगन में मिट्टी से बने सामा, चकेवा, सतभइया, वृंदावन, बन तितिर, ढोलिया-बजनिया और चुगला की सुंदर मूर्तियां सजी हुई थी. महिलाएं और बालिकाएं सजधज कर अपने भाइयों के नाम से डाला सजाकर निकलीं और पूरे उत्सव स्थल पर भक्ति और भाईचारे का अद्भुत माहौल बन गया. इस अवसर पर पारंपरिक विधि से सामा को भाई के ठेहुने (घुटने) से फोड़कर आंचल में लिया गया और उसके दीर्घायु जीवन की कामना की गई. यह भावनात्मक दृश्य हर बहन के चेहरे पर आस्था और स्नेह की चमक बिखेर रहा था. इसके बाद महिलाओं ने सामा-चकेवा की मूर्तियों को विदाई देते हुए गीत गाए सामा चकेवा खेलन आइल, मिथिला में सुख पावेल. पर्व का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा रहा चुगला दहन महिलाओं ने चुगला की मूर्ति का मुंह झुलसाया और उसे जलाकर सामूहिक रूप से विसर्जित किया. यह प्रतीकात्मक रूप से चुगलखोरी और बुराई के अंत का संदेश देता है. लोक परंपरा के अनुसार, चुगला पात्र उस व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करता है जो दूसरों के बीच कलह फैलाता है. इस पर्व के माध्यम से समाज को यह सीख दी जाती है कि चुगलपनी करने वालों का अंजाम सदा बुरा होता है. ग्रामीण इलाकों में जगह-जगह सामूहिक कार्यक्रम आयोजित किए गए. बच्चे, महिलाएं और बुजुर्ग सभी इस पर्व में शामिल हुए. पारंपरिक लोकगीतों के बीच वातावरण पूरी तरह आनंदमय बन गया. सामा-चकेवा का यह पर्व न केवल भाई-बहन के अटूट स्नेह का प्रतीक है, बल्कि यह मिथिला की लोकसंस्कृति, सामाजिक एकता और नैतिक मूल्यों का भी दर्पण है. यह त्योहार पीढ़ियों से महिलाओं द्वारा सहेजी गई परंपराओं का जीवंत उदाहरण है, जो परिवार और समाज में प्रेम, आदर और सद्भावना का संदेश देता है.
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