श्रीश्री आनंदमूर्ति
आध्यात्मिक गुरु व आनंद मार्ग के संस्थापक
भक्ति शब्द का अर्थ होता भजना. भजना करने के लिए, जो भजन करते हैं और जिनकी भजना की जाती है, इन दोनों सत्ताओं की उपस्थिति अपरिहार्य है. इसलिए जब तक भक्त और भगवान का भेद है तब तक भक्ति साधना का सुयोग तथा प्रयोजन रहता है.
‘भक्ति’ का अर्थ है ‘परानुरक्ति’. ‘परानुरक्ति’ का अर्थ क्या है? ‘रक्ति’ शब्द का अर्थ राग व आकर्षण है. अनुरक्ति का अर्थ होता है किसी वस्तु की सत्ता को समझ, उसके प्रति राग रखना व उससे आकर्षित होना. अनुरक्ति दो प्रकार की होती है- परम ब्रह्म व अखंड पुरुष. सत्ता के प्रति जो अनुरक्ति है, वह है परानुरक्ति. ईश्वर परानुरक्ति का विषय है. साधक जब उसको अपना लेते हैं, तो वही भजना या भक्ति कही जाती है.
हमें यह समझना होगा कि मन के अंतर्मुखी या बहिर्मुखी गतिभेद से ही अनुरक्ति दो प्रकार की होती है. स्पष्ट शब्दों में यह है कि बहिर्मुखी गति अपरानुरक्ति है और अंतर्मुखी गति परानुरक्ति. बहिर्मुखी गति मनुष्य को इंद्रियों का दास बनाकर उसकी सत्ता को जड़ बना देता है. परानुरक्ति उसको इंद्रिय धारा से हटाकर सूक्ष्म मननशीलता के भीतर से अतींद्रिय में प्रतिष्ठित करती है- परमप्रशांति में प्रतिष्ठित करती है.
आकर्षण प्रत्येक सत्ता में स्वाभाविक : अब प्रश्न यह उठता है कि भक्ति जीवों के लिए स्वाभाविक है या अस्वाभाविक? परिदृश्यमान जगत में जो कुछ हम देखते है, ये सब एक-दूसरों को आकर्षित कर रहे हैं. यह आकर्षण ही सृष्ट जगत का धर्म है और फलस्वरूप बाह्म चिंताधारा ठीक बनी रहती है. इसलिए कहता हूं कि आकर्षण प्रत्येक सत्ता में स्वाभाविक है.
मधुमक्खी अपने प्राण धारण के लिए ही मधु आहरण के उद्देश्य से फूलों की ओर दौड़ती रहती है. देखा जाता है कि प्रत्येक सत्ता अपने उसी आश्रय की ओर अधिक भागती है, जो आश्रय जितना अधिक स्थायी और निरापद है तथा जो उसको जितने अधिक काल तक निर्भावना से बचा कर रख सकता है. मनुष्य रुपये की ओर इसलिए दौड़ता है कि वह जानता है कि रुपयों के आश्रय से वह जीवित रह सकेगा, किंतु वह यह नहीं जानता है कि यह रुपया उसे न तो स्थायी भरोसा दे सकेगा और न दृढ़भित्तिक आश्रय ही. उसके जीवनकाल में ही कितनी बार रुपया आयेगा और जायेगा. कभी उसकी चमक उसकी आंखों को चकाचौंध में डाल देगी और कभी क्षुधापीड़ित कर उसको रुलायेगी.
भक्ति प्रेमरूपी ईश्वर है : केवल रुपया ही क्यों, समस्त खंड वस्तुओं का ही तो ऐसा स्वभाव है. उनकी सीमित सत्ता के एक अंश भोग के उद्देश्य से व्यवहार करते रहने पर शीघ्र हो व विलंब से, उनकी शेष सीमा तो आयेगी ही.
इससे यह पता चलता है कि जिसमें असीमिता नहीं है, वह स्थायी भाव से तुम्हारा भोग्य नहीं हो सकेगा. वह तुम्हारा स्थायी आश्रय नहीं हो सकता, क्योंकि इन सबों का अस्तित्व ही देश-काल और पात्र की रेखाओं से घिरा हुआ है. इस खंड आकर्षण को दार्शनिक भाषा में आसक्ति कहते हैं और अखंड के प्रति आकर्षण को भक्ति कहेंगे, किंतु राग या रक्ति कहने से ये दोनों ही समझी जाती है. भक्ति प्रेमरूपी है और जो ‘क’ अक्षरात्मक ईश्वर हैं, उनके प्रति यही प्रेम निवेदित किया जाता है (वैदिक भाषा में ‘क’ शब्द का अर्थ ईश्वर है). पुरुष और प्रकृति-प्रकृति के प्रभाव से जहां पुरुष में विकृति आती है, वही मन सृष्टि होता है. मन की कर्मधारा का ग्राहक बाह्म इंद्रिय समूह है. इसलिए देखा जाता है कि मन जागतिक समस्त कार्यों का लौकिक ज्ञाता या विषयी है.
साधक का यही स्वरूप स्थिति है, किंतु मन जब अविद्या से परिचालित होता है अर्थात भावात्मक भाव लेकर खंड वस्तु की ओर दौड़ता है तब मन के उस बहिर्मुखी भाव की चरम परिणति स्थूल विषय में होती है, चाहे यह विषय उसका मनसृष्ट हो या पंचभूतात्मक जड़-जगत आधृत हो.
कौन पा सकता है परम ब्रह्म को ?
अविद्याश्रयी मानव जिस दुर्दांत वेग से खंड वस्तु की ओर दौड़ता है, उसी वेग से यदि वह अंतर्लोक से निज जीवन देवता की ओर दौड़े, तो परम ब्रह्म को प्राप्त कर सकता है- अपने परम पद को पा सकता है. अर्थात अविवेकी मनुष्यों के मन का विषय के प्रति जो दुर्दमनीय आवेग रहती है, हे ईश्वर! तुम्हारे स्मरण करने से तुम्हारा वही प्रेम अक्षय होकर रहे.
पीड़ित मानव के दुख को बांटना भक्ति-साधना
तुम निश्चय ही समझते हो कि प्रकृति भक्ति कभी भी खंड सत्ता के ऊपर नहीं हो सकती. कारण खंड सत्ता का अस्तित्व बहिर्मुखी भाव द्वारा उपलब्ध होता है, किंतु दुख के साथ देखता हूं कि अधिकांश मनुष्य अपने प्रेम, अपनी भक्ति को खंड में सीमित रखने के लिए ही साधना करते हैं. परिणाम होता है कि वे प्रेम की व्यापकता नहीं पाते हैं.
वे नहीं समझते हैं कि इस विराट विश्व की प्रत्येक अणुसत्ता उसी भूमापुरुष की लीलामय विकास है. वे विग्रह की प्रतिष्ठा में लाखों रुपये खर्च करते हैं, किंतु पीड़ित मानव के दुख को देखकर वे द्रवित नहीं होते, देवी की तुष्टि के लिए निरपराध शिशु की निर्मम हत्या करने में जरा भी नहीं हिचकते. भक्ति साधनकाल में मनुष्य साधारणतः अपने संस्कारगत भाव को लेकर आगे बढ़ता है. यद्यपि इस प्रकार संस्कार-भावात्मक साधना कभी भी साधक को विशुद्ध ब्राह्मीभाव में प्रतिष्ठित नहीं कर सकती. अर्थात भक्तियोग की विधि और प्रकार अनेक हैं. मनुष्य स्वभावानुसार विभिन्न मार्गों से भक्ति-साधन करते हैं.
प्रस्तुति : दिव्यचेतनानंद अवधूत
