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बिहार : गुम हुआ फगुआ का मोहक स्वर, अब नहीं सजती संगीत की महफिल

पटना सिटी : …रंग डारो न कान्हा भिजत चुनरी, …सोने के कंगना कमर करधनियां हम लेबे होली में, … होली खेले रघुबीरा अवध में,… महक-महक उठा मन फाल्गुनी बयार में,…. बलमा घर आयो फाल्गुन में,…फगुवा बयार चलल, नेह के अबीर उड़ल सरीखे फाग गीतों के बीच ढोलक, झाल व मृदंग की थाप पर जब फगुआ […]

पटना सिटी : …रंग डारो न कान्हा भिजत चुनरी, …सोने के कंगना कमर करधनियां हम लेबे होली में, … होली खेले रघुबीरा अवध में,… महक-महक उठा मन फाल्गुनी बयार में,…. बलमा घर आयो फाल्गुन में,…फगुवा बयार चलल, नेह के अबीर उड़ल सरीखे फाग गीतों के बीच ढोलक, झाल व मृदंग की थाप पर जब फगुआ की महफिल सजती थी, तब माहौल मदमस्त हो जाता था.
गांव की संस्कृति को सहेजने वाली राजधानी में अब न तो फगुआ व चैतार की महफिल सजती है और न ही इसमें छिड़ने वाले तान. फागुन माह में देवर भौजाई की चुहलबाजी देखने को मिलती थी. … देवरा पंजाब गइल, पिया बैठल दिल्ली में जैसे गीत से विरह की आवाज आती थी.
… बजे ढोल मृदंग रंगी प्रियतम के रंग, … रंगवा गुलाल हाथ तोहरे छुवन से रंग में रंगाइल सजना जैसे गीतों के बोल से उत्साह व उमंग झलकता था, पर अब यह सब न जाने कहां गुम हो गया है. संगीत की महफिल में भाईचारे का प्रतीक प्रेम सद्भाव सौहार्द के अर्थ खोजे जाते थे. अब सब बदल गया है क्योंकि यह अतीत का हिस्सा बन गया है.
यूपी और मध्य प्रदेश से आते थे लोक गायक : वसंत के शृंगार उत्सव वाले फागुन में प्रकृति के जो रंग घुले हैं वह बरकरार हैं. रंग- बिरंगे खिले फूल व मंद-मंद हवाओं के झोकों से मानव मन खुशनुमा बन जाता है.
तब महीने की शुरुआत से गली मोहल्ले व चौक-चौराहों पर गीत संगीत की महफिल सजने लगती थी. रंगकर्मी व पत्रकार विश्वनाथ शुक्ल चंचल व साहित्यकार प्रो लाल मोहर उपाध्याय बताते हैं कि यों तो संगीत की सजी महफिल में गायक भी मोहल्ले के लोग होते थे, लेकिन होली के समय रंगभरी एकादशी से संगीत की महफिल को जीवंत करने के लिए वाराणसी, मिर्जापुर व मध्य प्रदेश के साथ दूसरे प्रांतों व सूबे के विभिन्न जिलों से लोकगीत के गायक आते थे.
प्रतियोगिता भी महफिल में होती थी. गायकों की टोलियां फाग का रस बिखेरती थीं. अब फगुआ व होली की पुरानी रंगत पूरी तरह काफूर हो चुकी. शहर में होली के त्योहार पर गाये जाने वाले फगुआ गीत अपनी छटपटाहट में अंतिम सांसें गिन रहा है. शहरों में भोजपुरी गीतों के नाम पर अश्लीलता परोसी जा रही है.
मंदिरों में भजन-कीर्तन से जमता था फाग का रंग
…गोकुल गलियारी कुंज गली में कैसे आऊ रे सांवरिया तोरे ब्रज में, …नंद जी के साथ खेलूं होरी रे,… तारो रे जगन्नाथ मोरा तारो सरीखे रसिया भजनों के माध्यम से मंदिरों में फाग का रंग जमता था. वैष्णव, जगन्नाथ, राधा- कृष्ण व शिव मंदिरों में भजन गायकों द्वारा वसंत पंचमी से पूर्णिमा तक धमार कीर्तन कर फाग का रंग जमाया जाता था. हालांकि, यह माहौल भी कुछ एक मंदिरों में ही दिख रहा है.
गांव-देहात में कायम परंपरा पर फूहड़ता हावी
शृंगार उत्सव वाले फागुन में जल्ला के गांव- देहात में अब भी फाल्गुन की महफिल सजती है. गांवों में भले ही पारंपरिक होली गीत फगुआ, उलारा, बेलवइया की धूम मची है.
गायकी को सुनने को गांव के लोग जुट रहे हैं, लेकिन सजी महफिल में अब आत्मीयता नहीं झलकती क्योंकि गिने -चुने जगहों पर आयोजित गीत- संगीत की इस महफिल में अश्लीलता व फूहड़ता ने अपना स्थान बना लिया है. आरकेस्ट्रा की धुन पर थिरकते युवाओं की टोली और फूहड़ गीत- संगीत से माहौल भद्दा हो जाता है. शहरों ने गायकी की यह परंपरा अब खत्म हो गयी है.
ढोलक, झाल, झाझ मृदंग की थाप पर जब पुरुषों की टोली होली खेलने निकलती थी, तब कोई महिला का वेश या दंपति का स्वांग रच नकल करता था. इसमें हंसी- ठठोली व शरारत सब कुछ होता था.
यह परंपरा भी अब धीरे-धीरे लुप्त हो गयी. अब निकलने वाली युवाओं की टोली में गाली- गलौज, अश्लीलता व फूहड़ता ने अपना स्थान बना लिया है. इससे माहौल भद्दा हो जाता है. हालांकि, गांवों से शहर आये कुछ लोग होली के पारंपरिक गीतों से गुलजार किये हुए हैं.
साहित्यकार व शिक्षाविद् पंडित लाल मोहर उपाध्याय व साहित्यकार नवीन रस्तोगी बताते हैं कि आज से चार दशक पहले तक होली का धमाल स्मरणीय होता था. आयोजनों के लिए भांग व ठंडई को घोटने वाराणसी से कारीगरों का दल आता था. जो नफासत व नजाकत से भांग व ठंडई तैयार करता था.अब भांग व ठंडई के बदले कंपनियों ने भी ठंडई को बाजार में उतार दिया है.

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