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Political Slogans In Bihar: नारे जिन्होंने बदली बिहार की राजनीति

Political Slogans in Bihar: चुनाव हो लोकसभा का या विधानसभा का, बिहार की राजनीति में नारे केवल शब्द नहीं, बल्कि चुनावी रणभूमि में हथियार साबित हुए हैं. समय-समय पर गूँजने वाले ये नारे नेताओं की छवि बनाने, विरोधियों को चुनौती देने और आम जनता के मन को मोड़ने में निर्णायक रहे हैं.

Political Slogans in Bihar: बिहार की राजनीति में नारे हमेशा से ही असरदार रहे हैं. चाहे 1952 का पहला विधानसभा चुनाव हो या हाल के विधानसभा और लोकसभा चुनाव, जनसभाओं और रैलियों में दिए गए नारों ने राजनीतिक दृष्टिकोण तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.

नारे केवल भाषणों का हिस्सा नहीं होते, बल्कि ये भावनाओं और आशाओं का प्रतीक बनकर राजनीति को दिशा देते हैं.

1950-1960 का दशक में चर्चित हुए नारे

पहले बिहार विधानसभा चुनावों में नारे भावनात्मक और नीतिगत आधार पर तैयार किए जाते थे. कांग्रेस ने 1952 में ‘खरो रुपयो चांदी को, राज महात्मा गांधी को’ का नारा दिया. इसका पलटवार वामपंथियों ने बड़े ही सलीके से किया – ‘देश की जनता भूखी है, यह आजादी झूठी है’ वहीं, “इंकलाब जिंदाबाद” का चुनावी रूप भी सामने आया.

1962 तक नारे आमतौर पर सामाजिक न्याय, विकास और नैतिक मूल्यों के आधार पर बनाए गए. जैसे ‘नेहरू राज की एक पहचान और नंगा-भूखा हिन्दुस्तान!’ और ‘मांग रहा है हिन्दुस्तान, रोटी कपड़ा और मकान!’

1967 का विधानसभा चुनाव: नया ट्रेंड

1967 के चुनाव ने नारेबाजी का स्वरूप बदल दिया. पहली बार किसी नेता के लिए ‘चोर’ शब्द का चुनावी इस्तेमाल हुआ। विरोधियों ने नारा लगाया – “गली गली में शोर है, मुख्यमंत्री चोर हैं

बाद में 90 के दशक में 2019 के लोकसभा चुनाव में‘चारा चोर’, ‘ चौकीदार चोर’ और और मौजूदा बिहार विधानसभा चुनाव में ‘वोट चोर’ तक यह शब्द लोकप्रिय हुआ.

संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) ने पिछड़े वर्गों की सत्ता में हिस्सेदारी को लेकर ‘संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावे सौ में साठ’ का नारा दिया. यह नारा समाजवादी आंदोलन का आधार बन गया और पिछड़े वर्गों को 60 प्रतिशत हिस्सेदारी दिलाने का संदेश दिया.

साल 1967 में अंग्रेजी विरोधी भावना भी नारेबाजी का हिस्सा बनी. संसोपा ने वादा किया कि अगर सरकार बनी तो मैट्रिक में ‘कंपल्सरी इंग्लिश’ समाप्त किया जाएगा. महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में संविद सरकार में कर्पूरी ठाकुर उपमुख्यमंत्री और शिक्षा विभाग के प्रभारी बने और वादे को पूरा किया.

कर्पूरी ठाकुर और सामाजिक न्याय

कर्पूरी ठाकुर ने ‘पढ़ाई में बराबरी, नौकरी में हिस्सेदारी’ का नारा दिया. यह गरीब, दलित और पिछड़े वर्गों के लिए शिक्षा और रोजगार में समान अवसर का संदेश था. इस नारे ने कांग्रेस की पोल खोली और आरक्षण आंदोलन की नींव रखी.

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भाषण देते हुए कर्पूरी ठाकुर

1980 के दशक: साहित्य और राजनीति का संगम

1980 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव में श्रीकांत वर्मा द्वारा रचित नारा ‘जात पर न पात पर, मुहर लगेगी हाथ पर’ ने राजनीति और साहित्य का संगम दिखाया. इस नारे से इंदिरा गांधी 1977 की हार के बाद 1980 में वापसी करने में सफल रहीं.

लालू प्रसाद यादव और जनता दल का दौर

मार्च 1990 में जनता दल की सरकार बनने के बाद लालू यादव मुख्यमंत्री बने. 1991 में ताड़ी (घरेलू मदिरा) पर से टैक्स हटने पर विपक्ष ने नारों की बौछार की – “लालू वीपी रामविलास, एक रुपया में तीन गिलास.” यह नारा जनता में खासा लोकप्रिय हुआ.

1997-98 के दौर में भ्रष्टाचार और सीबीआई के वॉरंट के बाद लालू यादव ने जेल जाने से पहले कहा – “जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू.” यह नारा आम लोगों और समर्थकों के बीच तुरंत लोकप्रिय हो गया.

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लालू यादव , शरद यादव और राम विलास पासवास

रामविलास पासवान: नारा जो याद रह गया

रामविलास पासवान ने भी अपने चुनावी दौर में यादगार नारों का इस्तेमाल किया। 1990 के दशक में पटना के गांधी मैदान में लालू यादव की रैली के दौरान पासवान के हेलिकॉप्टर के लिए लालू ने कहा – “ऊपर आसमान, नीचे पासवान.” इस नारे ने तुरंत लोकप्रियता हासिल की और बाद में समर्थकों ने इसे अपनाकर – “धरती गूंजे आसमान, रामविलास पासवान” बना दिया.

2015 के चुनाव और नए राजनीतिक नारे

वर्तमान समय में भी नारेबाजी जारी है। जदयू के लोकप्रिय नारों में शामिल हैं –
“झांसे में न आएंगे, नीतीश को जिताएंगे”,
“आगे बढ़ता रहे बिहार, फिर एक बार नीतीश कुमार”,
“बिहार में बहार हो नीतीश कुमार हो।”

आरजेडी के नारे युवा केंद्रित और आलोचनात्मक रहे –
“न जुमलों वाली न जुल्मी सरकार, गरीबों को चाहिए अपनी सरकार”,
“युवा रूठा, नरेंद्र झूठा”,
“युवा-युवती भरे हुंकार, कहां गया हमारा रोजगार.”

भाजपा ने विकास और प्रशासनिक दक्षता पर जोर दिया –
“तेज विकास की चली पुकार, अबकी बार भाजपा सरकार”,
“हम बदलेंगे बिहार, इस बार भाजपा सरकार”,
भाजपा करेगी पहला काम, जंगलराज पर पूर्ण विराम.”

एलजेपी और आरएलएसपी ने भी अपने नारों के जरिए स्थानीय और जातीय वोट बैंक को लक्ष्य बनाया. वाम मोर्चा ने विरोधी नारों पर ध्यान केंद्रित किया –
न मोदी न नीतीश सरकार, वामपंथ की है दरकार”.

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सकारात्मक नारे और नेतृत्व की छवि

21वीं सदी में कई सकारात्मक नारों ने राजनीतिक चर्चा में जगह बनाई। जदयू के लिए –
बिहार में का बा, नीतीशे कुमार बा”,
नीक बिहार-ठीक बिहार, सुशासन का प्रतीक बिहार.”

भाजपा के नारों ने मोदी की छवि के साथ जोड़ा –
मोदी है तो मुमकिन है”,
अब की बार, फिर मोदी सरकार”,
च्छे दिन आने वाले हैं”,
सबका साथ, सबका विकास.”

आरजेडी ने तेजस्वी यादव की लोकप्रियता पर केंद्रित नारे दिए –
बिहार भर रहा है हुंकार! नकलची सरकार के बचे हैं दिन दो चार! जल्द बनने वाली है जनप्रिय तेजस्वी_सरकार.”

बिहार की राजनीति में नारे केवल शब्द नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना, विरोध और आशाओं का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं. शुरुआती दौर के भावनात्मक और सामाजिक नारे से लेकर वर्तमान समय के विकास और नेता-केंद्रित नारों तक, हर दौर ने अपने तरीके से जनता के मनोबल और चुनावी निर्णय को प्रभावित किया है.

ये नारे राजनीति में केवल प्रचार का माध्यम नहीं, बल्कि जनता और नेताओं के बीच भावनात्मक पुल भी बने हैं. चाहे लालू यादव का समोसे वाला नारा हो या नीतीश कुमार और मोदी के विकास आधारित नारे, बिहार की राजनीति में नारों ने हमेशा ध्रुवीकरण, चेतना और नेतृत्व की कहानी को संजोया है.

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Pratyush Prashant
Pratyush Prashant
कंटेंट एडिटर और तीन बार लाड़ली मीडिया अवॉर्ड विजेता. जेंडर और मीडिया विषय में पीएच.डी. वर्तमान में प्रभात खबर डिजिटल की बिहार टीम में कार्यरत. डेवलपमेंट, ओरिजनल और राजनीतिक खबरों पर लेखन में विशेष रुचि. सामाजिक सरोकारों, मीडिया विमर्श और समकालीन राजनीति पर पैनी नजर. किताबें पढ़ना और वायलीन बजाना पसंद.

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