संजीव
टिल्हा कोठी में बने राहत शिविर में सरकारी भोजन मिल रहा है, जिससे भूखे मरने की नौबत नहीं है. लेकिन प्लास्टिक की छत के नीचे दो-तीन बकरियों के पास खटिया पर 24 घंटे पड़ी रहनेवाली पत्नी को देख वह बेचैन हैं. यहां आनेवाले हर बाहरी आदमी से वह अपनी पत्नी को बचा देने की गुहार लगाते हैं. वह कहते हैं…बूढ़ा हो गया हूं. मजदूरी छिन जाने से हाथ में पैसे भी नहीं कि डॉक्टर को जाकर दिखा सकें. सहदेव महतो सवाल भी करते हैं कि सरकारी अस्पताल में चले भी जायेंगे, तो छोटे-मोटे खर्च कहां से लायेंगे.
इन तमाम परेशानियों के बीच उठते सवाल उन्हें बेचैन कर रहा है. पत्नी की कराह सुन वह खुद ही उनकी पांव दबाने पहुंच जाते हैं. दिलासा देते हुए कहते हैं…थोड़ा और बर्दाश्त कर लो, विश्वास रखो, तुम फिर से चलने-फिरने लगोगी.