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hajipur news. भगवान बुद्ध के अस्थि अवशेष का वैशाली को बेसब्री से इंतजार

आज वैशाख पूर्णिमा है, जिसे बुद्ध पूर्णिमा भी कहते हैं, वैशाली से असीम अनुराग और स्नेह रखने वाले बुद्ध का जन्म भी इसी दिन हुआ था, उन्होंने महापरिनिर्वाण भी इसी दिन पाया था

हाजीपुर. आज वैशाख पूर्णिमा है, जिसे बुद्ध पूर्णिमा कहते हैं. वैशाली से असीम अनुराग और स्नेह रखने वाले महात्मा बुद्ध का जन्म भी इसी दिन हुआ था और महानिर्वाण का भी यही दिन था. दुनिया को करुणा, दया, सत्य, अहिंसा और प्रेम का संदेश देने वाले भगवान बुद्ध के साथ वैशाली का बड़ा गहरा संबंध रहा है. इसी वैशाली नगरी के चापाल चैत्य में ईसा से 423 ईपू माघ महीने की पूर्णिमा को बुद्ध ने यह घोषणा की थी कि आज से तीन महीने बाद हमारा निर्वाण होगा. ठीक तीन महीने बाद वैशाख पूर्णिमा को कुशीनगर में उनका निर्वाण हुआ.

बताया जाता है कि तथागत के महानिर्वाण के बाद उनका दाह संस्कार कुशीनगर के मुकुटबांध चैत्य में हुआ. उनके शारीरिक अवशेष को लेकर विवाद छिड़ गया और उनके उपासक संघर्ष की मुद्रा में आ गये. द्रोण ने सभी को समझाया कि तथागत शांतिप्रिय थे. उनके अवशेष को लेकर रक्तपात करना मुनासिब नहीं. सबों ने अपनी दावेदारी पेश की. कपिलवस्तु के शाक्यों, रामग्राम के कोलियों, बैठदीप के ब्राह्मणों, अलकण्य के पुलियों, पावा के मल्लों एवं कुशीनगर के मल्लों के दावों के बीच वैशाली के लिच्छवियों ने कहा कि वैशाली बुद्ध की सबसे प्रिय भूमि थी. द्रोण ने तथागत के शरीरावशेष को आठ भागों में बराबर बांट दिया. लिच्छवियों ने अपने हिस्से का भस्मावशेष लाकर श्रद्धापूर्वक एक मिट्टी के स्तूप के नीचे रख दिया. 1958 के मार्च महीने में पुरातत्वशास्त्री डॉ अनंत सदाशिव अल्तेकर के प्रयास से हुए उत्खनन में महात्मा बुद्ध के भस्मावशेष पत्थर की एक मंजूषा में अभिषेक पुष्करणी के उत्तर पूर्व कोने पर प्राप्त हुए. वह अवशेष अभी पटना संग्रहालय में सीलबंद तिजोरी में बंद है. वैशालीवासियों को भगवान बुद्ध के अस्थि अवशेष का बेसब्री से इंतजार है. इसके लिए वैशाली में बन रहे बुद्ध सम्यक दर्शन संग्रहालय का निर्माण कार्य अब पूरा होने को है.

वैशाली से जब विदा हुए बुद्ध

भगवान बुद्ध के जीवन के आखिरी कुछ दिन बड़े मार्मिक ढंग से वैशाली में व्यतीत हुए थे. बौद्ध साहित्य में किये गये जिक्र के मुताबिक, अपने निर्वाण का समय करीब आते देख कर महात्मा बुद्ध वैशाली से विदा होने को तैयार हुए. चापाल चैत्य से वे महावन के कूटागार-विहार में आये. भिक्षुओं को वहां बुलाकर उन्होंने उपदेश दिया. उसके बाद अंतिम भिक्षाटन के लिए अपना पिंडपात्र लेकर नगर में प्रवेश किया. पूरे नगर में घूम कर वे पश्चिमी द्वार से बाहर निकल गये. बाहर निकलने के बाद वे क्षण भर रुके और स्नेहपूर्ण आंखों से वैशाली को निहारते हुए आनंद से कहा- आनंद, तथागत का यह अंतिम वैशाली दर्शन है. बुद्ध के हृदय में इस भूमि के प्रति जो भाव था, वह उनके इस वाक्य से प्रकट होता है. यह सुन कर कि भगवान बुद्ध अब वैशाली से हमेशा के लिए जा रहे हैं, लिच्छवी शोकाकुल हो गये और उनके पीछे-पीछे चल दिये. बुद्ध के बार-बार आग्रह करने के बाद भी लिच्छवी उन्हें छोड़ कर वापस लौटने को तैयार नहीं थे. कहा जाता है कि तब उन्होंने लिच्छवियों को रोकने के लिए अपनी आध्यात्मिक शक्ति से एक नदी उत्पन्न कर दी, जिसकी तेज धारा के सामने लिच्छवियों को रुक जाना पड़ा. वे किनारे पर खड़े होकर चुपचाप बुद्ध की ओर एकटक ताकते रहे. लिच्छवियों के इस करुणा भाव को देख कर क्षण भर के लिए बुद्ध का हृदय भी स्नेह से भर उठा. लिच्छवियों के लिए अपने आशीर्वाद और प्रेम के प्रतीक के तौर पर अपना भिक्षा पात्र किनारे रख कर वे कुशीनगर की ओर निकल पड़े.

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