महामहोपाध्याय आचार्य डॉ सुरेन्द्र कुमार पाण्डेय
पूर्व आइएएस, प्रयागराज
Holi 2025 Significance and Importance: स्नेह, सौहार्द्र और समरसता का पर्व होली समस्त उत्तर भारत में अतिशय हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है.रंगो का यह पर्व फाल्गुन शुक्ल पक्ष पूर्णिमा को होलिका दहन के अगले दिन होता है.अनेक स्थानों पर यह त्योहार दो दिन तक चलता है. होली पर्व का कुछ प्राचीन ग्रन्थों में सांकेतिक और कुछ ग्रन्थों में स्पष्ट वर्णन प्राप्त होता है.शतपथ ब्राह्मण,भविष्यपुराण,हेमाद्रि, निर्णय सिन्धु,भागवत पुराण, नारदपुराण ,लिंग पुराण और वाराह पुराण आदि प्राचीन ग्रंथों में होली पर्व और फाल्गुन पूर्णिमा पर्व का वर्णन मिलता है. नारद पुराण इसे होलिका दहन के साथ साथ कामदेव का दाह भी कहता है.
शास्त्रों के अनुसार आज कैसे करें होलिका पूजन व दहन ? जानें पूरी विधि
नारद पुराण के अनुसार फाल्गुन की पूर्णिमा को सब प्रकार के काष्ठों और उपलों को इकट्ठा करके रक्षोघ्न मन्त्रो द्वारा अग्नि में विधिपूर्वक होम करके होलिका पर सूखी लकड़ी आदि डालकर उसमें आग लगा दे. इस प्रकार जला कर होलिका का परिक्रमा करते हुए उत्सव मनावे. यह होलिका प्रहलाद को भय देनेवाली राक्षसी है. इसलिए गीत मंगलपूर्वक लोग उसका दाह करते हैं. मतान्तर से यह कामदेव का दाह है.होली पर्व की पृष्ठभूमि में विभिन्न कारकों पर विचार करें ,तो पहले हिरण्यकशिपु, प्रह्लाद और हिरण्यकशिपु की बहन होलिका की कथा सर्वविदित है.होलिका को ब्रह्मा का वरप्राप्त था कि वह अग्नि में भी नहीं जलती थी.
भगवद्भक्त प्रह्लाद के ऊपर भगवान् से विमुख होने के लिए जब अनेक प्रकार के अत्याचार कर हिरण्यकशिपु असफल हो गया तो उसने प्रह्लाद को अग्नि में जलाने के लिए होलिका को आज्ञा दी कि वह प्रह्लाद को अपनी गोंद में लेकर जलती हुई अग्नि में प्रवेश कर जाय.परन्तु भगवान् नारायण की कृपा से प्रह्लाद तो अग्नि से बच गया किन्तु होलिका जल गयी.इस चमत्कारिक घटना से प्रसन्न लोगों ने उल्लास को प्रकट करने के लिए अवशेष भस्म को एक दूसरे पर उछाल कर आनन्द लिया और होलिका के लिए अपशब्दो का प्रयोग किया.इस प्रकार अन्याय और अत्याचार के ऊपर न्याय और सदाचार की विजय की स्मृति में होली पर्व कालान्तर में मनाया जाने लगा.चूंकि उस दिन फाल्गुन पूर्णिमा थी तो होलिकोत्सव भी इसी तिथि पर मनाया जाता है.
होली पर्व के मनाने के पीछे दूसरा कारक यह है कि फाल्गुन की समाप्ति पर रवी की फसलें लगभग पकने की स्थिति में आ जाती हैं.संस्कृत में आग में भुने हुए अन्न को होलकः कहते हैं.शब्द कल्पद्रुम में होलकः शब्द का अर्थ लिखा है –तृणाग्निभृष्टार्ध्दपक्वशमीधान्यम्.
भावप्रकाश में भी कहा गया है अर्द्धपक्वैःशमीधान्यैस्तृणभृष्टैश्च होलकः.
अर्थात् आधे पके हुए शमी, धान्य , तृण को होलक कहते हैं.
हमारे हिन्दू सनातन धर्म में यह मान्यता है कि नूतन अन्न को पहले देवताओं को अर्पित करने के बाद ही उपयोग में लिया जाता है. वैदिक वाड्मय में अग्नि को देवताओं का मुख कहा गया है.अग्निर्वै देवानां मुखम्- शतपथ ब्राह्मण.इसलिए यज्ञ में अग्नि के माध्यम से देवताओं को हवि पहुंचायी जाती है.आज भी होली में लोग पके हुए अन्न को पौधों सहित डालते हैं.गेहूं, जौ , अलसी आदि के फल सहित पौधों को होलिका ( प्रज्ज्वलित अग्नि)के माध्यम से देवताओं को अर्पण किया जाता है.होली के बाद ही रवी के फसलों की कटाई शुरू होती है.इस प्रकार होली पर्व का कृषिक और धार्मिक महत्त्व सुस्पष्ट है.
भविष्य पुराण अध्याय 133 में कहा गया है कि प्राचीन काल में ढुण्ढा नामकी एक राक्षसी शिवजी द्वारा वरदान प्राप्त करके अवध्य होकर छोटे शिशुओं को कष्ट, पीड़ा और व्याधि दिया करती थी, उसी को बुरी बुरी गालियाँ देकर इस दिन लोग उसके पुतले को जलाते हैं.
होली का त्यौहार वसन्त ऋतु में मनाया जाता है.वस्तुतः वसन्त ऋतु हर्ष, उल्लास, उमंग और आनन्द की ऋतु होती है.उल्लास और रंग एक दूसरे के पूरक हैं.प्रकृति भी इस समय उल्लासमय होती है.संस्कृत साहित्य में अनेकशःवर्णन है कि प्राचीन काल में वसन्त ऋतु में आनन्द मनाये जाने के क्रम में श्रृंगार रस के नाटकों का मंचन होता था. वासन्तिक वायु मनुष्यों में काम, आनन्द और मस्ती का संचार करती है.इस प्रकार होली का पर्व उल्लास, रंग और अल्हण का उत्सव है.मनोविनोद , हास – परिहास से लोंगो का स्वास्थ्य उत्तम रहता है.मनुष्य स्वभाव से उत्सव धर्मी प्राणी रहा है.
आयुर्वेद की दृष्टि से विचार करने पर यह स्पष्ट होता है कि होली का पर्व शीतॠतु के तुरन्त बाद आता है.शीत ऋतु में मनुष्यों में कफ श्लेष्मा की मात्रा बढ जाती है. यह कफ और श्लेष्मा होली की उष्मा से पिघलती है.भुना हुआ अन्न और गुड कफ -नाशक होता है.भावप्रकाश में लिखा है कि होलकोsल्पानिलो मेदः कफदोषश्रमापहः. अन्न में गुड़ मिलाना कफ के निस्तारण में उपयोगी होता है- गुडेन वर्द्धितःश्लेष्मा सुखं वृद्धया निपात्यते.भुने हुए अन्न की चर्चा ऊपर की गयी है होली के समय सभी घरों में गुड आदि मीठे की गुझिया बनाने की व्यापक परम्परा है.गुझिया के अन्दर गुड ,मेवा सहित सोंठ आदि जो पदार्थ भरे जाते हैं वे सभी कफ और श्लेष्मा को नष्ट करते हैं.इसलिए गुझिया आदि पक्वान्न होली पर खाना स्वास्थ्य वर्धक है.
आजकल लोगों के अन्दर आन्तरिक आह्लाद, प्रसन्नता और उत्साह की कमी होती जा रही है. होली के अवसर पर बृहद् रूप से गाने- बजाने का कार्यक्रम होता है और लोग उसमें स्वेच्छा से भागीदारी करते हैं. मस्ती से सराबोर होकर नाच गाना हास्य परिहास, विनोद, हँसी मजाक करते हैं. इससे लोगों के भीतर का विषाद मिटता है और उनके चित्त में प्रसन्नता का संचार होता है. आयुर्वेद के अनुसार प्रसन्न चित्त लोगों के सभी रोग नष्ट हो जाते है.
होली पर्व के सामाजिक समरसता के महत्त्व को रेखांकित किये बिना यह चर्चा अधूरी रहेगी.होली एकमात्र ऐसा त्योहार है जिसमें लोगों के बीच ऊच- नीच, छोटे- बडे का कोई भेद भाव नहीं रहता. सभी जाति और वर्ग के लोग मिल जुल कर इस पर्व को मनाते हैं. नर और नारी दोनों मिलकर इस अनुपम त्योहार को उत्साह पूर्वक सार्वजनिक रूप से मनाते हैं.चूंकि यह सामूहिक त्योहार है, इसलिए भी इसमें सभी की भागीदारी आवश्यक होती है. होली का त्योहार अकेले मनाया जाने वाला त्यौहार नहीं है.
एक वर्ष के अन्दर लोगों के बीच जो भी मतभेद और गिला शिकवा होता है वह सब होली की आग में भस्म हो जाता है.होली पर बिना किसी भेदभाव के लोग एक दूसरे के गले मिलते हैं.
इस प्रकार रंगो का महापर्व होली स्वास्थ्य, धार्मिक परम्परा, कृषकों की समृद्धि, उल्लास और मनोविनोद एवं सामाजिक सद्भाव बढाने वाला उत्सव है.
आज पूरे देश में सामाजिक समरसता और सामाजिक सद्भाव और पारस्परिक प्रेम की महती आवश्यकता है. होली का त्योहार समाज में अपेक्षित सामाजिक सौहार्द, सद्भाव, मेलजोल और भाईचारे को बढ़ावा देता है.
सभी के जीवन में आनन्द और उल्लास का समावेश हो, सबको आयु, आरोग्य और ऐश्वर्य प्राप्त हो ,इसी कामना के साथ आप सबका शुभेच्छु !