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लाहिड़ी परिवार जोर-शोर से कर रहे दुर्गा पूजा की तैयारी

बिना दूसरे सहयोग के पूरा परिवार करते हैं पूजा

-1924 में डॉ कमलेश चन्द्र लाहिड़ी ने शुरू की थी मां दुर्गा की पूजा-बिना दूसरे सहयोग के पूरा परिवार करते हैं पूजा

बच्छराज नखत, ठाकुरगंज

दुर्गोत्सव को लेकर हर साल की तरह इस बार भी भक्तों का उत्साह देखते ही बन रहा है. इन सबके बीच ठाकुरगंज का सबसे प्राचीन दुर्गा मंदिर में से एक दुर्गाबाड़ी में तैयारियां जोरों पर है. साल 1924 में स्थापित इस दुर्गाबाड़ी में लगातार 101 साल से बांग्ला पद्धति से मां दुर्गा की पूजा हो रही है जिसमें बलि प्रदान नहीं होता. जानकारी के मुताबिक प्रारंभ में बलि व्यवस्था यहां भी थी मगर कोरोना काल में इसे बंद कर दिया गया और तब से इसके बदले भतुआ, कोहड़ा, नींबू और गन्ने की बलि दी जाने लगी. ठाकुरगंज की सबसे पुरानी दुर्गापूजा माने जाने वाली लाहिड़ी पूजा अनूठी रस्मों और भोग के साथ परंपरा और भक्ति को एक साथ लाती है. कई तरह के प्रसाद से लेकर परमान्ना तक, यह पूजा पारंपरिक बंगाली भोजन और आध्यात्मिकता के बीच गहरे संबंध को दर्शाती है, जो बंगाल की सांस्कृतिक विरासत की एक दुर्लभ झलक पेश करती है . वेसे भी दुर्गा पूजा बंगाल के लोगों के लिए एक धार्मिक उत्सव से कहीं बढ़कर है. इसी को समझते हुए रेलवे में डाक्टर के पद पर नौकरी करने ठाकुरगंज आये डॉ कमलेश चन्द्र लाहिड़ी ने सन 1924 में जो पूजा आरंभ की वह पूजा आज ठाकुरगंज की एक पहचान बनी हुई है. उस दौरान यह परिवार भले ही समृद्ध था वर्तमान में आर्थिक स्थिति पहले जैसी समृद्ध नहीं है, फिर भी ये परिवार आज तक सभी अनुष्ठानों को बनाए रखते हुए समर्पण के साथ दुर्गा पूजा करते हैं. परिवारों के सभी लोग वार्षिक मिलन समारोह के रूप में धूमधाम से दुर्गा पूजा मनाने के लिए इकट्ठा होते हैं.

लाहिड़ी परिवार की पूजा उनलोगों के लिए भी आकर्षण का केंद्र है जो दुर्गापूजा का घरेलू स्पर्श पाने और पुरानी यादों में डूबे रहने के लिए बोनेडी बारिर पूजा देखने में रुचि रखते हैं. यह दुर्गापूजा भले ही लाहिड़ी परिवार की निजी पूजा हो लेकिन दशकों से ठाकुरगंज वासी इस पूजा स्थल पर कई रीतियों को ऐसे निभाते है मानो यह सार्वजनिक पूजा स्थल हो. पूजा-अर्चना में इस परिवार को कोई अन्य सहयोग नहीं मिलता है. यहां आज भी परंपरागत तरीक़े से पूजा अर्चना और साज-सज्जा की जाती है .

प्राचीनता का पुट लिए हे पूजा स्थल

यहां हर साल दुर्गा पूजा के दौरान सप्तमी से नवमी तक मां दुर्गा की प्रतिमा देखने के लिए काफी भीड़ लगती है. लाहिडी पूजा मंडप में कदम रखते ही बंगाल के ज़मींदारों की परंपरागत, पारिवारिक दुर्गा पूजा की झलक मिलती है. देवी की प्रतिमा हो या ढ़ाक की धुन- सब कुछ साधारण लगते हुए भी असाधारण अनुभूति कराता हैं. भक्तों के अनुसार आरती के समय प्रतिमा जैसे जीवंत हो उठती है, यह अपने-आप में एक दिव्य अनुभूति है.

परम्पराओं का होता है पालन

हालांकि कई पुरानी पारिवारिक पूजा समय की कसौटी पर खरी नहीं उतरतीं, लेकिन ऐसा लगता है कि लाहिड़ी परिवार के लिए यह कोई मुद्दा नहीं है. परिवार के सदस्य आलोक लाहिड़ी, सुब्रतो लाहिड़ी , जयन्तो लाहिड़ी अपनी पारिवारिक पूजा के बारे में बात करते हुए बहुत खुश होते हैं. अब 50 की उम्र पार होने के बाद भी उन्हें पूजा में शामिल होने में जोश और उत्साह में कोई बदलाव नहीं दिखता. वही परिवार की महिलाए भी आयोजन में धूमधाम से लगी है. वे कहते है “इस साल भी, हमारा बड़ा परिवार, अपने दोस्तों के साथ, हमारे घर में एक साथ आएगा और हम उन प्रतिष्ठित पांच दिनों को एक साथ बिताएंगे, जिनका हम इंतजार करते हैं . “

महिलाओं की भी रहती है काफी सक्रियता

पुश्तैनी रीति-रिवाजों में निहित यह पूजा वर्षो से चली आ रही उसी समर्पण और रीति-रिवाजों के साथ की जाती हैं। इस त्यौहार में उतना ही महत्वपूर्ण भोजन या पूजोर भोग है, जिसे देवता को पवित्र भोजन के रूप में चढ़ाया जाता है और फिर भक्तों में वितरित किया जाता है . इस मामले में परिवार की महिला सदस्य हेमंती लाहिड़ी, कजरी लाहिड़ी, चित्रा घोषाल, चेताली भट्टाचार्य, मिली लाहिड़ी कहती है मां दुर्गा की आराधना में एक अलग ही आनंद है.

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