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मिथिलांचल में फागुन माह के होली गीतों की गूंज, उमंग से सराबोर गांव की गलियां

गांव के दलान पर बड़े-बूढ़े की जमघट लगते ही आज के युवा पीढ़ी भी वहां पहुंच ढोल-मंजीरे की थाप पर राग में राग मिलाते नजर आते हैं

– गांवों में सार्वजनिक दलान पर गूंजने लगे खेले मसाने में होरी दिगंबर… – आर्थिक तंगी के कारण गांव छोड़ शहर की ओर जाने लगे युवा, बुजुर्ग परंपरा का कर रहे निर्वहन सुपौल फागुन माह की मस्ती में डूबे ग्रामीण इलाकों में होली गीतों की गूंज हर ओर सुनाई दे रही है. बसंत पंचमी के दिन से शुरू हुआ यह उत्सव पूरे फागुन माह तक चलता है, जहां गांव के अलग-अलग दालानों में लोग टोली बनाकर पारंपरिक होली गीत गाते हैं. भले ही आधुनिकता के दौर में परंपरागत होली गीतों की जगह अश्लील गीतों की मांग बढ़ गयी हो. लेकिन आज भी सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में शाम ढलते ही गांवों में सार्वजनिक दलानों पर गूंजने लगे खेले मसाने में होरी दिगंबर…, खेले मसाने में होरी, होली खेलैय रघुवीरा अवध में होली खेलैय रघुवीरा…की धुन आज भी लोगों को झुमने पर विवश कर देता है. गांव के दलान पर बड़े-बूढ़े की जमघट लगते ही आज के युवा पीढ़ी भी वहां पहुंच ढोल-मंजीरे की थाप पर राग में राग मिलाते नजर आते हैं. बुजुर्ग इंदू कुंवर कहते हैं कि पहले एक पखवाड़ा पहले से गांवों में जोगीरा सर.रा..रा..रा.., फागुन में राम खेले होली…, गीतों से वातावरण गुंजायमान रहता था जो स्वत: होली के आहट होते ही गांव के चौपाल पर ढोलक की थाप पर होली के गीत सुनायी देने लगते थे. लेकिन आधुनिकता के इस दौर में सब कुछ विलुप्त होता जा रहा है. इसके कई कारण हैं जिसमें सबसे महत्वपूर्ण कारण आर्थिक तंगी माना जा सकता है. आर्थिक तंगी के कारण लोग गांव छोड़ शहर की ओर पलायन करने लगे. यही कारण है कि गांवों की विरासत को भूल लोग महानगरी के परिवेश में रम गए और गांव की मधुर राग की जगह अश्लील राग में रमने लगे. उन्होंने कहा कि पहले सरस्वती पूजा के दिन से ही गांव में होली की गीत गुंजने लगती थी. लेकिन अब वह दो-चार दिन पहले से सुनायी पड़ती है. गांवो में होलिका दहन का कोरम सिर्फ जैसे-तैसे पूरा कर खानापूर्ति की जाती है. लेकिन आज भी गांव में परंपरा को हमारे जैसे बुजुर्ग निर्वहन कर रहे हैं. बभनगामा गांव के राजकुमार झा कहते हैं कि होली गीतों की यह परंपरा हमारे पूर्वजों से चली आ रही है. हालांकि, आधुनिकता के प्रभाव में नवयुवकों की भागीदारी कम होती जा रही है, लेकिन हम जैसे लोग इस रीति-रिवाज को संजोए हुए हैं. सांस्कृतिक विरासत को संजोते होली गीत गांव-गांव में गाए जाने वाले होली गीतों में मिथिलांचल की विशिष्टता झलकती है. यहां के होली गीतों में शृंगार, प्रेम, भक्ति और हास्य रस की प्रधानता होती है. इन गीतों में अश्लीलता के बजाय मधुरता और मेल-मिलाप की भावना होती है, जो समाज में एकता का संदेश देती है. गांवों में ढोलक, मंजीरा और झांझ की मधुर ध्वनि के साथ जब “फागुन आयो रे, रंग बरसाइ रे… जैसे गीत गाए जाते हैं, तो माहौल पूरी तरह रंगीन हो उठता है. घर-घर में लोग टोली बनाकर दरवाजों पर जाते हैं और एक महीने तक यह सिलसिला चलता रहता है. फागुन माह में होली गीतों की गूंज से सराबोर मिथिलांचल की गलियां यह साबित करती हैं कि यहां की संस्कृति अब भी अपने मूल स्वरूप में जीवंत है. होली के रंग में में रंगने लगे बाजार रंगों के त्योहार होली में महज कुछ ही दिन बचे हैं. ऐसे में घर से लेकर बाजार तक होली का रंग चढ़ने लगा है. बाजार में जहां जगह-जगह रंग-अबीर व पिचकारी की दुकान सजने लगी है. वहीं गांवों में शाम ढलते ही होली गीत की गुंज सुनायी देने लगी है. शहर के स्टेशन चौक, महावीर चौक, लोहिया नगर चौक सहित अन्य जगहों पर रंग-अबीर व रंग बिरंगी पिचकारी देख बच्चे अपने अभिभावकों के साथ खरीदने के लिए पहुंचने लगे हैं. जगह-जगह होली मिलन समारोह का हो रहा आयोजन रंगों का त्योहार नजदीक आते ही होली मिलन समारोह का दौर भी बढ़ने लगा है. पहले शहर में एक या दो जगह होली मिलन समारोह हुआ करता था. लेकिन अब इसकी संख्या में प्रति वर्ष इजाफा होने लगी है. गांधी मैदान में पहले होली के मौके पर होली मिलन समारोह आयोजित कर शहर के प्रबुद्ध लोग व अधिकारी एक दूसरे को अबीर लगा होली की शुभकामना देते थे. हालांकि इस परंपरा का आज भी निर्वहन किया जा रहा है. लेकिन अब पहले जैसा उमंग और उत्साह देखने को नहीं मिलता. शहर हर्वल अबीर की बढ़ी डिमांड बाजार में इस वर्ष हर्वल अबीर की मांग कुछ अधिक बढ़ गयी है. यही कारण है कि दुकानदार इस बार हर्वल अबीर रखने लगे हैं. दुकानदार विजय कुमार, आर्यन सिद्धिकी ने बताया कि 10 रूपये से लेकर 500 रूपये तक का हर्वल अबीर बिक रहा है. दुकानदारों का कहना है कि हर्वल अबीर का कोई साईड इफैक्ट नहीं होता है. पिचकारी का दाम 20 रूपये से लेकर 300 रूपये तक है.

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