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कोसी का कहर: राहत की सांस के बीच अब कटाव का मंडराने लगा खतरा

कोसी की गाद: अब नया जानलेवा संकट

सुपौल. ‘बिहार की शोक कही जाने वाली कोसी नदी के जलस्तर में आई कमी ने लोगों को थोड़ी राहत तो दी है, लेकिन यह राहत तूफान के बाद की खामोशी जैसी है. बाढ़ का खतरा तो टल गया लेकिन इसके बाद अब कटाव का साया मंडरा रहा है. कोसी पीड़ित शिवचरण पासवान की आंखों में डर और बेबसी दोनों साफ झलकते हैं “हर साल हम इसी डर में जीते हैं. बारिश होती है, तो लगता है अब फिर सबकुछ बह जाएगा. इस बार भी हालात कुछ अलग नहीं था. नेपाल के हिमालय से निकलने वाली यह नदी जब बिहार के उत्तरी भाग में प्रवेश करती है, तो अपने साथ विनाश का अंदेशा भी लेकर आती है. मानसून के मौसम में इसका स्वभाव इतना अनिश्चित होता है कि यह हर कुछ वर्षों में अपना रास्ता बदल देती है, जिससे कटाव की समस्या और भी विकराल हो जाती है. बाढ़ के दौरान इसका वेग इतना तेज होता है कि गांवों, खेतों, सड़कों और पुलों का नामोनिशान मिट जाता है. सैकड़ों एकड़ जमीन नदी में समा जाती है. बदलता मौसम, बढ़ती आपदा जलवायु परिवर्तन ने कोसी क्षेत्र की परेशानी को और बढ़ा दिया है. बारिश का पैटर्न अनिश्चित हो गया है कभी लंबा सूखा, तो कभी एक ही दिन में इतनी बारिश कि नदी उफान पर आ जाए. विशेषज्ञों का कहना है कि अब समय आ गया है जब वैज्ञानिक समाधान की ओर ध्यान दिया जाए. नदी के प्रवाह को नियंत्रित करने, कटाव रोकने और तटबंधों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए आधुनिक तकनीक, सटीक पूर्वानुमान प्रणाली और नेपाल-भारत के बीच बेहतर समन्वय आवश्यक है. कोसी की गाद: अब नया जानलेवा संकट कोसी केवल बाढ़ ही नहीं, गाद (सिल्ट) भी लाती है और यही गाद अब जानलेवा साबित हो रही है. विशेषज्ञों के अनुसार, कोसी हर साल करीब 283 मिलियन टन गाद बहाकर लाती है. यह गाद तटबंधों के बीच जमा होकर नदी को उथला बनाती जा रही है. जब बाढ़ आती है, तो यह मोटी परत बनकर खेतों में जम जाती है. कभी उर्वरता बढ़ाने वाला यह सिल्ट अब खेतों को बंजर बना देता है. ‘बिहार की जीवनरेखा’ अब बन गई जख्म की कहानी कभी ‘बिहार की जीवनरेखा’ कही जाने वाली कोसी नदी आज अपने ही किनारों पर बसे लाखों लोगों के लिए विनाश की प्रतीक बन चुकी है. पिछले दो वर्षो से नदी ने ऐसा रौद्र रूप धारण किया कि पलक झपकते ही गांव के गांव डूबते नजर आने लगे. लोगों का घर बह गए और सपने बिखर गए. हर साल आने वाली यह बाढ़ अब यहां के लोगों के लिए एक नई त्रासदी और संघर्ष की कहानी बन चुकी है. तटबंधों के भीतर बसे हजारों परिवार अपने घर, खेत और जीवन की मेहनत को लहरों में बहते देखते रह जाते हैं. कुछ ही घंटों में उनकी सालों की कमाई और उम्मीदें मलबे में बदल जाती हैं. हर साल की पुनरावृत्ति, हर साल की पीड़ा कोसी की विभीषिका अब यहां के लोगों की जीवनशैली का हिस्सा बन गई है. जब नदी उफान पर आती है, तो गांवों का नामोनिशान मिट जाता है. लोग अपने आशियानों को छोड़ राहत शिविरों में शरण लेने को विवश हो जाते हैं. बच्चों की पढ़ाई, बुजुर्गों की दवा, रोजगार के साधन सब कुछ बाढ़ के पानी में डूब जाता है. पीड़ितों की आंखों में झलकता खामोश दर्द यह बताने के लिए काफी है कि कोसी अब उनके लिए सिर्फ एक नदी नहीं, बल्कि हर साल हरा होने वाला जख्म है. यह बाढ़ न सिर्फ उनकी आजीविका छीन लेती है, बल्कि यादों में गहरे निशान छोड़ जाती है ऐसे निशान जिन्हें समय भी मिटा नहीं पाता. टूटी ज़िंदगियां, बर्बाद खेत और उजड़े घर दोबारा बसाना आसान नहीं होता. हर साल जब कोसी का पानी उतरता है, तब पीछे छोड़ जाता है कीचड़, टूटी दीवारें और टूटा हुआ हौसला. फिर भी, लोग हिम्मत नहीं हारते वे अपने टूटे अतीत और अनिश्चित भविष्य के बीच एक नई सुबह की तलाश में जुट जाते हैं. भले ही कोसी हर साल उन्हें परखती है, मगर इन बाढ़ पीड़ितों की जिजीविषा आज भी कायम है. वे बार-बार उठते हैं, फिर बसते हैं, फिर संघर्ष करते हैं. पर उनके मन में एक सवाल अब भी गूंजता है “आख़िर कब तक कोसी हमें यूं ही उजाड़ती रहेगी?”

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