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350 डिग्री तापमान में तपने के बाद आपकी थाली में आता है मखाना, जानिये क्या है लावा बनाने की प्रक्रिया

मिथिला जायें और मखाने की बात न हो, यह भला कैसे संभव है. दरभंगा एयरपोर्ट के आने से बहुत कुछ बदला है. इसी कड़ी में मखाने की खेती और कारोबार के बारे में जानने की कोशिश की गयी. पढ़िए दरभंगा से लौट कर राजदेव पांडेय की ग्राउंड रिपोर्ट की तीसरी कड़ी.

मिथिला जायें और मखाने की बात न हो, यह भला कैसे संभव है. दरभंगा एयरपोर्ट के आने से बहुत कुछ बदला है. इसी कड़ी में मखाने की खेती और कारोबार के बारे में जानने की कोशिश की गयी. पढ़िए दरभंगा से लौट कर राजदेव पांडेय की ग्राउंड रिपोर्ट की तीसरी कड़ी.

प्रोटीन से भरपूर मिथिला का मखाना आपकी थाली में आने से पहले किस प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है, यह हर किसी को जानना चाहिए. माखाना के लावा बनाने की यह तकनीक जटिल है. 350 डिग्री सेल्सियस पर तप कर मखाने की गुर्री नर्म लावे की शक्ल में बाहर आती है. जिस जगह मखाने का लावा तैयार किया जाता है, उस जगह का तापमान औसतन 45 से 50 डिग्री तक होता है.

लावा बनाने की प्रक्रिया 72 से 80 घंटे से अधिक की होती है. मखाने के बीज अथवा गुर्री निकालना और भी चुनौतीपूर्ण होता है. विशेषज्ञों के मुताबिक इसकी खेती दुनिया में सबसे जोखिम भरी है. सामान्य तौर पर चार से पांच फुट गहरे पानी में बेहद नुकीले कांटों वाले पौधे से इसे तोड़ना कांटों से खेलने के बराबर है.

शुरुआत में हाथों की उंगलियां कुछ इस तरह लहूलुहान होती हैं कि बाद में खून निकलने की जगह उंगलियों में सिर्फ कठोर गांठे उभर आती हैं. रात के विशेष तापक्रम में गहरे पानी की पांक में गपे इसके फल ( गुर्री ) को डुबकी मार-मार कर निकालना जान पर खेलने जैसा होता है.

मखाना की खेती करने वाले युवा शिवम मल्लाह बताते हैं कि दो से तीन मिनट की एक डुबकी होती है. बाद में यह पांच मिनट से ज्यादा नहीं लगायी जा सकती. कीचड़ में गपी गिर्री को निकालने से कई बार नाखून तक उखड़ जाते हैं.

शताब्दियों के अनुभव से बनता है मखाने का लावा

ताल से गुर्री निकालने वालों को कहते हैं बहोरिया. यह मल्लाहों की ही जाति है. पानी में तैरना इनके लिए पैदल दौड़ने की तरह है. ये बेहद कुशल गोताखोर होते हैं. इनके पारंपरिक कौशल पर ही मखाने का उत्पादन टिका है़.

पानी में इनकी कुशलता देखते ही बनती है. इनके करीब पूरे मिथिला में करीब साढ़े चार लाख से अधिक परिवार हैं. ये अपने छोटे-छोटे कारखाने कुटीर उद्योग की शक्ल में झोपड़ियों में या सूनसान इलाकों में कैंप लगाकर चलाते हैं.

कुछ यूं बनता है मखाने का लावा

कारखाने में गुर्री की ग्रेडिंग छह छलनियों से की जाती है़. कच्चा लोहा मिश्रित मिट्टी के छह बड़े पात्रों को चूल्हों या भट्टियों पर रखा जाता है. तापमान 250 से 350 डिग्री सेल्सियस तक होता है. दूसरी हीटिंग, 72 घंटे बाद की जाती है. इस दौरान ऊपर परत एकदम चटक जाती है. फिर उसे हाथ में लेकर हल्की चोट की जाती है तो वह नर्म मखाना बाहर आ जाता है.

मुनाफे पर बिचौलियों का कब्जा

बिचौलियों के नियंत्रण में यह कारोबार है. छोटे-छोटे कुटीर उद्योग की शक्ल में चल रहे कारखानों से 210 रुपये प्रति किलोग्राम से निकला मखाना छोटे शहरों से सुपर मार्केट तक में 1200 रुपये तक बेचा जाता है़

आयी नयी किस्म स्वर्ण वैदेही

दरभंगा में मखाना के एक शोध केंद्र की देखरेख में इंडियन एग्रीकल्चर रिसर्च ऑफ काउंसिल की तरफ से 2010 में इजाद की गयी मखाना की एक विशेष किस्म ”स्वर्ण वैदेही” विकसित की गयी है. वह तालाबों से परे डेढ़ से दो फुट के पानी में भी हो सकती है. अब धीरे धीरे लोकप्रिय हो रही है.

एक्सपर्ट व्यू

मिथिला के मखाने की गुणवत्ता का कोई सानी नहीं है़ खासतौर पर इसका प्रोटीन कंटेंट सबसे खास है़ आधुनिकतम रिसर्च से किसानों को लाभान्वित करने के लिए विशेष प्रयास होने चाहिए. हालांकि अब स्टार्ट अप सामने आ रहे हैं जो सीधे किसानों से माल खरीद रहे हैं. हालांकि इस खेती का असल फायदा बिचौलिए ही उठा रहे हैं.

खेती से जुड़े हैं पांच लाख से अधिक परिवार

2010 के आसपास हुए विशेष सर्वे के मुताबिक मखाने की खेती से समूचे उत्तरी बिहार में पांच लाख से अधिक परिवार जुड़े हैं. बहेड़ा इलाके के महेश सहनी बताते हैं कि मखाने की गुर्री वे सहरसा के तालाबों एवं खेतों से लाते हैं. दस लाख रुपये कर्ज कारोबारी देते हैं. यहां से कारोबारी 67 फीसदी मखाना ले जाते हैं.

शेष 33 फीसदी मखाना हम रख लेते हैं. हम तीन सौ से साढ़े चार सौ रुपये प्रति किलो के भाव से दरभंगा के छोटे कारोबारियों को बेचते हैं. तीन से चार लाख रुपये साल में मखाना बेचते हैं. परिवार में औसतन सात से आठ लोगों की मजदूरी प्रति सदस्य दस हजार रुपये भी नहीं पड़ती है़

Posted by Ashish Jha

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