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बरकरार है आतंकवाद का खतरा

अल जवाहिरी के मरने के बाद यह मान लेना ठीक नहीं होगा कि अब यह समूह बहुत कमजोर हो जायेगा और उसमें बिखराव आ जायेगा.

अमेरिकी हमले में काबुल में रह रहे अल कायदा सरगना अयमान अल-जवाहिरी की मौत एक सुकूनदेह खबर है. यह व्यक्ति दुनियाभर में बीते दशकों में हुईं आतंकी घटनाओं के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार था. उसकी मौत से फिर एक बार यह साबित हुआ है कि तालिबानी अब भी अल कायदा से जुड़े लोगों को शरण दे रहे हैं. उन्होंने यह कभी कहा भी नहीं है कि वे इन्हें शरण नहीं देंगे.

चाहे दोहा समझौता हो या बाद के बयान हों, तालिबान ने हमेशा यही कहा है कि वे अफगानिस्तान की धरती का इस्तेमाल अमेरिका या अन्य देशों के खिलाफ नहीं होने देंगे. यह मान लेना समझदारी की बात नहीं थी कि तालिबान ने उस अल कायदा से अपना नाता तोड़ लिया है, जिसके साथ मिल कर वे लंबे समय तक लड़े हैं. यह मामला केवल अल कायदा का नहीं है, बल्कि तालिबान का यह रवैया अन्य दहशतगर्द समूहों के साथ भी है.

अमेरिका ने भी यह भ्रम फैलाया कि उसने अल कायदा का खात्मा कर दिया है और तालिबान ने भी यह झांसा दिया कि वे सुधर गये हैं और अब वे पुराने ढर्रे के तालिबान नहीं हैं. इसमें कोई अचरज नहीं होना चाहिए कि तालिबान ने अल कायदा के मुखिया को शरण दिया हुआ था और वह काबुल के एक पॉश इलाके में आराम से रह रहा था.

अल-जवाहिरी के मारे जाने के बारे में जो पाकिस्तान से रिपोर्ट आ रही हैं, उनसे लगता है कि पाकिस्तानी सरकार और सेना इसे अधिक तूल नहीं देना चाहती है. माना जा रहा है कि इस ड्रोन हमले के लिए पाकिस्तानी वायु क्षेत्र का इस्तेमाल हुआ है, लेकिन पाकिस्तान की ओर से बताया जा रहा है कि ऐसा नहीं हुआ है और यह ड्रोन किर्गिस्तान से गया था, पर इस हमले में पाकिस्तान का भी कुछ सहयोग जरूर रहा है. यह बहुत संभव है कि हवाई क्षेत्र का इस्तेमाल करने देने के अलावा पाकिस्तान ने अमेरिकी सेना को इंटेलिजेंस, खास कर घटना के बाद के हालात का जो आकलन किया जाता है, भी मुहैया कराया हो.

लगता है कि इस सहयोग के एवज में पाकिस्तान को कुछ आर्थिक मदद दी गयी है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से कर्ज का जो मामला लटका हुआ था, शायद अब उस पर रजामंदी हो जायेगी. इस हमले से कुछ दिन पहले ही अमेरिकी सेंट्रल कमान के प्रमुख ने पाकिस्तानी सेना प्रमुख से लंबी बातचीत की थी. उसके बाद पाक सेनाध्यक्ष ने अमेरिकी विदेश विभाग से संपर्क कर मुद्रा कोष से पैसा निकलवाने का निवेदन किया था. इस घटनाचक्र के तुरंत बाद अगर काबुल की घटना हो जाती है, तो इसे संयोग भर नहीं माना जा सकता है. ऐसे मामलों में पहले ही सहयोग को लेकर समझौते कर लिये जाते हैं. बहुत संभव है कि चुपचाप कुछ और रजामंदियां भी हुई होंगी.

जहां तक अल कायदा का सवाल है, अल जवाहिरी की मौत से उस पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा और वे एक नया नेता बना लेंगे. तीस वर्षों से हम सभी यही गलती कर रहे हैं कि अल कायदा जैसे समूहों को हम केवल एक संगठन के तौर पर देखते हैं. उन्हें एक फलसफे, एक विचारधारा के रूप में देखा जाना चाहिए. अल कायदा के भीतर से ही इस्लामिक स्टेट उभरा. अल कायदा का कारोबार जेहाद है.

उसका जो कारोबारी मॉडल है, वह किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी की तरह है. दुनियाभर में उसके सहयोगी समूह हैं. हमारे इलाके में भी अल कायदा से जुड़ा समूह सक्रिय है. इस लिहाज से देखें, तो अल कायदा की सोच का व्यापक विस्तार हुआ है.

जहां तक संगठन का मामला है, तो वह भी पुख्ता हुआ है. उसका स्वरूप भी अलग तरह का है. उसका केंद्र अफगानिस्तान-पाकिस्तान में है, लेकिन जो गिरोह उसके नाम से जगह-जगह चल रहे हैं, वे अपनी गतिविधियों के मामले में बहुत हद तक स्वायत्त हैं. वे अपने उद्देश्य और स्थानीय स्थितियों के हिसाब से कार्रवाई करते हैं. अल कायदा से एक विचार या मार्गदर्शन आता है, पर इन समूहों पर गतिविधियों को लेकर कोई ऊपरी नियंत्रण नहीं है. यह मॉडल बहुत हद तक कामयाब रहा है.

अल कायदा के केंद्रीय स्तर पर जेहादी कार्रवाइयों की पहले जैसी क्षमता नहीं रही है, लेकिन जबसे अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता स्थापित हुई है, तब से जेहादी विचारों के प्रचार की, लोगों को बरगलाने की, उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने की उनकी क्षमता में बहुत बढ़ोतरी हुई है. भारत को लेकर, कश्मीर पर, कुछ हद तक पाकिस्तान के बारे में और अन्य इलाकों को लेकर उनके बयानों की तादाद काफी बढ़ी है. प्रोपेगैंडा के मामले में बीते एक साल में जमीन-आसमान का अंतर आ चुका है.

इस लिहाज से देखा जाए, तो अल कायदा मजबूत ही हुआ है. अल जवाहिरी के मरने के बाद यह मान लेना ठीक नहीं होगा कि अब यह समूह बहुत कमजोर हो जायेगा और उसमें बिखराव आ जायेगा. अगर हम भारत के संदर्भ में अल कायदा के खतरे को देखें, तो यह बड़ा खतरा है और आगे चल कर यह गंभीर ही होगा.

भारतीय उपमहाद्वीप (भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश) में 60 करोड़ से अधिक मुस्लिम आबादी रहती है, जिसमें यह अपने विचार को फैलाने के लिए लगातार कोशिश कर रहा है. हमें कतई किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि दक्षिण एशिया के मुस्लिम समुदाय को अल कायदा बरगलाने का प्रयास नहीं करेगा, चाहे उसकी कमान अल जवाहिरी के हाथ में हो या किसी और आतंकी सरगना के.

हमारे यहां नीति-निर्धारण प्रक्रिया के साथ समस्या यह है कि हम कुछ महीनों या कुछ साल को ध्यान में रख कर रणनीति तैयार करते हैं, लेकिन अल कायदा जैसे समूह का एजेंडा दीर्घकालिक होता है और वे दशकों के हिसाब से काम करते रहते हैं. उसका बहुत अधिक ध्यान भारत पर है. हमें भी उसी तरह से सोचना होगा, लेकिन हम सोच रहे हैं कि अल जवाहिरी मर गया, तो अगले छह महीने में क्या होगा. ऐसे तौर-तरीकों से हम जेहादी आतंकवाद का सही ढंग से सामना नहीं कर सकते हैं.

सवाल किसी एक ओसामा बिन लादेन या अल बगदादी या अल जवाहिरी के मारे जाने का नहीं है, उनकी जगह तो कोई सरगना बन ही जायेगा, हमें यह सोचना है कि अल कायदा की जो जेहादी सोच है और उससे पैदा होने वाले अतिवाद और आतंकवाद हैं, उनसे लड़ाई बहुत लंबी चलेगी और इसी हिसाब से हमें अपना रास्ता भी तय करना है. (बातचीत पर आधारित).

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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