मधेपुरा : तस्वीर नहीं बदली शीशा भी नहीं बदला, नजरें भी सलामत हैं चेहरा भी नहीं बदला… शायर की यह पंक्ति जिले के चकला गांव में रहने वाले लोगों पर सटीक बैठती है. गांव की जिस खेत पर हल चलाकर किसानी करते थे. उनपर अब देश की सबसे ज्यादा शक्तिशाली इलेक्ट्रिक रेल इंजन तैयार होने लगी है. इंजन तैयार होने से जिले के बालमगढ़िया पंचायत स्थित चकला गांव की चर्चा विश्व के मानचित्र पर होने लगी है. देश ही नहीं विदेशों से भी लोग पहुंच रोजगार करने लगे. गांव के लोगों को भी सरकार द्वारा कारखाना में रोजगार देने की बात कही गयी थी.
गांव के लोग इस उम्मीद में थे कि खेती नहीं करेंगे लेकिन स्वयं व आने वाली पीढ़ी को गांव में ही रोजगार की व्यवस्था हो जायेगी. विडंबना देखिए कि गांव में कारखाना होने के बावजूद पंचायत की 80 प्रतिशत आबादी व लगभग 450 परिवार बेरोजगारी का दंश झेल रही है. कुल तीन हजार आबादी वाले चकला गांव के लोग पलायन को मजबूर हो रहे है. खेत के मालिक सरकार से मिली राशि से दूसरा व्यवसाय कर रहे है, लेकिन उन खेतों पर काम करने वाले मजदूरों की कोई सुधि नहीं ले रहा है, जबकि ग्रामीणों द्वारा रेल इंजन कारखाना के लिए खेती योग्य लगभग 307 एकड़ भूमि विकास के नाम पर सरकार को हस्तगत कर दी गयी है.
कारखाना में नहीं मिलती है मजदूरी: एफडीआइ के तहत खुले देश के पहले प्रोजेक्ट में भारत के साथ फ्रांस की साझेदारी है. ग्रामीण लोचन यादव व विनोद कुमार बताते हैं कि कारखाना में कभी-कभार दिहाड़ी मजदूरी मिलती है. इससे परिवार का गुजारा संभव नहीं है. ऐसे में दूसरे प्रदेश में पलायन करने की मजबूरी है, जबकि पहले गांव की खेत में ही काम मिल जाने से जीविका चलती थी. लोगों ने बताया कि काम देने के एवज में अब कारखाना वाले योग्यता की बात करते है, जबकि जमीन अधिग्रहण के समय सभी को रोजगार देने की बात कही गयी थी. इस बाबत आयुक्त से शिकायत भी की गयी है. अधिकारी कोई कार्रवाई नहीं कर रहे है.
इलेक्ट्रिक रेल इंजन कारखाना बनने के बाद भी नहीं बदली गांव की तस्वीर
गांव में मौजूद है ग्रेजुएट व आइटीआइ दक्ष बेरोजगार
औद्योगिकरण की राह पर चले चकला में रोजगार का टोटा
गांव में ग्रेजुएट व आइटीआइ हैं बेरोजगार
ग्रामीण राजेंद्र साह व उधो साह बताते हैं कि रेल कारखाना में काम करने के लिए गांव में योग्य व तकनीकी रूप से दक्ष लोगों की कमी नहीं है. नौकरी के लिए ग्रामीणों को प्राथमिकता नहीं दी जा रही है. इसका खामियाजा है कि गांव के लोग अपनी जमीन पर सरकारी इमारत को बेबस निहारते रहते है, जबकि कंपनी खुलने से पहले ग्रामीणों को कारखाना सहित कई प्रकार के स्वरोजगार से जोड़ने के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाने की बात कही गयी थी. ग्रामीण अरविंद यादव के पुत्र अमित कुमार ने बताया कि आइटीआइ डिप्लोमा होने के बावजूद उन्हें नौकरी नहीं दी गयी है. गांव में ग्रेजुएट की संख्या दर्जनों है जिन्हें नौकरी के लिए अन्यत्र भटकना पड़ रहा है.