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आजादी की लड़ाई में खड़े हुए थे विदेशी लड़ाके, जानें नजरबंदी से लेकर रिहाई तक का सफर…

प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा की नयी किताब ‘बागी फिरंगी’ ऐसे ही विदेशी मूल के लोगों के भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रति पक्षधरता पर रोशनी डालती है.

भारत में जब अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लड़ाई चल रही थी, तब सात समुंदर दूर ऐसे लोग भी थे, जिन्हें यह देश लुभा रहा था. यहां की सांस्कृतिक विविधता, भविष्य के भारत के सपनों और आम आदमी की आकांक्षाओं से जुड़ने के लिए वे भारत पहुंचे. आजादी की लड़ाई में शामिल हुए. अनेक कष्ट सहे. पर एक लोकतांत्रिक समाज बनाने की अपनी भूमिका से पीछे नहीं हटे. प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा की नयी किताब ‘बागी फिरंगी’ ऐसे ही विदेशी मूल के लोगों के भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रति पक्षधरता पर रोशनी डालती है. पेंगुइन प्रकाशन से छपी इस किताब का हिंदी में अनुवाद किया है अभिषेक श्रीवास्तव ने. किताब तीन खंडों, सरहद के आर-पार, अंग्रेजी राज की ढलती सांझ और आजाद हिंदुस्तानी में है. पहले खंड में उन लोगों का विस्तृत अध्ययन है, जिन्होंने अपने मुल्क को छोड़ दिया और भारत आ गये. किताब पर आधारित सात विदेशी साधकों का संपादित ब्येारा तैयार किया है अजय कुमार ने. पढ़िए इसका अंश…

नजरबंदी से लेकर रिहाई तक का सफर…

1904 में उन्होंने आवासीय हिंदू गर्ल्स स्कूल खोल दिया. बाद में कांग्रेस के अंदर टकरावों को कम करने के लिए बाल गंगाधर तिलक और गोपाल कृष्ण गोखले से मुलाकात करती हैं. कांग्रेस में उनका प्रवेश ऐसे हुआ, जैसे दो बच्चों के झगड़े को सुलझाने में एक मां की भूमिका होती है. सितंबर 1915 में श्रीमती बेसेंट भारत में होम रूल लीग की स्थापना का सुझाव देती हैं. देश भर में इसे लेकर हलचल होती है.उनकी नजरबंदी से लेकर रिहाई तक का सफर तय होता है. इसी बीच 1917 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पहली निर्वाचित महिला अध्यक्ष होती हैं. उन्हें मदर और बड़ी अम्मा के नाम से पुकारा जाता है.

लंदन से भारत आयीं एनी बेसेंट और यहीं की होकर रह गयीं

1893 का साल भारत के लिहाज से कई मायने में अलग था. मोहनदास करमचंद गांधी उसी साल नटाल में एडवोकेट के तौर पर अपना रजिस्ट्रेशन कराते हैं, तो कुमार श्री रणजीत सिंह उस साल के जुलाई महीने में लॉर्ड्स के मैदान में कैम्ब्रिज की टीम से क्रिकेट खेलते हैं. बाद में इसी रणजीत सिंह की पहचान दुनिया के महान क्रिकेट खिलाड़ी के रूप में बनती है. संयोग देखिए कि उसी साल स्वामी विवेकानंद शिकागो की धर्म संसद में ऐतिहासिक भाषण देते हैं. और इधर, उसी साल एनी बेसेंट भारत पहुंचती हैं. उनका जन्म लंदन में हुआ था. यहां आने के बाद वह देश के अलग-अलग शहरों में गयीं. ट्रेन और बैलगाड़ी से उनकी ये यात्राएं हुईं. उनके भारत आये पांच साल भी नहीं हुए थे कि उन्होंने बनारस में सेंट्रल हिंदू कॉलेज की स्थापना की घोषणा कर दी.

पत्रकार हॉर्निमैन अंग्रेज थे, अंग्रेजों से ही लड़े

हॉर्निमैन ने लंदन में कई अखबारों में काम किया था. वह1904 में भारत आये. अंग्रेजी अखबार द स्टेट्समैन में काम शुरू किया. उनके वैचारिक लेखों से अंग्रेज अफसर खासे नाराज रहते थे. जुलाई 1914 में पहला विश्व युद्ध शुरू होने के बाद बंबई के गवर्नर लॉर्ड विलिंगडन ने प्रेस पर पाबंदी लगा दी. हॉर्निमैन ने इन पाबंदियों का विरोध तो किया ही, 1915 में प्रेस एसोसिएशन ऑफ इंडिया की स्थापना भी कर डाली. देश में पत्रकारों की पहली ट्रेड यूनियन के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने प्रेस की आजादी के लिए संघर्ष किया. 26 अप्रैल 1919 को कुछ अंग्रेज अफसर उनके घर आते हैं. उन्हें प्रत्यर्पण की चिट्ठी दी गयी. चिट्ठी में विधि द्वारा स्थापित भारत सरकार के खिलाफ नफरत और अवमानना फैलाने का आरोप था. इस पर गांधी ने सार्वजनिक बयान में कहा: सरकार ने आज हॉर्निमैन को बंबई से उठाकर इंग्लैंड जा रहे जहाज पर बैठा दिया है. वह बेहद साहसी और उदार अंग्रेज हैं. उन्होंने हमें स्वतंत्रता का मंत्र दिया है. एक महीने बाद हॉर्निमैन 26 मई 1919 को ग्रेवसेंड पहुंचे. करीब पांच साल बाद वह बिना किसी वैध पासपोर्ट के पेरिस से एक फ्रेंच नौका पर सवार होकर भारत के लिए निकल पड़े. यह भारत के लिए उनकी तड़प ही थी.

अमेरिकी राल्फ रिचर्ड ने भारत को बनाया अपना

राल्फ रिचर्ड कीथन ने अमेरिका में पढ़ाई पूरी करने के बाद दुनिया के गरीब हिस्से में जाकर काम करने का जीवन का लक्ष्य बनाया. इसके लिए उनके दिमाग में दो देशों के नाम थे. भारत और चीन. उन्होंने भारत आना तय किया. 1925 में वह भारत के लिए निकले. कोलंबों होते हुए मदुरै के अमेरिकी मिशन पहुंचे. वहां कीथन अपने साथियों के नस्लीय व्यवहार से अचंभित थे. उन्हें मिशन की आरामदेह जिंदगी पसंद नहीं थी. बाद में वह भारत के मुक्ति संग्राम से गहरे जुड़े. उन्हें देश निकाला हुआ. पर भारत उनके मन में बस चुका था. 1947 में वह परिवार के साथ यहां आ गये. एक अमेरिकी अपने नये देश की सेवा करने को हाजिर था.

साहस की प्रतिमूर्ति थीं कैथेरीन मेरी हीलेमान

लंदन में कैथेरीन की पहचान के मोहन सिंह मेहता से होती है. गांधी और उनके आंदोलन के बारे में उन्होंने सुन रखा था. इससे भारत के प्रति उनकी दिलचस्पी बढ़ी. वे 1932 में लीवरपुर से भारत के लिए निकलीं. बंबई पहुंचकर उदयपुर गयीं. मेहता उदयपुर के ही थे. वहां उन्होंने एक स्कूल खोल रखी थी. कैथेरीन ने वहां बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाना शुरू किया. तीन साल यहां रहने के बाद वह 1935 में वर्धा स्थित गांधी आश्रम में महात्मा से मिलती हैं. वहीं पर विनोबा भावे से संवाद होता है. इन मुलाकातों ने उनका जीवन बदल दिया था. स्कूल के दिनों में ही उन्हें अपना नया नाम ‘सरला’ मिल गया था. जीवन भर और उसके बाद भी वह इसी नाम से जानी जाती रहीं.

स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े स्टोक्स

उत्तरी अमेरिका के एक जाने-माने परिवार में स्टोक्स की पैदाइश 1882 में हुई थी. एक दिन स्टोक्स की मुलाकात अमेरिकी डॉक्टर कार्लटन से होती है. वे शिमला के पास कुष्ट रोगियों का आश्रम चलाते थे. स्टोक्स ने भारतीय उपमहाद्वीप के बारे में कई कहानियां डॉ कार्लटन से सुन रखी थीं. उन कहानियों से वह प्रेरित थे और भारत निकलने को बेताब भी. माता-पिता के भारी विरोध के बावजूद वह पानी के जहाज से 1904 में भारत पहुंचे. शिमला में उन्होंने चिकित्सा सेवा और शिक्षा के लिए काम किया. 1912 में उन्होंने एक ईसाई महिला एग्नेस बेंजामिन से शादी की. वह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के भी बेहद करीब रहे.

मैडेलीन स्लेड बन गयीं गांधी जी की बेटी ‘मीरा’

फ्रेंच लेखक रोम्यां रोलां की गांधी पर एक किताब पढ़ते हुए मैडेलीन को अहसास हुआ कि उनका जीवन गांधी के लिए समर्पित है. उन्होंने गांधी को कई खत लिखे. गांधी उन पत्रों का जवाब देते रहे. 6 नवंबर 1925 को मैडेलीन का जहाज लंदन से बंबई पहुंचा. वहां से अहमदाबाद आश्रम के लिए निकल पड़ीं. वह लिखती हैं: वहां पहुंच कर मुझे महसूस हुआ कि एक दुर्बल आकृति सफेद गद्दी से उठकर मेरी ओर बढ़ रही है. मैं बापू के चरणों में गिर पड़ी. उन्होंने मुझे थाम कर ऊपर उठाया और अपनी बांहों में भरते हुए कहा: आज से तुम मेरी बेटी हो. गांधी ने इस बेटी का नाम दिया: ‘मीरा’. ‘मीरा बेन’.

बदलाव की छटपटाहट के साथ आये फिलिप स्प्रैट

फिलिप स्प्रैट लंदन से भारत आये थे. 24 अप्रैल 1927 को स्प्रैट ने बंबई में स्टूडेंट्स ब्रदरहुड को संबोधित करते हुए कहा था कि भारत में क्रांति की सफलता के लिए जरूरी है कि देश को पूंजीवादी नेतृत्व से आजाद किया जाए. उन्होंने भारत में कांग्रेस संगठन को लचर बताते हुए खेद प्रकट किया. उन्होंने लाहौर में वामपंथी कार्यकर्ताओं से मुलाकात की. कानपुर में ट्रेड यूनियन के नेताओं से भेंट के बाद वह बंबई लौट आये. उनकी ओर से निकाला गया एक पर्चा उनकी गिरफ्तारी का कारण बना.पर्चे में बदलाव के लिए हिंसा की वकालत की गयी थी. मद्रास में कम्युनिस्ट नेता सिंगारवेलू चेट्टियार की बेटी सीता के साथ उनकी शादी हुई. 1971 में स्प्रैट ने मद्रास के अपने घर में अंतिम सांस ली.

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