रूपेश कुमार
मधेपुरा : मृत्यु भोज की प्रथा गरीब को भीतर से तोड़ देती है. कई बार इसके लिये ली गयी कर्ज को दूसरी पीढ़ी भी झेलती है. लेकिन मधेपुरा जिले के मुरलीगंज प्रखंड स्थिति भदौल बुधमा पंचायत में भदौल गांव में ग्रामीणों ने एक ऐसा निर्णय लिया जो न केवल अंधविश्वास को तोड़ने वाला है बल्कि भोज के लिये पीढ़ियों तक तोड़ देने वाले कर्ज से गरीबों को भी निजात पहुंचायेगा.
गांव के लोगों ने मिलकर निर्णय लिया कि किसी भी मृत्यु पर वे ने मृत्यु भोज करेंगे और न ही किसी तरह का कर्मकांड ही कराया जायेगा.विगत शुक्रवार को भदौल निवासी रामचंद्र राय की सास माता राजो देवी का निधन हो गया. इस अवसर पर लोग एकत्रित हुए थे. दाह संस्कार के बाद उनके ही दरवाजे पर सामाजिक बैठक की गयी. इसी बैठक में सर्वसम्मति से यह निर्णय लिया गया कि समाज में व्याप्त कुरीतियों को सुधारने की जरूरत है. इसलिए मृत्यु भोज भी नहीं किया जाये और न आत्मा के उद्धार के लिये कर्मकांड ही कराया जाये. पहले तो गांव के लोग इस बात पर थोड़े अचंभित थे लेकिन बाद में सब सहमत हो गये. बैठक में यह भी निर्णय लिया गया कि गांव में किसी की भी मृत्यु पर इसी परंपरा को आगे बढ़ाया जाये.
इस निर्णय में मुख्य रूप से विनोद यादव, मुखिया प्रतिनिधि पवन कुमार, सरपंच राजेंद्र राम, सेवा निवृत शिक्षक दीपनारायण यादव, सूर्यनारायण यादव, रामजी यादव, जयप्रकाश यादव, हजारी प्रसाद मंडल, भुवनेश्वरी यादव, पिंटू कुमार, रमेश तांती तथा अन्य ग्रामीण शामिल रहे. गौरतलब है कि गांव में बामसेफ लंबे समय से अंधविश्वास और पाखंड के खिलाफ अभियान चलाता रहा है.
पहले से तैयार थी क्रांति की पृष्ठभूमि
गांव के विनोद यादव ने बताया कि इस क्रांति की पृष्ठभूमि पहले से ही तैयार थी. गांव में कर्मकांड का विरोध लंबे समय से चल रहा था. इसकी शुरुआत 2013 में झकस मंडल की पत्नी के देहावसान से ही हुई थी.
उनके निधन के बाद कोई कर्मकांड नहीं हुआ था तथा पांचवे दिन श्रद्धांजलि भोज रखा गया था. उस समय भी गांव वासियों के आंशिक विरोध का सामना करना पड़ा था. लेकिन अब गांव वाले इसके लाभ को समझने लगे हैं. इंतजार इस बात का है कि यह आंदोलन भदौल गांव से निकल कर पूरे राज्य ही नहीं बल्कि पूरे देश में फैल जाये. उन्हें पूरी उम्मीद है कि यह हो कर रहेगा.
मृत्यु भोज पर एक साल में पांच अरब से ज्यादा होते हैं खर्च
बामसेफ के महासचिव हरिश्चंद्र मंडल ने कहा कि एक आकलन के अनुसार सिर्फ बिहार के गांवों में एक साल में मृत्यु भोज पर होने वाला खर्च पांच अरब से ज्यादा है. औसतन एक पंचायत में एक साल में मृत्यु भोज पर 50 लाख से ज्यादा खर्च हो रहा है. (लोग अपने परिजन के स्वर्ग-नरक सिधारने के चक्कर में अपनी जिंदगी को आर्थिक विपन्नता में धकेल देते हैं. कर्मकांड के चक्कर में आने वाले पीढ़ी को बर्बाद करने पर तुले हैं. जब तक समाज में वैज्ञानिक सोच विकसित नहीं होगा तब तक भारत तथा भारतीय विश्व समुदाय में पिछड़े ही रहेंगे.
इस निर्णय से गरीबों को मिलेगी राहत
रामचंद्र राय ने बताया कि यह निर्णय होना बहुत ही आवश्यक था. 2016 में जब उनके पिता का निधन हुआ था तब उन्होंने कर्मकांड और भोज में पांच लाख से ज्यादा खर्च किये तथा आज तक कर्ज से नहीं उबर पाये हैं. पंचायत के ही जितेंद्र कुमार यादव ने कहा कि दो महीना पहले उन्होंने मृत्यु भोज पर लाखों रुपये खर्च किये. अब जितेंद्र यादव अपने बच्चे को अच्छे विद्यालय में नहीं पढ़ा सकते हैं. अब इस निर्णय के बाद ऐसे लोगों को राहत मिलने की उम्मीद जग गयी है.
बेटी ने दिया मां की अर्थी को कंधा
भदौल गांव ने न केवल अंधविश्वास और कुप्रथाओं को तोड़ने में सकारात्मक पहल की है बल्कि इस गांव की बेटी ने अपनी मां की अर्थी को कंधा देकर समाज में स्थापित गैरजरूरी मान्यताओं को भी ध्वस्त कर दिया. विगत शुक्रवार को भदौल निवासी रामचंद्र राय की सास माता राजो देवी का निधन हो गया. राजो देवी की जब अर्थी उठी तो उनकी बेटी गुजिया देवी ने भी उस अर्थी को कंधा दिया.
पहले तो लोगों ने दबी जुबान से ही सही लेकिन विरोध किया पर बेटी गुजिया देवी हठ पर अड़ी रही. तब परिजन सहित समाज के अन्य लोगों ने भी उनका साथ दिया. अंतत: उन्होंने भी अपनी मां की अर्थी को कंधा दिया. संभव है कि यह गुजिया देवी के लिये आत्मसंतुष्टि का मसला हो लेकिन उनके इस कदम ने समाज में जड़ हो चुकी मान्यताओं को ध्वस्त करते हुए नयी और सार्थक परंपरा की नींव रखी है.