छपरा : सारण प्रतिभाओं का धनी जिला है. कला, संस्कृति और शिक्षा के साथ यहां के होनहारों ने खेल के क्षेत्र में भी कई अहम मौकों पर सारण जिले का नाम रोशन किया है. हालांकि बीते दो दशकों में सारण जिले में न सिर्फ खिलाड़ी बल्कि खेल मैदान और हमारे कई पारंपरिक खेल भी उपेक्षा का शिकार हुए हैं.
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खेल, खिलाड़ी और मैदानों का अस्तित्व बचाने की चुनौती
छपरा : सारण प्रतिभाओं का धनी जिला है. कला, संस्कृति और शिक्षा के साथ यहां के होनहारों ने खेल के क्षेत्र में भी कई अहम मौकों पर सारण जिले का नाम रोशन किया है. हालांकि बीते दो दशकों में सारण जिले में न सिर्फ खिलाड़ी बल्कि खेल मैदान और हमारे कई पारंपरिक खेल भी उपेक्षा […]
स्कूलों से खेल की घंटियां अब खत्म होती जा रही हैं. कॉलेजों में प्रतिभाओं को आगे आने का अवसर नहीं मिल रहा है. मानसिक विकास करने वाले खेल के प्रति युवाओं का रुझान कम होने लगा है. वहीं खेल मैदान भी अब छोटे होते जा रहे हैं. सारण जिले का सबसे प्रतिष्ठित राजेंद्र स्टेडियम वर्षों से मेंटेनेंस के इंतजार में है.
कुछ दिन पहले स्टेडियम के जीर्णोद्धार को लेकर घोषणा हुई थी, लेकिन अब भी शहरवासियों को अपने पसंदीदा स्टेडियम को महानगरों के तर्ज पर डेवलप किये जाने का इंतजार है. वहीं शहर का प्रतिष्ठित जिला स्कूल मैदान भी अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है.
शहर का राजेंद्र स्टेडियम किसी भी बड़े खेल आयोजन का एकमात्र केंद्र है. आये दिन यहां कोई न कोई बड़ा टूर्नामेंट होते रहता है. बड़े सरकारी आयोजन हो या राजनीतिक कार्यक्रम, इस स्टेडियम को ही विकल्प के रूप में चुना जाता है.
हालांकि जिस हिसाब से इस स्टेडियम की प्रतिष्ठा है, उसके अनुसार इसका मेंटेनेंस नहीं हो सका है. स्टेडियम का ग्राउंड आज तक विकसित नहीं किया जा सका है. अलग-अलग खेलों के लिए यहां कोर्ट भी नहीं है. स्टेडियम में सिंथेटिक ग्रास बिछाने की वर्षों पहले घोषणा हुई थी, लेकिन खिलाड़ियों के लिए ओस एकमात्र प्रैक्टिस ग्राउंड में बुनियादी व्यवस्थाएं भी दुरुस्त नहीं की जा सकीं.
पारंपरिक खेलों के प्रति कम हो रहा रुझान
आधुनिक दौर में देशी पारंपरिक खेलों के प्रति बच्चों का इंटरेस्ट कम होता जा रहा है. एक समय था, जब स्कूल के मैदानों में या गली-मोहल्ले के आसपास बच्चों की धमाचौकड़ी के बीच भारतीय पारंपरिक खेलों की झलक प्रायः देखने को मिल जाती थी. कभी लुकाछिपी तो कभी डेंगपानी खेल कर बच्चे खूब मस्ती किया करते थे.
आज के दौर में क्रिकेट जैसे खेल का दबदबा काफी बढ़ गया है. ऐसे में सारण के शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में खेली जाने वाली कबड्डी, कुश्ती तथा खो-खो जैसे सस्ते और लोकप्रिय खेलों का महत्व धीरे-धीरे कम होने लगा है. भारतीय परंपरा में दर्जनों ऐसे खेल हैं, जिनका सीधा संबंध शारीरिक व मानसिक विकास से है.
इन खेलों में से कुछ ऐसे भी हैं, जो सारण जिले में सैकड़ों वर्षों से लोकप्रिय रहे हैं. कबड्डी, खो-खो, कुश्ती तथा गुल्ली-डंडा शारीरिक क्षमता के विकास में अहम हैं, वहीं बौद्धिक व मानसिक क्षमता के विकास के लिए महापुरुषों की लड़ी, लूडो, अंत्याक्षरी, वाक्य पहेली जैसे खेल महत्वपूर्ण रहे हैं. हालांकि आज के परिवेश में स्कूल के मैदान हों या घर का आंगन, हर जगह से ये खेल धीरे-धीरे लुप्त होते जा रहे हैं.
स्कूल-कॉलेजों में नहीं लगतीं खेल की घंटियां
जिले के 70 प्रतिशत प्रारंभिक विद्यालयों में खेल को लेकर उदासीनता बरती जाती है. गत पांच वर्षों में अधिकतर विद्यालयों से खेल की घंटियां गौण होते जा रही हैं. तरंग जैसे सरकारी इवेंट में महज खानापूर्ति के लिए छात्रों का चयन तो कर लिया जाता है, पर प्रतियोगिता समाप्त हो जाने के बाद अच्छा प्रदर्शन करने वाले छात्रों को न अलग से कोई ट्रेनिंग प्राप्त होती है और न ही उन्हें स्कूल लेवल पर ही कोई सुविधा मुहैया करायी जाती है.
ऐसे में छात्रों में बौद्धिक विकास के साथ-साथ उनका शारीरिक विकास कर पाना संभव प्रतीत नहीं होता. वहीं कॉलेजों में भी खेल का आयोजन महज खानापूर्ति बनकर रह गया है. जयप्रकाश विश्वविद्यालय में एकलव्य के माध्यम से प्रतिभाओं को आगे लाने का अवसर मिलता है, लेकिन अधिकतर कॉलेज इसमें रुचि नहीं दिखाते. खेल को लेकर कोई ठोस कार्यक्रम नहीं बनाया जाता. खेल की घंटी का कोई तय शेड्यूल भी नहीं है
प्रतिभाओं को देना होगा उचित अवसर
ऐसा नहीं है कि जिले के सरकारी विद्यालय व विभिन्न कॉलेजों में पढ़ने वाले छात्रों में प्रतिभा की कोई कमी है. स्कूल या कॉलेज लेवल से अलग हटकर आयोजित होने वाली स्पोर्ट्स इवेंट में यही छात्र कई बार बेहतर प्रदर्शन कर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा चुके हैं. हालांकि इन्हें अपने प्रदर्शन को बेहतर बनाने के लिए स्कूल या कॉलेज द्वारा कोई अवसर प्रदान नहीं किया जाता.
ग्रामीण क्षेत्रों के प्रारंभिक व माध्यमिक विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चे स्वयं के प्रयासों व अपने अभिभावकों की मदद से जिले के कबड्डी, वॉलीबॉल, फुटबॉल, शतरंज, क्रिकेट आदि टूर्नामेंट में राज्य स्तर पर जिले का नाम रोशन कर चुके हैं. यदि इन बच्चों को प्रारंभिक स्तर पर सपोर्ट मिल सके, तो निश्चित ही इनके अंदर की स्पोर्ट्समैन स्पिरिट देश और दुनिया में मुकाम हासिल कर सकती है.
शहर का एकमात्र बड़ा स्टेडियम में है राजेंद्र स्टेडियम, इसको अत्याधुनिक बनाने का प्रयास भी अधूरा
शहर का राजेंद्र स्टेडियम किसी भी बड़े खेल आयोजन का एकमात्र केंद्र है. आये दिन यहां कोई न कोई बड़ा टूर्नामेंट होते रहता है. बड़े सरकारी आयोजन हो या राजनीतिक कार्यक्रम, इस स्टेडियम को ही विकल्प के रूप में चुना जाता है. हालांकि जिस हिसाब से इस स्टेडियम की प्रतिष्ठा है, उसके अनुसार इसका मेंटेनेंस नहीं हो सका है. स्टेडियम का ग्राउंड आज तक विकसित नहीं किया जा सका है.
अलग-अलग खेलों के लिए यहां कोर्ट भी नहीं है. स्टेडियम में सिंथेटिक ग्रास बिछाने की वर्षों पहले घोषणा हुई थी, लेकिन खिलाड़ियों के लिए ओस एकमात्र प्रैक्टिस ग्राउंड में बुनियादी व्यवस्थाएं भी दुरुस्त नहीं की जा सकीं.
पारंपरिक खेलों के प्रति कम हो रहा रुझान
आधुनिक दौर में देशी पारंपरिक खेलों के प्रति बच्चों का इंटरेस्ट कम होता जा रहा है. एक समय था, जब स्कूल के मैदानों में या गली-मोहल्ले के आसपास बच्चों की धमाचौकड़ी के बीच भारतीय पारंपरिक खेलों की झलक प्रायः देखने को मिल जाती थी. कभी लुकाछिपी तो कभी डेंगपानी खेल कर बच्चे खूब मस्ती किया करते थे. आज के दौर में क्रिकेट जैसे खेल का दबदबा काफी बढ़ गया है.
ऐसे में सारण के शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में खेली जाने वाली कबड्डी, कुश्ती तथा खो-खो जैसे सस्ते और लोकप्रिय खेलों का महत्व धीरे-धीरे कम होने लगा है. भारतीय परंपरा में दर्जनों ऐसे खेल हैं, जिनका सीधा संबंध शारीरिक व मानसिक विकास से है. इन खेलों में से कुछ ऐसे भी हैं, जो सारण जिले में सैकड़ों वर्षों से लोकप्रिय रहे हैं.
कबड्डी, खो-खो, कुश्ती तथा गुल्ली-डंडा शारीरिक क्षमता के विकास में अहम हैं, वहीं बौद्धिक व मानसिक क्षमता के विकास के लिए महापुरुषों की लड़ी, लूडो, अंत्याक्षरी, वाक्य पहेली जैसे खेल महत्वपूर्ण रहे हैं. हालांकि आज के परिवेश में स्कूल के मैदान हों या घर का आंगन, हर जगह से ये खेल धीरे-धीरे लुप्त होते जा रहे हैं.
स्कूल-कॉलेजों में नहीं लगतीं खेल की घंटियां
जिले के 70 प्रतिशत प्रारंभिक विद्यालयों में खेल को लेकर उदासीनता बरती जाती है. गत पांच वर्षों में अधिकतर विद्यालयों से खेल की घंटियां गौण होते जा रही हैं. तरंग जैसे सरकारी इवेंट में महज खानापूर्ति के लिए छात्रों का चयन तो कर लिया जाता है,
पर प्रतियोगिता समाप्त हो जाने के बाद अच्छा प्रदर्शन करने वाले छात्रों को न अलग से कोई ट्रेनिंग प्राप्त होती है और न ही उन्हें स्कूल लेवल पर ही कोई सुविधा मुहैया करायी जाती है. ऐसे में छात्रों में बौद्धिक विकास के साथ-साथ उनका शारीरिक विकास कर पाना संभव प्रतीत नहीं होता.
वहीं कॉलेजों में भी खेल का आयोजन महज खानापूर्ति बनकर रह गया है. जयप्रकाश विश्वविद्यालय में एकलव्य के माध्यम से प्रतिभाओं को आगे लाने का अवसर मिलता है, लेकिन अधिकतर कॉलेज इसमें रुचि नहीं दिखाते. खेल को लेकर कोई ठोस कार्यक्रम नहीं बनाया जाता. खेल की घंटी का कोई तय शेड्यूल भी नहीं है
प्रतिभाओं को देना होगा उचित अवसर
ऐसा नहीं है कि जिले के सरकारी विद्यालय व विभिन्न कॉलेजों में पढ़ने वाले छात्रों में प्रतिभा की कोई कमी है.
स्कूल या कॉलेज लेवल से अलग हटकर आयोजित होने वाली स्पोर्ट्स इवेंट में यही छात्र कई बार बेहतर प्रदर्शन कर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा चुके हैं. हालांकि इन्हें अपने प्रदर्शन को बेहतर बनाने के लिए स्कूल या कॉलेज द्वारा कोई अवसर प्रदान नहीं किया जाता.
ग्रामीण क्षेत्रों के प्रारंभिक व माध्यमिक विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चे स्वयं के प्रयासों व अपने अभिभावकों की मदद से जिले के कबड्डी, वॉलीबॉल, फुटबॉल, शतरंज, क्रिकेट आदि टूर्नामेंट में राज्य स्तर पर जिले का नाम रोशन कर चुके हैं. यदि इन बच्चों को प्रारंभिक स्तर पर सपोर्ट मिल सके, तो निश्चित ही इनके अंदर की स्पोर्ट्समैन स्पिरिट देश और दुनिया में मुकाम हासिल कर सकती है.
राष्ट्रीय आयोजनों का साक्षी रहा जिला स्कूल मैदान, बहा रहा बदहाली के आंसू
एक जमाने में राष्ट्रीय स्तर के खेल आयोजनों का साक्षी रहा जिला स्कूल का खेल मैदान आज कुव्यवस्था का शिकार हो चुका है. क्रिकेट, फुटबॉल, हॉकी, राजनीतिक पार्टियों की ऐतिहासिक रैली हो या किसी फिल्मी कलाकार का स्टेज शो, यह मैदान इन सभी प्रमुख कार्यक्रमों का गवाह रहा है.
स्थानीय क्रिकेटर बताते हैं कि जिला स्कूल मैदान में स्कूल लेवल की एक प्रतियोगिता में भारतीय टीम के पूर्व कप्तान महेंद्र सिंह धौनी भी इस मैदान में अपना हाथ आजमा चुके हैं.
मैदान के 40 प्रतिशत भाग में जलजमाव लगा रहता है. वहीं 20 प्रतिशत क्षेत्र कचरे की डंपिंग से भरे पड़े हैं. वहीं जो भाग शेष बचे हैं, वहां दो-तीन सरकारी भवन खड़े कर दिये गये हैं, जिस कारण अब इस मैदान का अस्तित्व संकट में आ चुका है.
यह मैदान भले ही जिला स्कूल का है, पर इसके संदर्भ में जितने भी निर्णय होते हैं, उसका सीधा कंट्रोल जिला प्रशासन करता है. जलजमाव के कारण कोई भी आयोजन करना यहां संभव नहीं है. वहीं मैदान का जो भी भाग शेष बचा है वहां साफ-सफाई भी नहीं होती. ऐसे में आयोजक चाह कर भी इस मैदान में कार्यक्रमों का आयोजन नहीं कर सकते हैं.
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