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बिहार में वाम दलों का हाल : नयी सदी में फीका पड़ने लगा दल का रंग

बिहार में वाम दलों का रंग नयी सदी के आने के पहले से फीका पड़ने लगा. यह वहीं समय है जब मंडल कमीशन अपने उभान से नीचे उतरने लगा था और भाजपा का भगवा रंग अधिक सुर्ख तरीके से जनता पर चढ़ने लगा था. देश में दो नेताओं के समय चुनावी आंधी आयी जिसमें सभी […]

बिहार में वाम दलों का रंग नयी सदी के आने के पहले से फीका पड़ने लगा. यह वहीं समय है जब मंडल कमीशन अपने उभान से नीचे उतरने लगा था और भाजपा का भगवा रंग अधिक सुर्ख तरीके से जनता पर चढ़ने लगा था. देश में दो नेताओं के समय चुनावी आंधी आयी जिसमें सभी दलों को काफी हद तक प्रभावित किया.
राजीव गांधी के समय में 1984 की चुनावी आंधी थी, जिसमें बिहार में वाम दलों ने नालंदा और जहानाबाद की सीट बचा ली थी. पर 2014 में नरेंद्र मोदी की लहर देश में चली तो बिहार में वाम दलों का सुपड़ा ही साफ हो गया. करीब 20 साल पहले 1999 में हुए लोकसभा में एकमात्र माकपा नेता सुबोध राय ने भागलपुर की सीट जीती थी. इसके बाद लोकसभा के लिए राज्य से वाम दलों का रंग वोटरों पर चढ़ नहीं पाया.
बिहार में वाम दलों की सफलता-असफलता की असल कहानी 1998 के लोकसभा चुनाव से शुरू होती है. यह पहला चुनाव था, जब कई दशकों के बाद वाम दलों को बिहार में एक भी सीट नहीं मिली. पहली बार उनका लोकसभा में खाता नहीं खुला था. इसके बाद 1999 में हुए लोकसभा चुनाव में सीपीआइ ने अपनी खोयी प्रतिष्ठा लौटा ली.
भागलपुर लोकसभा क्षेत्र से सीपीआइ के प्रत्याशी सुबोध राय विजयी हुए. वर्ष 2004 के चुनाव में वाम दलों को फिर खाता नहीं खुला. 2009 के लोकसभा चुनाव में भी बिहार से वाम दलों के हिस्से एक भी सीट नहीं आयी. 2014 के चुनाव में एक बार फिर वाम दलों को सफलता नहीं मिली.
Prabhat Khabar Digital Desk
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