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Property Rights Of Tribal Women : सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस कृष्ण मुरारी की पीठ ने 2022 में कमला नेती बनाम विशेष भूमि अधिग्रहण अधिकारी के केस में आदिवासी महिलाओं के संपत्ति अधिकारों को लेकर एक अहम फैसला सुनाया. उन्होंने केंद्र सरकार से आग्रह किया कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में आवश्यक संशोधन करके आदिवासी महिलाओं को भी संपत्ति में समान अधिकार प्रदान किए जाएं. सुप्रीम कोर्ट के इस मत से यह स्पष्ट है कि कोर्ट आदिवासी महिलाओं को पुरुषों के बराबर संपत्ति पर अधिकार देना चाहता है.
लेकिन यहां गौर करने वाली बात यह है कि आदिवासियों के परंपरागत रीति–रिवाज इस मामले में अलग दृष्टिकोण रखते हैं. आदिवासी समाज में संपत्ति की अवधारणा व्यक्तिगत तौर पर ना होकर सामूहिकता में होती है. आदिवासियों की संपत्ति को लेकर जो सोच है उसे समझने के लिए हमें आदिवासी समाज और उनके रहन–सहन को समझना होगा. आदिवासियों का समूह अलग तरह की भाषा और संस्कृति को सहेजे हुए है, जिन्हें सुरक्षित रखने का संकल्प भारतीय संविधान में लिया गया है और कई कानून भी हैं, जिनके जरिए आदिवासियों की संस्कृति और समाज को बचाने के प्रावधान किए गए हैं.
आप यह कह सकते हैं कि बात महिलाओं के संपत्ति पर अधिकार को लेकर हो रही थी,तो फिर यहां आदिवासी संस्कृति को बचाने वाले कानूनों की बात क्यों होने लगी? सवाल जायज है, लेकिन यहां यह बताने का उद्देश्य आदिवासी और आदिवासियत को समझाना है. आदिवासियों का इतिहास लिखित नहीं हैं, लेकिन उनकी परंपराएं जो कहती हैं, उनके अनुसार संपत्ति की जो अवधारणा या सोच उनके बीच शुरुआत से है वह समुदाय आधारित है. प्राचीन समय में एक गांव के लोग साथ रहते और खेती करते हैं. उपज पर समूह का अधिकार होता था और सबको एक समान हक मिलता था. अंग्रेजों ने आदिवासियों को पट्टा दिया, जिसमें उनके द्वारा जोते–कोड़े जा रहे खेत एक परिवार के हो गए. चूंकि समाज पुरुष प्रधान था, इसलिए पट्टा अधिकतर पुरुषों के नाम पर ही मिला.
आदिवासी संस्कृति में बेटी
झारखंड के आदिवासियों में चाहे वो मुंडा हों, उरांव, संताल, हो या फिर खड़िया हों, सभी 32 जनजातियों में महिलाएं सशक्त हैं. वो पुरुषों के बराबर ही काम करती हैं और एक घर और परिवार को चलाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है. आदिवासी समाज में महिलाओं का जन्म जश्न का विषय है, ना कि शोक का. बावजूद इसके आदिवासी समाज एक पितृसत्तामक समाज है. यही वजह कि आदिवासी समाज यह मानता है कि एक बेटी तबतक ही अपने परिवार के रीति–रिवाजों के अनुसार काम करती है, जबतक कि उसका विवाह नहीं होता है. विवाह के बाद वह अपने पति के परिवार और उसके नियमों से बंधी होती है. आदिवासियों के देवी–देवता और पुरखे भी गांव और किलि यानी कबीला के हिसाब से अलग होते हैं. इस स्थिति में एक ही समय में एक लड़की अपने मायके और ससुराल दोनों के नियमों के साथ न्याय नहीं कर पाएगी. इसी बात को ध्यान में रखते हुए आदिवासी लड़कियों को संपत्ति में अधिकार भी परंपरागत नियमों के अनुसार देते हैं.
बेटियों के उत्तराधिकार पर क्या कहता है आदिवासियों का कस्टमरी लाॅ

आदिवासी समाज में बेटियों के संपत्ति अधिकार पर बात करते हुए प्रसिद्ध नारीवादी रजनी मुर्मू कहती हैं कि आदिवासी समाज में संपत्ति पर महिलाओं को अधिकार जैसी कोई स्थिति नहीं है, हां यह जरूर है कि अगर महिला अकेली है, जैसे वह विधवा है या तलाकशुदा है, तो उसे उसके पिता के घर पर गुजर–बसर करने के लिए एक–दो खेत दे दिया जाता है. इसी को ताबेन जोम कहा जाता है. बदलते वक्त के साथ जो महिला अपने पिता की संपत्ति पर दावा करती है, उसे समाज हक देता भी है, यह नहीं कहा जा सकता कि कुछ भी नहीं मिलता, लेकिन यह अधिकार नहीं है, यह समाज की प्रथा के अनुसार बस गुजर–बसर करने के लिए ही दिया जाता है.
नेशनल लाॅ यूनिवर्सिटी रांची के असिस्टेंट प्रो रामचंद्र उरांव ने बताया कि आदिवासी समाज में बेटियों को जमीन की खरीद–बिक्री का कोई अधिकार नहीं है. उनका अधिकार बस गुजर–बसर तक ही सीमित है. उरांव समाज लड़कियों को अविवाहित रहने तक संपत्ति पर अधिकार देता है, लेकिन विवाह के बाद उन्हें कस्टमरी लाॅ के हिसाब से सिर्फ गुजारे भर का अधिकार है. बदलती परिस्थितियों में अगर कोई कस्टमरी लाॅ के खिलाफ जाती हैं, तो उन्हें अन्य तरीके अपनाने होंगे जैसे वह हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत संपत्ति पर अधिकार मांग सकती हैं या फिर लैंगिक समानता के सिद्धांत के आधार पर अधिकार मांग सकती हैं, जिसमें कई बार अधिकार मिले भी हैं, लेकिन कस्टमरी लाॅ के हिसाब से महिलाओं को सिर्फ गुजर–बसर का ही अधिकार है.
महिलाओं को अधिकार हैं, आप आगे आकर मांगिए तो : रश्मि कात्यायन
प्रसिद्ध अधिवक्ता और आदिवासियों के रीति–रिवाज और उनके समाज के बारे में गहरी जानकारी रखने वाले रश्मि कात्यायन कहते हैं कि आदिवासी समाज में महिलाओं को संपत्ति पर अधिकार मिलता है बशर्ते कि वे सामने आकर मांगें. झारखंड हाईकोर्ट से मैंने कई केस जीता भी है और महिलाओं को अधिकार दिलाया है. हिंदू महिलाओं को संपत्ति पर अधिकार दिलाने की मांग राजा राम मोहन राय ने 1814 में की थी और यह संभव हो पाया 2005 में, हालांकि यह पूरी तरह संभव हुआ 2021 में जब जस्टिस अरुण मिश्रा ने तमाम दुविधाओं का अंत कर दिया. वही स्थिति आदिवासी समाज की भी है, वे कस्टमरी लाॅ की बात करते हैं, दरअसल यह लाॅ नहीं हैं, प्रैक्टिस हैं. लेकिन वे समाज में इतनी मजबूती से कायम हैं कि उनका विरोध नहीं होता है. जो लोग देश के कानून के हिसाब से अपना हक मांगते हैं, उन्हें मिलता है, मेरे पास जो लड़कियां आती हैं, मैं उन्हें अधिकार दिलाता हूं. इसलिए मैं यह कहता हूं कि आप पहले सामने आकर अपना हक मांगिए तो, जिसे कानून की भाषा में क्लेम करना कहते हैं, यह तो हर समाज पर लागू है, केवल आदिवासियों की बात नहीं है.
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आदिवासी समाज में लड़कियों को संपत्ति पर अधिकार नहीं है यह कहना गलत : वासवी किड़ो
महिला अधिकारों की लगातार वकालत करने वाली एक्टिविस्ट और महिलाओं के संपत्ति अधिकार पर किताब –ताबेन जोम लिखने वाली वासवी किड़ो कहती हैं कि यह कहना बिलकुल गलत है कि आदिवासी समाज में लड़कियों को संपत्ति पर अधिकार नहीं है. उन्हें अधिकार हैं और पूरा समाज महिलाओं के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए लगातार प्रयत्नशील है. हां, अगर उनके अधिकारों की तुलना हिंदू महिलाओं के अधिकारों से की जाएगी, तो निश्चित तौर पर उन्हें उस तरह के अधिकार नहीं है. लेकिन आदिवासी महिलाओं पर हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम लागू नहीं होता है. आदिवासियों के अपने रीति–रिवाज और प्रथागत कानून हैं. उनके अनुसार कोई भी अविवाहित स्त्री अपने पिता की संपत्ति पर पूरा अधिकार रखती है. जो लोग बेटों के बराबर संपत्ति के अधिकार की बात करते हैं उन्हें यह जानना चाहिए कि आदिवासी समाज में अगर किसी व्यक्ति के तीन बेटे हैं, तो उन तीनों में सबसे बड़े बेटे को सबसे अधिक जमीन मिलती है, बाकी भाइयों को कम. इसलिए बिना जाने आदिवासियों की परंपरा पर बात करना सही नहीं है. जब किसी लड़की की शादी हो जाती है, तो वह अपने ससुराल जाती है और वहां उसका अपने पति की संपत्ति पर पूरा अधिकार होता है. अगर किसी के साथ कोई अनहोनी होती है, मसलन पति की मृत्यु हो जाए या फिर उसे उसका पति अपने साथ रखने से मना कर दे, तो पूरी पंचायत बैठती है और महिला की दूसरी शादी कराने से लेकर उसके गुजर–बसर की व्यवस्था की जाती है. ताबेन जोम परंपरा के तहत महिलाओं को गुजर–बसर का पूरा अधिकार दिया जाता है. जिस परिवार में कोई पुरुष सदस्य नहीं होता है वहां घर–जमाई लाने की भी व्यवस्था है. आदिवासी अपने परंपरागत कानून के साथ हैं और उसी के साथ रहना चाहते हैं, अगर आदिवासियों को बचाना है, तो उनके पारंपरिक रीति–रिवाज के अनुसार ही उन्हें रहने देना होगा.
संताल में महिलाएं ताबेन जोम से भी वंचित, समय के साथ व्यवस्था बदलनी चाहिए : बिटिया मुर्मू
समाज सेवी बिटिया मुर्मू कहती हैं हमारे संताल समाज में बेटियों को संपत्ति पर अधिकार जैसा कुछ भी नहीं है. सबकुछ पिता और भाइयों की इच्छा या कृपादृष्टि पर निर्भर है. पैतृक संपत्ति से तो हमें कुछ भी नहीं मिलता है, पिता जो खुद कमाते हैं, उसमें भी हमें अधिकार नहीं मिलता है. अगर पिता चाहे तो कुछ गिफ्ट कर सकता है. जहां तक बात विपरीत परिस्थिति में मिलने वाले अधिकार ताबेन जोम की है, तो वह भी अब संताल में महिलाओं को नहीं मिल रहा है. मेरे पास कई इस तरह के मामले आ चुके हैं, जहां ताबेन जोम से भी महिलाओं को वंचित कर दिया गया. मेरा यह कहना है कि बदलते दौर में भी अगर महिलाओं का हित नहीं सोचा जाएगा तो आखिर महिलाएं विपरीत परिस्थिति में कहा जाएंगी. पिता पर एक पुत्री का हक होना ही चाहिए और समाज को भी इसपर विचार करना चाहिए. मैं एक घटना बताती हूं– संताल परगना का ही केस है, पीड़िता का नाम सावित्री है. उसके पति को घर जमाई बनाकर लाया गया था वह भी विधिवत, लेकिन जब उसके पति की मृत्यु हो गई तो उसके शव को उसके चचेरे भाई गांव में दफनाने तक नहीं दे रहे थे. उनका कहना था कि इसका शव दफनाने के लिए जमीन नहीं दी जाएगी. वे उसकी पूरी संपत्ति हड़पना चाह रहे थे. मामला जब थाने तक पहुंचा, तो तीन दिन शव पड़ा रहने के बाद घर के बारी में उसे दफनाया गया, फिर कैसे कहा जाए कि महिलाओं को राइट्स हैं. यहां गौर करने बात यह भी है कि घर जमाई भी तभी लाया जा सकता है, जब पिता जीवित हो, पिता की मृत्यु के बाद मां घर जमाई नहीं ला सकती है. जब देश में कानून है, तो महिलाओं को क्यों उससे वंचित किया जाए. समय के साथ बदलाव आना जरूरी है.
असिस्टेंट प्रोफेसर मीनाक्षी मुंडा बताती हैं कि संपत्ति पर अधिकार लड़कियों को तब ही तक है, जबतक की लड़कियों की शादी नहीं हुई है, उसके बाद वो अगर पिता के घर विपरीत परिस्थिति में आती हैं, तो फिर ताबेन जोम ही मिलता है, जिसका आशय गुजर–बसर से है. लेकिन बदलते दौर में लड़कियां हक मांग रही हैं, कई मामले सामने आते हैं, कई बार परिवार वाले खुद ही बेटियों को संपत्ति देते हैं. हां पैतृक संपत्ति में उन्हें हिस्सा नहीं मिलता है, लेकिन पिता की अर्जित की हुई संपत्ति में उन्हें हक मिल रहा है. परंपरागत नियमों में थोड़ी कट्टरता है, लेकिन कोई भी परंपरा कट्टरता की वजह से ही जीवित रहती है.
पिता की अर्जित संपत्ति पर बेटियों को हक : दयामनी बारला
आदिवासी संपत्ति को लेकर क्या सोचते हैं यह समझना बहुत जरूरी है, तभी हम उसपर हक की बात कर पाएंगे और उसे समझ भी पाएंगे. आदिवासी समाज एकल समाज नहीं है, हम सामूहिकता में जीते हैं. खूंटकट्टी जमीन पर किसी का हक नहीं होता है, वह पूरे समुदाय की जमीन होती है. पुराने समय से यही व्यवस्था लागू थी. अंग्रेजों ने जब जमीन का पट्टा दिया, तो पुरुष प्रधान समाज होने की वजह से उसपर घर के पुरुषों का नाम लिखा गया. वह जमीन उसी तरह लड़कों के नाम पर ट्रांसफर होती गई. हमारे समाज में एक किलि के लोग एक जगह पर रहते हैं, उनकी पूजा पद्धति और रीति–रिवाज उसी के हिसाब से तय होती है. एक लड़की जब शादी करके दूसरे किलि में जाती है, तो वह वहां की परंपरा अनुसार आचरण करती है, अगर लड़कियों को पिता की संपत्ति पर अधिकार मिलेगा तो वह दोनों जगह की व्यवस्था संभाल नहीं पाएगी. हमारे समाज में अलग–अलग किलि में शादी की व्यवस्था है, ऐसे में दो किलियों का एक गांव में समागम कई तरह की परेशानी खड़ी करेगा. हां पिता की अर्जित की गई संपत्ति पर लड़कियों को पूरा हक मिलता है, कई पिता अपनी बेटियों के नाम पर अपनी संपत्ति कर रहे हैं.
संपत्ति पर अधिकार को लेकर पारंपरिक रीति–रिवाज में उठ रही परिवर्तन की मांग : गुंजल इकिर मुंडा

आदिवासी समाज के बुद्धिजीवी गुंजल इकिर मुंडा बताते हैं कि रीति–रिवाजों के अनुसार लड़कियों को संपत्ति पर अधिकार तो नहीं है, हां उनके गुजर–बसर की व्यवस्था है, जिसे ताबेन जोम कहा जाता है. ताबेन यानी चूड़ा और जोम यानी खाना. मतलब लड़कियों के लिए भोजन की व्यवस्था की जाती है, जिसके तहत उसे जमीन का एक टुकड़ा दिया जाता है, जहां खेती करके वह गुजर–बसर कर सकती है. लेकिन बदलती परिस्थितियों में युवा महिलाएं इन रीति–रिवाजों में परिवर्तन की बात कर रही हैं, हालांकि अभी इसमें समय लगेगा, लेकिन समाज में बात तो हो रही है.
सुखराम पाहन भी यह कहते हैं कि मुंडा समाज लड़कियों को संपत्ति पर अधिकार नहीं देता, लेकिन उनके गुजर–बसर की व्यवस्था समाज करता है. उन्हें यूं ही नहीं छोड़ा जाता है. समाज महिलाओं के लिए व्यवस्था करता है. जहां तक महिलाओं के संपत्ति अधिकारों की बात है, तो मांग आ रही है, जिसे समाज सुन तो रहा है, लेकिन अभी कोई परिवर्तन नहीं हुआ है. संभवत: समाज इसपर विचार करे.
असिस्टेंट प्रोफेसर पार्वती तिर्की कहती हैं कि हमारे समाज में समुदाय का जमान पर हक होता था. प्राचीन समय में किसी को उसे बेचने का अधिकार नहीं था. लेकिन बदलते दौर में आदिवासियों की जमीन बेची जा रही है और यह काम परिवार का पुरुष सदस्य ही कर रहा है. इन परिस्थितियों में लड़कियों के मन में यह बात आती है कि उन्हें भी पिता की संपत्ति पर हक मिलना चाहिए. देश का कानून जब यह कह रहा है तो आदिवासी महिलाएं उससे वंचित क्यों रहें?
कस्टमरी लाॅ पर देश का कानून तो भारी, लेकिन उसे लागू करवाने में है समस्या : अवनीश रंजन मिश्रा
झारखंड हाईकोर्ट के अधिवक्ता अवनीश रंजन मिश्रा बताते हैं कि उत्तराधिकार तय होता है, प्रापर्टी एक्ट, सीएनटी, एसपीटी एक्ट और पारंपरिक रीति रिवाजों के अनुसार. यहां गौर करने वाली बात यह है कि एसपीटी एक्ट में महिलाओं को उत्तराधिकार प्राप्त नहीं है. वहां महिलाओं के पास संपत्ति का अधिकार नहीं है. अब अगर कोई महिला संपत्ति पर अधिकार मांगती हैं तो वह किस आधार पर कोर्ट के पास गई है, यह महत्वपूर्ण है. अगर वह हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 2005 के तहत कोर्ट जाए या फिर लैंगिक समानता की बात करते हुए कोर्ट जाए, तो कोर्ट उसके पक्ष में न्याय करेगा. लेकिन इस न्याय को लागू करवाने में दिक्कत आएगी क्योंकि आदिवासियों के पारंपरिक रीति–रिवाज इसके खिलाफ हैं. कोई भी कोर्ट आपको जमीन पर एक दिन के लिए तो कब्जा दिला सकता है, लेकिन अगर आदिवासी समाज उसे स्वीकार्य ना करे, तो महिलाओं को परेशानी हो जाती है और यह होता है.
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